भारतीय स्वतंत्रता के लिये जितना संघर्ष प्रत्यक्ष आँदोलन के लिये हुआ उससे कहीं अधिक उस अप्रत्यक्ष संघर्ष में जीवन समर्पित हुये जिन्होंने स्वाधीनता आँदोलन में तो भाग लिया ही साथ ही भारतीय संस्कृति के मानविन्दुओं और परंपराओं के प्रति जाग्रति के लिये जीवन समर्पित किया । ऐसे ही जीवनदानी थे संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जो स्वाधीनता आँदोलन में भी जेल गये और गौरक्षा आँदोलन में भी ।
गुरुकुल छोड़ आंदोलन में शामिल हुए
इसी बीच गुरुकुलों पर अंग्रेजों का दबाव बढ़ रहा था । इसलिये गुरुकुल के विद्यार्थियों में बेचैनी थी । तभी पंजाब और बंगाल के युवकों द्वारा स्वाधीनता आँदोलन में बढ़ चढ़ भाग लेने के समाचार आये तो प्रभुदत्त ने भी पढ़ाई छोड़कर गुरुकुलों के दमन के विरुद्ध आँदोलन आरंभ किया । 1905 में गिरफ्तार हुये और अलीगढ़ जेल भेजे गये । रिहा होकर मथुरा आये तथा आश्रम बनाकर रहने लगे । उनका आश्रम सांस्कृतिक जागरण का एक प्रमुख केन्द्र था । 1921 में गाँधी जी के आव्हान पर देशभर में असहयोग आँदोलन प्रारंभ हुआ । प्रभुदत्त जी पुनः आँदोलन में सहभागी बने और पुनः गिरफ्तार हुये । लेकिन असहयोग आँदोलन में खिलाफत आँदोलन जोड़ने से वे सहमत नहीं थे और उन्होंने स्वयं को सीधे राजनैतिक आँदोलन से तो तटस्थ कर लिया पर सामाजिक जागरण के काम में सक्रिय हुये । और पूरे भारत की यात्रा की । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे भारत के बटवारे से बहुत दुखी हुये । और स्वयं को एकाकी बना लिया । उन्होंने गायत्री मंत्र की साधना आरंभ की और तप करने के विचार से हिमालय की ओर गए और फिर वृन्दावन में आश्रम बनाकर रहने लगे। आश्रम में प्रवचन और श्रीमद्भागवत का काव्य रूपान्तरण करने के काम में जुट गये । वे ब्रजभाषा के सिद्धहस्त कवि थे। उन्होंने श्रीमद्भागवत को ब्रजभाषा के छन्दों में तैयार की । ब्रजभाषा में पहला “भागवत चरित कोश’ रचना करने वाले वे पहले विद्वान थे ।
स्वतंत्र भारत में गौहत्या बंद न होने से दुखी
भारत की स्वतंत्रता के बाद देश में गौहत्या बंद न होने से वे बहुत दुःखी रहा करते थे । उन्होंने 1960 में ब्रन्दावन में पहली गो-हत्या निरोध समिति बनायी और गौरक्षा केलिये जन जागरण करने के लिये पूरे देश की यात्रा की । 1966 में जब स्वामी करपात्री जी महाराज ने गौरक्षा आँदोलन आरंभ किया तो उसमें भी सहभागी बने । दिल्ली के प्रदर्शन में भाग लिया तथा गौरक्षा के लिये अनशन आरंभ किया जो 80 दिन तक चला । तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने उनसे अनशन त्यागने का आग्रह किया और संतों ने रसपान कराकर उनका अनशन समाप्त कराया। समय के साथ वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आये और संघ के द्वितीय सरसंघचालक। श्री गुरुजी के भी निकट रहे देश के अनेक भागों की यात्रा भी की । इसी बीच जब “हिन्दू कोड बिल’ आया तो स्वामी जी ने इसे हिन्दु समाज के हितों के विपरीत माना और सामाजिक जागरण केलिए पुनः देशव्यापी यात्रा की और सभाएँ संबोधित कीं।
स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी भारतीय संस्कृति का एक स्तम्भ
सामाजिक जागरण के लिये उन्होंने दिल्ली में 26 फीट ऊँची हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित की । स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी भारतीय संस्कृति का एक स्तम्भ माने जाते हैं उन्होंने अपने जीवन का हर पल भारतीय संस्कृति की स्थापना एवं सनातन जीवन शैली में शुद्धि के लिये समर्पित किया । उन्होने अनेक ग्रंथों की रचना की जिनमें महाभारत के प्राण महात्मा कर्ण, गोपालन, शिक्षा, बद्रीनाथ दर्शन, मुक्तिनाथ दर्शन, महावीर हनुमान जैसा उदात्त साहित्य ग्रंथ प्रमुख है । ब्रह्मचारी जी ने दिल्ली, वृन्दावन, बद्रीनाथ और प्रयाग में संकीर्तन भवन के नाम से चार आश्रम स्थापित किये जो आज भी सुचारू रूप से संचालित हैं। वे आध्यात्म के अद्भुत विद्वान थे । वे कहते थे कि समाज को पहले संकीर्तन से जोड़ो फिर आध्यात्म ज्ञान के प्रवचन हों। इसीलिये उन्होंने वृन्दावन में यमुना के तट पर वंशीवट के निकट, प्रयागराज प्रतिष्ठानपुर झूसी में अनेकानेक प्रकल्पों के साथ संकीर्तन भवन स्थापित किया तो दिल्ली के वसंत विहार में संकीर्तन भवन के साथ हनुमान जी की विशालकाय मूर्ति स्थापना का कार्य आरंभ किया । पर यह कार्य उनके जीवन काल में पूरा न हो सका । वे अपने प्रवास के दौरान अपने झूंसी आश्रम आये थे और उन्होंने देह त्यागने का निर्णय ले लिया और उपवास आरंभ कर दिया । वह 1 अप्रैल 1990 का दिन था ब्रह्मचारी जी गायत्री मंत्र जाप के साथ गंगा मैया के जल में प्रविष्ट हुये और समाधिस्थ हो गये । उनके चिर समाधिस्थ हो जाने के बाद दिल्ली में 120 फीट ऊँची प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा संपन्न हुई । वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । गौसेवा, गौरक्षा आँदोलन, स्वाधीनता आँदोलन में जितनी सक्रियता रही उतनी ही सक्रियता ग्रंथ रचना और पत्रकारिता में भी थी ।