आपका अख़बार ब्यूरो ।
साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता, हिंदी भाषा के प्रख्यात लेखक और कवि मंगलेश डबराल (Manglesh Dabral) का बुधवार, 9 दिसंबर को कार्डियक अरेस्ट की वजह से निधन हो गया। मंगलेश डबराल के काव्य संग्रह पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज काफी प्रसिद्ध हैं। मंगलेश डबराल को साहित्य जगत में उनके अतुलनीय योगदान के लिए साल 2000 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
पत्रकार मिथिलेश कुमार सिंह अपनी फेसबुक वॉल पर लिखते हैं : “खबर सिर्फ इतनी नहीं है कि 1948 में टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गांव में वह पैदा हुआ था, पढ़ाई- लिखाई देहरादून में हुई, नौकरी उसने देश के मुख्तलिफ शहरों में की, वह कवि पहले था और जिंदगी की जरूरतों ने उसे पत्रकार बाद में बनाया लेकिन पत्रकारिता में भी वही खनक, वही पहाड़ से उतरती किसी मेघाछन्न नदी का वेग…। वह शख्स मर गया। अब नहीं है वह। उसका नाम था मंगलेश डबराल। खबर सिर्फ इतनी नहीं है कि उसे कोरोना ने निगल लिया और राजधानी दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उसने जिंदगी से कहा- अब तुमसे रुखसत होता हूं।
खबर यह भी है कि वह एक जुझारू कवि था। समय के आर- पार लड़ने वाला और जीवन के महा महासमरों में भी जिबह होने के बावजूद हर बार उठ खड़ा होने वाला, जैसे शमशेर की कविता का पुनर्पाठ उनका कोई चश्मे चराग़ कर रहा हो: काल तुझसे होड़ है मेरी… जैसे विजयदेव नारायण साही के ‘मछलीघर’ के फंदे काट रहा हो वह बूढ़ा जिसका तसव्वुर अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने किया था, जैसे रो रहा है कोई बाजबहादुर और उसके साथ समूचा मालवा जारोकतार रो रहा हो कि इस मोहब्बत को उसके अंजाम तक पहुंचाने के लिए हमें और कितने रतजगे करने होंगे, कि कब वह घड़ी आएगी और बोलने लगेंगे पेड़। मंगलेश की कविताएं कुछ वैसी ही हैं। लड़ती- भिड़ती, निजता को सामूहिकता में बदलती और अंतत: अपनी जड़ों (मनुष्यत्व) की ओर लौटती।“
मंगलेश डबराल की 3 कविताएं
पिछली सर्दियाँ बहुत कठिन थीं
उन्हें याद करने पर मैं सिहरता हूँ इन सर्दियों में भी
हालाँकि इस बार दिन उतने कठोर नहीं
पिछली सर्दियों में चली गई थी मेरी माँ
खो गया था मुझसे एक प्रेमपत्र छूट गई थी एक नौकरी
रातों को पता नहीं कहाँ भटकता रहा
कहाँ कहाँ करता रहा टेलीफ़ोन
पिछली सर्दियों में
मेरी ही चीज़ें गिरती रही थीं मुझ पर
इन सर्दियों में
निकालता हूँ पिछली सर्दियों के कपड़े
कंबल टोपी मोज़े मफ़लर
देखता हूँ उन्हें गौर से
सोचता हुआ बीत गया है पिछला समय
ये सर्दियाँ क्यों होगी मेरे लिए पहले जैसी कठोर
जब माँ की काफ़ी उम्र हो गई
तो वह सभी मेहमानों को नमस्कार किया करती
जैसे वह एक बच्ची हो और बाक़ी लोग उससे बड़े।
वह हरेक से कहती — बैठो कुछ खाओ।
ज़्यादातर लोग उसका दिल रखने के लिए
खाने की कोई चीज़ लेकर उसके पास कुछ देर बैठ जाते
माँ खुश होकर उनकी तरफ़ देखती
और जाते हुए भी उन्हें नमस्कार करती
हालाँकि वह उम्र में सभी लोगों से बड़ी थी।
वह धरती को भी नमस्कार करती कभी अकेले में भी
आख़िर में जब मृत्यु आई तो
उसने उसे भी नमस्कार किया होगा
और अपना जीवन उसे देते हुए कहा होगा —
बैठो कुछ खाओ।
एक दिन जब मुझे यक़ीन हो गया
कि मेरा दिल ही सारी मुसीबतों की जड़ है
इस हद तक कि अब वह ख़ुद एक मुसीबत बना हुआ है
मैं उसे डॉक्टर के पास ले गया
और लाचारी के साथ बोला — डॉक्टर ! यह मेरा दिल है
लेकिन यह वह दिल नहीं है
जिस पर मुझको कभी नाज़ था।
डॉक्टर भी कम अनुभवी नहीं था
इतने दिलों को दुरुस्त कर चुका था
कि ख़ुद दिल के पेशेवर मरीज़ से कम नहीं लगता था
उसने कहा तुमने ज़रूर मिर्ज़ा ग़ालिब को ग़ौर से पढ़ा है
मैं जानता हूँ यह एक पुराना दिल है
पहले यह पारदर्शी था, लेकिन धीरे-धीरे अपारदर्शी होता गया
और अब उसमें कुछ भी दिखना बन्द हो गया है
वह भावनाएँ सोखता रहता है और कुछ प्रकट नहीं करता
जैसे एक काला विवर सारी रोशनी सोख लेता हो
लेकिन तुम अपनी हिस्ट्री बताओ ।
मैंने कहा — जी हाँ, आप शायद सही कहते हैं
मुझे अक्सर लगता है, मेरा दिल जैसे अपनी जगह पर नहीं है
और यह पता लगाना मुश्किल है कि वह कहाँ है
कभी लगता है, वह मेरे पेट में या हाथों में चला गया है
अक्सर यही भ्रम होता है कि वह मेरे पैरों में रह रहा है
बल्कि मेरे पैर नहीं यह मेरा दिल ही है
जो इस मुश्किल दुनिया को पार करता आ रहा है ।
डॉक्टर अपना पेशा छोड़कर दार्शनिक बन गया
हाँ-हाँ — उसने कहा — मुझे देखते ही पता चल गया था
कि तुम्हारे जैसे दिलों का कोई इलाज नहीं है
बस, थोड़ी-बहुत मरम्मत हो सकती है, कुछ रफू वगैरह
ऐसे दिल तभी ठीक हो पाते हैं
जब कोई दूसरा दिल भी उनसे अपनी बात कहता हो
और तुम्हें पता होगा, यह ज़माना कैसा है
इन दिनों कोई किसी से अपने दिल की बात नहीं कहता
सब उसे छिपाते रहते हैं
इतने सारे लोग लेकिन कहीं कोई रूह नहीं
इसीलिए तुम्हारा दिल भी अपनी जगह छोड़कर
इधर-उधर भागता रहता है, कभी हाथ में, कभी पैर में ।