भारत समेत दुनिया के सभी देशों के मुसलमान मानते हैं कि फिलिस्तीन मुसलमानों का है और यहूदी यहां शरणार्थी बन कर आए और काबिज हो गए. यह बात नैतिक तो है पर पूरी तरह सच नहीं. फिलिस्तीन के इतिहास में जाएं तो अभी ईसा की छठी शताब्दी तक फिलिस्तीन पर ईसाइयों का कब्जा था और इसके 200 वर्ष पूर्व तक यहां यहूदी काबिज थे।

सातवीं सदी में इस्लाम फैला तब फिलिस्तीन में मुस्लिम संख्या तेजी से बढ़ने लगी. फिर भी यहूदियों की संख्या यहां काफी थी, लेकिन जैसे-जैसे मुसलमान बढ़े यहूदी और ईसाई यहां से पलायन करने लगे. फिलिस्तीन 640 ईस्वी में मुस्लिमों के नियंत्रण में आया. बाकी अरब देशों पर कब्जे के बाद. यहूदियों का दावा है, कि फिलिस्तीन का येरूशलम उनका पवित्र स्थान है।

ईसा के 957 वर्ष पहले यहां यहूदी मंदिर बना था

यहूदियों की मानें तो तथ्य बताते हैं कि ईसा के 957 वर्ष पहले यहां पहला यहूदी मंदिर बना. दूसरे यहूदी मंदिर का निर्माण 352 ईसा पूर्व का है. इसके बाद ईसाइयों ने येरूशलम में सन 581 ईस्वी में सेंट मेरी चर्च बनवाया, जबकि यहीं पर बनी अल रक्सा मस्जिद का निर्माण 702 ईस्वी का है. यहूदी अल रक्सा मस्जिद की पश्चिमी दीवार को चूमते हैं, उनका मानना है यहीं पर उनका वह मंदिर था जो 352 ईसा पूर्व में बना था।

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इसीलिए येरूशलम तीनों धर्म वालों के लिए पवित्र स्थान बना रहा. यहूदी दुनिया के किसी हिस्से में फैले हों, वे साल में एक बार येरूशलम जरूर आते थे. अल-रक्सा मस्जिद और डोम ऑफ रॉक उमैया साम्राज्य के समय बने. हालांकि तब भी यहूदी और ईसाई इसे अपना पवित्र स्थान बताते रहे. 1516 में फिलिस्तीन सीरिया के ऑटमन साम्राज्य के अधीन हो गया।

ऑटमन साम्राज्य के समय यहूदियों का पलायन हुआ

यह ऑटमन साम्राज्य काफी लम्बा चला, 16 वीं सदी की शुरुआत से लेकर 20वीं सदी की शुरुआत तक अर्थात कोई 500 साल तक. इस दौर में यहूदी व्यापार करने के लिए यूरोप और उसके बाद उत्तरी अमेरिका चले गए. इन लोगों ने यूरोप-अमेरिका के सारे व्यापार पर कब्जा कर लिया. खास तौर पर 19वीं और 20वीं सदी में इसलिए वहां इनके विरुद्ध नफरत की हवा चली. उधर पहले विश्व युद्ध के बीच में ही ब्रिटेन ने फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया और ऑटमन साम्राज्य का पतन हो गया. उस समय भी पूरे फिलिस्तीन में अरब और यहूदियों की ही आबादी थी. कुछ ईसाई भी रहते, लेकिन जैसे-जैसे तनाव बढ़ा, ब्रिटेन ने पूरे विश्व के यहूदियों को उनके मूल वतन में आ कर बसने का निमंत्रण दिया. इससे यहां दोनों समुदायों के बीच द्वेष बढ़ने लगा।

UN ने बांटा फिलिस्तीन को

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र (UN) ने फिलिस्तीन को दो हिस्सों में बांट दिया. एक हिस्सा अरबों का और एक हिस्सा यहूदियों के लिए. यहूदियों के लिए यह नायाब अवसर था और 14 मई 1948 को उन्होंने नए राष्ट्र इजराइल के गठन की घोषणा कर दी. इसके बाद से यहां ब्रिटिश साम्राज्य समाप्त हो गया. अंग्रेजों के जाते ही यहां अरब और इजराइल युद्ध शुरू हो गए. अरब लीग इस नए राष्ट्र के विरोध में था. यहूदी हर तरह से संपन्न थे. पैसे उनके पास अथाह थे, ऊपर से अमेरिका उन्हें हथियार भी मुहैया करवाता. हर युद्ध में यहूदी अरबों की जमीन दबा लेते. पूरा फिलिस्तीन तीन हिस्सों में बंट गया. सबसे बड़ा हिस्सा इजराइल के पास और अरबों के पास बचा वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी. इजराइल अपने गठन के बाद से ही यहूदी राष्ट्र को विश्व मान्यता पाने की जद्दोजहद करता रहा और फिलिस्तीन इसका विरोध करता रहा।

