डॉ. मयंक चतुर्वेदी।
हम कौन से संवेदनहीन समाज में रह रहे हैं । 12 साल या 14 वर्ष की बेटी खून से लटपट लोगों से मदद मांगती रहती है और लोग सहयोग देना तो दूर की बात है, उसे तमाशबीन बनकर उसकी नग्न देह को देखते हैं और सहयोग के नाम पर मुंह फेर लेते हैं । ह्दय में भारी पीड़ा है । चित्कार अंदर से हूक बनकर बाहर निकल रही है कि आखिर इस समाज के होते हुए हम किससे उम्मीद रखें ? क्या हर मामले में सरकार के भरोसे ही रहना उचित है, क्या समाज का अपना कोई उत्तर दायित्व नहीं है? याद रखें जो कल इस बिटिया के साथ हुआ है वह आनेवाले कल में तुम्हारी बेटियों के साथ भी हो सकता है! वह तो भला हो कि पुलिस की नजर उस बच्ची पर पड़ी और उसे तुरंत अस्पताल ले जाया गया, अन्यथा तो वह मौत के मुंह में जा ही चुकी थी।इस घटना की जितनी निंदा की जाएगी वह अपनी जगह है, लेकिन जो समाज है उसकी संवेदनहीनता के लिए क्या किया जाए जोकि यह बता रही है कि हम कौन से निर्लज समाज का तना बना बुन बैठे हैं? जहां संवेदनाएं तक शून्य हो चुकी हैं। निष्ठुरता की हद इतनी पार हो चुकी है कि हमें कोई फर्क ही नहीं पड़ता है, यदि हमारे सामने भी कोई किसी के साथ अत्याचार कर रहा हो। दिल्ली की निर्भया अभी तक जहन से नहीं निकली है, किंतु उज्जैन में जो घटना घटी, वह भी निर्भया से किसी कीमत पर भी कम नहीं है। 16 दिसंबर 2012, वो रविवार की रात थी जब एक 23 साल की छात्रा के साथ चलती बस में छह लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया था। सामूहिक बलात्कार, लोहे की रॉड से मारा-पीटा और उसे सड़क किनारे फेंक दिया, उस समय भी समाज की संवेदनहीनता उजागर हुई थी। यदि समय पर इलाज मिल जाता तो आज निर्भया जिंदा होती !
2012 में दिल्ली में दिल्ली में घटी घटना निर्भया हो या 2023 में उज्जैन में घटी यह घटना, दोनों ही मामलों में समाज की अति संवेदनहीनता और निर्लज्जता ही सामने आई है। देश की राजधानी से हम जब यह अपेक्षा नहीं करते कि कोई ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटे, तब भगवान महाकाल की नगरी उज्जैन में हम कैसे यह सोच सकते हैं कि यहां इस तरीके की असहयोगात्मक सामाजिक व्यवस्था होगी और लोग देखकर भी सहयोग देने से पीछे हट जाएंगे । विषय की गंभीरता को जानकर भी उसे अनदेखा कर देंगे।
भारत का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस-5) यह स्पष्ट बता रहा है कि 18 से 49 साल की लगभग 30 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं, जिन्हें 15 साल की उम्र के बाद शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है। छह फीसदी महिलाओं को जिंदगी में कभी न कभी यौन हिंसा झेलनी पड़ी, लेकिन महज 14 फीसदी महिलाएं ही ऐसी रहीं हैं जिन्होंने अपने साथ हुई शारीरिक या यौन हिंसा के बारे में बताया है। यानी कि देश के एक चौथाई बच्चे भारी संकट में हैं। अखबारों की सुर्खियां देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं क्योंकि इन मामलों में अमानवीय व्यवहार की चरम सीमा तक पार होती दिखाई पड़ती है।
