विवाद में नास्तिक से जीतना असंभव है ।

ओशो

हरि-चरचा से बैर संग वह त्यागिये।

संत कवि पलटूदास कहते हैं, जिनका हरि-चर्चा से बैर हो, उस संग-साथ को जल्दी ही छोड़ देना। इसके पहले कि बीमारी तुम्हें लग जाए, वहां से भागना, लौटकर देखना ही मत। उस चर्चा में रस है। उस चर्चा में उलझाव भी है। उस चर्चा में तर्क भी है। उस चर्चा में बहुत धोखे की संभावना है। वह चर्चा सार्थक भी लग सकती है। ईश्वर के पक्ष में तर्क ही क्या है! ईश्वर अतर्क्य है। आज तक कोई तर्क दिया नहीं जा सका। सब तर्क उसके खिलाफ हैं। अगर तुमने तर्क पर ध्यान दिया, तो तुम्हें नास्तिक ही ठीक मालूम होगा, आस्तिक ठीक नहीं मालूम होगा। आस्तिक तो परवाना है, दीवाना है। तुम्हें नास्तिक ही ठीक मालूम होगा, अगर तर्क पर ध्यान दिया। नास्तिक का तर्क सुडौल है, सुदृढ़ है, ठीक भूमि पर आधारित है। नास्तिक जो कहता है, उसमें भूल-चूक खोजनी कठिन है।

इसे समझ लेना ठीक से

नास्तिक से विवाद में जीतना असंभव है। क्योंकि विवाद तो उसका जगत है। नास्तिक से संवाद नहीं हो सकता, विवाद हो सकता है। नास्तिक को परमात्मा का कोई पता नहीं है; लेकिन परमात्मा नहीं है, इसके वह प्रमाण दे सकता है। और जिसे ईश्वर का पता है, वह उसके लिए कोई भी प्रमाण नहीं दे सकता।

यह बेबूझ पहेली है।

जिसने जाना है, उसके लिए गूंगे का गुड़ हो गया। जिसने जाना है, उसने अनुभव किया कि कोई शब्द उसे प्रकट नहीं कर सकते हैं। वह अभिव्यक्ति में नहीं आता है। जाना तो जाता है, लेकिन ज्ञान में नहीं समाता है। हमसे बड़ा है, हमसे विराट है। हम उसमें डूब जाते, गल जाते, पिघल जाते, एक हो जाते हैं। अब जो बूंद सागर में गिर कर एक हो गई है, वह क्या प्रमाण दे सागर का? वह बची कहां? उसका अलग होना न रहा, उसका अपना अस्तित्व न रहा; कैसा प्रमाण, किसका प्रमाण, कौन दे प्रमाण?

जिन्होंने जाना, वे चुप रह गए हैं ईश्वर के संबंध में। जिन्होंने नहीं जाना, वे बहुत मुखर हैं। जो ईश्वर के संबंध में प्रमाण देता है, वह उतना ही अज्ञानी है जितना वह, जो ईश्वर के विरोध में प्रमाण देता है। ईश्वर के संबंध में प्रमाण दिया ही नहीं जा सकता। यह तो पियक्कड़ों की बात है, प्रमाण की नहीं। यह तो मस्ती की बात है, तर्क की नहीं। हां, जाना जा सकता है। सत्संग में ही जाना जाता है। जो पीए बैठे हैं, जो डोल रहे हैं मस्ती से, जो यहां रखते हैं पैर और वहां पड़ता है पैर, जो कहीं रखते हैं पैर और कहीं पड़ता है पैर, जिनके भीतर आनंद छलक रहा है, उनके पास बैठोगे तो शायद कुछ बूंदाबांदी तुम पर भी हो जाए। उनका सत्संग करना। जहां हरि—चर्चा होती हो, वहां बैठना, उस रंग में रंगना।

लेकिन जहां हरि—चर्चा से बैर हो, पलटू कहते हैं, वह संग तत्काल छोड़ दो। क्योंकि वे बातें तुम्हारी बुद्धि को बहुत संगत मालूम होंगी। तुम्हारी खोपड़ी में उन बातों का खूब प्रभाव पड़ेगा। तुम्हारी खोपड़ी बिलकुल आश्वस्त हो जाएगी कि ऐसा ही है। तुम्हारा अहंकार चाहता है कि ईश्वर न हो। इसलिए जो भी तुम्हें ईश्वर के न होने के प्रमाण देगा, वह प्रीतिकर लगेगा। क्योंकि तुम्हारे अहंकार की प्रतिष्ठा होगी। तुम्हारा अहंकार बलिष्ठ होगा, पुष्ट होगा। तुम्हारे अहंकार को भोजन मिलेगा।