पहली मान्यता सोवियत संघ ने दी

गठन के एक साल बाद इजराइल UN का सदस्य बन गया. UN के 165 देशों ने इसे मान्यता दी हुई है, लेकिन 28 देशों ने इसके अस्तित्त्व को नहीं स्वीकार किया है. मजे की बात है कि इसके गठन की घोषणा के तीन दिन बाद इजराइल को जिस पहले देश ने मान्यता दी, वह सोवियत संघ था. संयुक्त राष्ट्र का सदस्य तो यह एक साल बाद बना।

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आज भले पुतिन फिलिस्तीन के साथ खड़े हों, लेकिन सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव स्टालिन ने इसे सबसे पहले मान्यता दी थी, लेकिन 1967 के अरब इजराइल युद्ध के बाद अरब लीग के दबाव में सोवियत संघ ने इजराइल को मान्यता देने की बात से मुकर गया. इसी के साथ सोवियत संघ के समर्थक पूर्वी ब्लॉक के सभी देशों (पोलैंड, चेकस्लोवाकिया, हंगरी और बुल्गारिया) ने इजराइल से संबंध तोड़ लिए. अरब देशों ने इजराइल को तेल देना बंद कर दिया।

भारत ने दूरी बरती

इजराइल के मामले में चीन शुरू से ही अलग रहा. भारत अपनी गुट निरपेक्ष नीति के चलते इजराइल से दूर रहा. उसने फिलिस्तीन के स्वतंत्रता संघर्ष को सराहा. यासर अराफात से भारत के रिश्ते मधुर रहे. पर मिस्र और जोर्डन ने भी इजराइल को मान्यता दे दी. 1973 में अरब और इजराइल के बीच भीषण युद्ध हुआ, इसके चलते मुस्लिम देशों ने इजराइल से संबंध खत्म कर लिए. 2009 के गाजा युद्ध के बाद वेनेजुएला ने संबंध तोड़े, जबकि वह कोई मुस्लिम देश नहीं है, लेकिन फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) को जब इजराइल ने मान्यता दी तो कई देशों ने इजराइल को मान्यता दी. यहां तक कि संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और सऊदी अरब ने भी बीच-बीच में इजराइल से मधुर संबंध रखे. भारत ने 1952 तक इजराइल को मान्यता दी थी और फिर संबंध तोड़ लिए. 1992 के बाद फिर रिश्ते बने किंतु औपचारिक संबंध 2014 के बाद बने।

मोदी पहले PM जो इजराइल गए

2017 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं इजराइल की यात्रा पर गए. किंतु तब वे फिलिस्तीन नहीं गए. हालांकि फिलिस्तीन के प्रति भारत अपनी पुरानी नीति पर कायम भी रहा. फिलिस्तीन के उदारवादी दलों के साथ उसके संबंध बने रहे, लेकिन 2022 में जब इजराइल में बेंजामिन नेतन्याहू दोबारा प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इजराइल के कट्टरपंथी यहूदी संगठनों को अपने साथ किया. उनकी लिकुड पार्टी आज सभी कट्टरपंथियों को समेटे है. इनमें यहूदीवादी पार्टी (रिलीजियस जायनिस्ट पार्टी) भी है. अमेरिका में जब डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति बने, तब उन्होंने इजराइल का समर्थन किया था. ट्रंप ने अमेरिका के दूतावास को यरुशलम में खोला. इजराइल के कट्टरपंथियों को ताकत मिली. मजे की बात कि जो बाइडेन ने भी इजराइल के मामले में ट्रंप की नीतियों का ही समर्थन किया।

भारत के समर्थन से नेतन्याहू को ताकत मिली

भारत में अब एक और बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. अभी 7 मई से हमास के हमले के बाद से भारत ने खुल कर इजराइल का समर्थन किया है. शनिवार को ही नेतन्याहू ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फोन पर बातचीत की थी और हमले से अवगत कराया. इस बातचीत में भारतीय प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कहा, कि वे आतंकवाद की निंदा करते हैं तथा इजराइल के साथ हैं. भारत जैसे बड़े देश का साथ मिल जाने से नेतन्याहू की बांछें खिल गई हैं।

रूस और चीन का फिलिस्तीन को समर्थन है किंतु इस नाज़ुक समय में भारत का इजराइल के साथ खड़े होना मायने रखता है. मध्य एशिया की राजनीति में भारत जैसे बड़े देश की उपेक्षा संभव नहीं. यूरोप के अधिकांश देश और अमेरिका पहले से ही इजराइल के साथ हैं. अब भारत का सपोर्ट उसकी ताकत बढ़ाएगा। (एएमएपी)