भारत में यौन शोषण के शिकार हुए बच्चों की एक बड़ी संख्या है। पॉक्सो यानी प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन अगेंस्ट सेक्सुअल ऑफेंस जैसे कड़े कानून होने के बावजूद इस ग्राफ में साल दर साल इजाफा हो रहा है। नैशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार पिछले पांच साल के आँकड़े 18 साल से ज़्यादा उम्र की महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों की तुलना में नाबालिग़ों के साथ बलात्कार की घटनाएं लगातार बढ़ने के साक्ष्य दे रहे हैं। हालांकि केंद्र से लेकर प्रत्येक राज्य सरकारें अपने स्तर पर अनेक अभियान चला रही हैं, ताकि अपराध में कमी आए, लेकिन आदमी की सोच का क्या किया जाए ? वह तो समाज से ही विकसित होती है। जैसा समाज संवेदनहीन और भ्रष्ट होता जा रहा है, वैसा ही दृष्य हर रोज सामने आ रहा है। इसे भला कौन सी सरकार रोक सकती है? फिर सरकारों में भी इसी समाज के लोग हैं जो कई बार कई मामलों को रफा-दफा तक कर देते हैं।
एक साल पहले जो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट आई, उसने साफ बताया है कि बच्चों के बलात्कार के 13,766 मामले, बच्ची का शीलभंग करने के इरादे से हमला करने के 11,335 मामले, यौन शोषण के 4,593 मामले, बच्ची को निर्वस्त्र करने के इरादे से हमला या शक्ति प्रयोग के 711 प्रकरण, घूरने के 88 और पीछा करने के 1,091 मामले दर्ज किए गए । ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि बाल यौन शोषण के अधिकतर मामलों में पॉस्को लगाया ही नहीं गया था।
बाल यौन उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिए केंद्रीय कैबिनेट, मोदी सरकार ने साल 2019 में पॉक्सो कानून को और कड़ा करने के लिए इसमें संशोधनों को मंजूरी दी थी । संशोधनों में बच्चों का गंभीर यौन उत्पीड़न करने वालों को मृत्युदंड तथा नाबालिगों के खिलाफ अन्य अपराधों के लिए कठोर सजा का प्रावधान किया गया। बाल यौन अपराध संरक्षण (पॉक्सो) कानून में प्रस्तावित संशोधनों में बाल पोर्नोग्राफी पर लगाम लगाने के लिए सजा और जुर्माने का भी प्रावधान किया गया। सरकार ने कहा कि कानून में बदलाव से देश में बढते बाल यौन शोषण के मामलों के खिलाफ कठोर उपाय और नई तरह के अपराधों से भी निपटने की जरूरत पूरी होगी। लेकिन उसके बाद भी आश्चर्य ही है कि अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहे। हां, ऐसी किसी भी घटना पर राजनीतिक स्तर पर आरोप-प्रत्यारोप जरूर होता है। जैसा कि इन दिनों कांग्रेस मध्यप्रदेश में हमलावर दिखाई दे रही है, जबकि उसकी जहां भी सरकारें हैं, राजस्थान जैसे राज्य, वहां तो आंकड़ा बाल या महिला यौन शोषण का और भी ज्यादा भयंकर है। तो क्या इस तरह की राजनीति करने से इस समस्या का हल हो जाएगा? वस्तुत: इससे स्पष्ट होता है कि अपराधियों के हौसले बुलंद हैं, उन्हें कानून का कोई भय नहीं रह गया है।
सच पूछा जाए तो आंकड़ों, अपराध की प्रवृत्ति, समाज की भूमिका को देखने के बाद यह साफ तौर से दिखाई देता है कि बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न की घटनाओं में सिर्फ इजाफा ही नहीं हो रहा है बल्कि ऐसी घटनाएं इतनी तेजी से बढ़ रही हैं कि उन्हें सिर्फ कानून बनाकर रोक पाना असंभव है। इसके लिए हमें एक बड़ी सामाजिक चेतना घर-घर, व्यक्ति-व्यक्ति में जगाने की जरूरत है, जिसमें के सोच सही दिशा में लगे। जब तक सोच नहीं बदलेगी, अपराधों में कमी आनेवाली नहीं है।
याद रखिए, यदि अपराध के खिलाफ आज नहीं जागे तो बेटियां इसी तरह से सिरफिरों और गंदी मानसिकता वालों की शिकार बनाई जाती रहेंगी। अरे, बेटियां ही क्यों, बेटे भी नहीं बच रहे हैं, इन जैसों के द्वारा शिकार होने से । यदि इस गंदी मानसिकता को समाज से हटाना है तो सबसे पहले सोच बदलने की जरूरत है और इस सोच को बदलने के लिए समाज में सबसे पहले चाहिए स्वयं से अन्याय के खिलाफ खड़े होने के लिए संकल्पित होने की। ताकि आगे अन्य कोई बेटी दर-दर सहयोग के लिए न भटके। अपराधियों को तुरंत दण्ड मिले।(एएमएपी)