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फ्रेडरिक नीत्शे ने कहा है: ईश्वर नहीं है, नहीं हो सकता, क्योंकि मैं हूं। और एक म्यान में दो तलवारें नहीं हो सकतीं। फ्रेडरिक नीत्शे का वक्तव्य विचारणीय है। एक बहुत विचारशील आदमी का वक्तव्य है। उसकी विचारशीलता यद्यपि उसे विक्षिप्तता में ले गई—वह पागल हुआ। होना ही था पागल। क्योंकि ईश्वर से जितने टूटते जाओगे, उतनी ही तुम्हारी जड़ें अस्तित्व से अलग होने लगती हैं। और कोई वृक्ष पृथ्वी से टूट कर कितनी देर रहा रहेगा? कितनी देर उसकी कलियां फूल बनेंगी? कितनी देर उसके फूलों में गंध रहेगी? कितनी देर पक्षी उस पर घोंसले बनाएंगे? जल्दी ही सूख जाएगा। जल्दी ही अस्थिपंजर रह जाएगा। न यात्री उसकी छाया में बैठेंगे—छाया ही न होगी—न पक्षी उनके आसपास फुदकेंगे, गीत गाएंगे—हरियाली ही न होगी। वृक्ष जैसे भूमि से टूट जाए, जड़ें उसकी उखड़ जाएं, मर जाता है, वैसे ही आदमी भी एक वृक्ष है। उसकी जड़ें परमात्मा में हैं। अदृश्य है वह परमात्मा, अदृश्य हमारी जड़ें हैं। ऐसे भी वृक्षों की जड़ें भी कहां दिखाई पड़ती हैं? वे भी दबी हैं भूमि में, वे भी अदृश्य हैं इस अर्थ में। हमारी तो और भी अदृश्य हैं। क्योंकि हमारी जड़ें पौदगलिक नहीं हैं, पदार्थ की नहीं हैं, चैतन्य की हैं।

चेतना अदृश्य घटना है। हम चेतना से जुड़े हैं परमात्मा से। जितना हम परमात्मा को इनकार करते हैं, उतनी ही हमारी जड़ें टूटती चली जाती हैं। उतने ही हम रुग्ण और विक्षिप्त होने लगते हैं। जो नीत्शे के जीवन में घटा, वह अब पूरी दुनिया के जीवन में घट रहा है।

नीत्शे ने यह भी कहा था कि मैं भविष्यवाणी हूं। जो मुझे हो रहा है, वह सौ साल के भीतर प्रत्येक आदमी को होगा। और उसकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है। आज का आदमी जितना चिंतित, जितना उदास, जितना हारा—थका, जितना अर्थहीनता के बोझ से दबा है, उतना किसी सदी में कभी ऐसा न हुआ था। आदमी ने अपनी जड़ें अपने हाथ काट ली हैं। तुम सब कालिदास हो, जो उसी डाल पर बैठे हो जिसे काट रहे हो। हम परमात्मा से जुड़े हैं और अपने जोड़ तोड़ रहे हैं, अपने सेतु तोड़ रहे हैं।

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बचना उन लोगों से, हट जाना उन लोगों से, जहां परमात्म—विरोध की चर्चा हो रही हो। यद्यपि तुम्हारा मन चाहेगा कि बैठो! क्योंकि मन के लिए यही हितकर है कि परमात्मा न हो। तुम्हारा अहंकार कहेगा, थोड़ी और सुनो ये बातें। क्योंकि अहंकार तभी तक जी सकता है, जब तक तुम परमात्मा से नहीं जुड़े हो। जितने जुड़ोगे, उतना अहंकार कम।

इस गणित को खयाल में रख लो।

जितने परमात्मा से अलग होओगे, उतना अहंकार ज्यादा। जितना परमात्मा के साथ होओगे, उतना अहंकार कम। जिस दिन पूरे-पूरे उसके साथ हो जाओगे, उस दिन कोई अहंकार नहीं बचता है। तुम्हारे भीतर यह भाव ही नहीं बचता कि मैं हूं। बस एक धुन रह जाती है: वह है। वही है। केवल वही है।