अमीश त्रिपाठी ।
अक्सर पूछा जाता है कि क्या भारत सैन्य युग से पैसे के युग में चला गया है?
मेरे ख्याल से तो हम उलझन में हैं। सैन्य युग को हम पीछे छोड़ चुके हैं, पिछली सदी के महानतम नेताओं में से एक महात्मा गांधी की बदौलत। हम भारतीयों ने अपने लिए एक भ्रमजाल बुना है कि हम हमेशा से अहिंसावादी रहे हैं। यह सच नहीं है। हमने भी अपने हिस्से के हिंसक दुस्साहस देखे हैं। उदाहरण के लिए- बर्बर पाल-चोल युद्ध। महात्मा गांधी के प्रभाव ने (हमारी प्राचीन दार्शनिक विरासत के अंशों पर निर्मित) नाटकीय रूप से अधिकांश भारतीयों में हिंसा के प्रति रुझान को कम कर दिया था, और इस तरह हमें क्षत्रिय युग से बाहर निकाला था।
सवाल यह भी है कि क्या हम पूरे मन से वैश्य युग में प्रवेश कर चुके हैं?
ऐसा नहीं है। पैसे के साथ हमारा एक जटिल रिश्ता है। बहुत से लोगों- खासकर हमारी वृद्ध पीढ़ी- का यह नजरिया है कि धन भ्रष्टाचार को बढ़ाता है। हमारे मन में धन के प्रति ब्राह्मणवादी/क्षत्रियवादी घृणा है। हालांकि हमारे नौजवान इस रवैये से कम पीड़ित हैं। यह उस ढर्रे में सामने आती है जिससे हम अपने जीवन को, अपने रिश्तों को चलाते हैं। यह हमारे धनाढ्य वर्ग की बेहूदा फिजूलखर्ची तक में उजागर होती है, जो कि धन के साथ अस्वस्थ रिश्ते का लक्षण है।
तमाम लोगों के मन में यह आशंका हो सकती है कि क्या कभी पैसा भी समाज का अहित कर सकता है और उसे नुक्सान पहुंचा सकता है?
यकीनन। मगर फिर, वह तो क्षत्रिय युग की हिंसा ने, ब्राह्मण युग के ज्ञान ने …या शूद्र युग के व्यक्तिवाद ने भी किया था। पैसा अपने आप में समस्या नहीं है, बल्कि उसके प्रति हमारा रवैया समस्या है।
सैन्य युग में जापान के समुराई की तरह के धार्मिक योद्धा होते थे, जो योद्धा संहिता (बुशिदो संहिता) के साथ लड़ते थे। उनका विश्वास था कि उनका एक मिशन है, जिसमें कमजोरों का संरक्षण निहित था। लेकिन अधार्मिक योद्धा भी थे, जो अपने कौशल का प्रयोग निर्दोषों और कमजोरों को यातना देने में करते थे। इसी तरह आज धार्मिक पैसा कमाने वाले और अधार्मिक पैसा कमाने वाले हैं।
तो… पैसे के इस युग में आम भारतीयों को क्या करना चाहिए?
सबसे पहले, हमें पैसे को लेकर अपना पाखंड छोड़ना और इस युग के नियमों को स्वीकार करना चाहिए। जो लोग उपदेश देते हैं कि धन भ्रष्ट करता है और पूंजीवाद बुरा है, वे उतने ही गैरजिम्मेदार हो रहे हैं जितने कि वे लोग जो सैन्य युग में अंहिसा की बात करते थे। दूसरी बात, हमें अपने धार्मिक पैसा कमाने वालों का सम्मान करना चाहिए… जैसे सैन्य युग में समाज अपने महान योद्धाओं का करते थे। तीसरी बात, हमें स्वीकार करना होगा कि ज्ञान, हिंसा और व्यक्तिवाद हमारे युग में भी प्रासंगिक हैं… मगर परिवर्तन लाने के लिए धन के समान सामर्थ्य से उनका प्रयोग नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान दूसरे सभी साधनों की अपेक्षा हिंसा के प्रयोग से अपने वैश्विक स्तर को बदलने की कोशिश कर रहा है, जबकि चीन ने प्रमुख रूप से धन का रूपांतरण के साधन के रूप में इस्तेमाल किया है। कौन सा देश ज्यादा सफल है? क्या यह वाकई कोई सवाल हो सकता है? अंत में, हमें समझना होगा कि आज अगर ज्ञान का प्रयोग हो रहा है तो इसकी सफलता की संभावना तब कहीं ज्यादा बढ़ जाती है जब इसे धन का सहारा हासिल होता है, उदाहरण के लिए- चिंतकों और बुद्धिजीवियों की अगर अच्छी मार्केटिंग न हो तो उन्हें कमोबेश नजरअंदाज ही कर दिया जाता है।
और एक महत्वाकांक्षी पैसा कमाने वाले को क्या करना चाहिए?
धार्मिक बनें और सही तरीके से पैसा कमाएं बिना कानून तोड़े… समझदारी से खर्च करें… अपने शौकों और ठसकपने की इच्छाओं पर नियंत्रण रखें… लोकोपकार में योगदान दें… और शोषितों की मदद करें। यह आपके लिए पुण्य अर्जित करेगा और आपको ऐसी प्रसन्नता प्रदान करेगा जो पैसा नहीं खरीद सकता।
हम पैसे के युग में रहते हैं। हो सकता है आगे ज्ञान, सैन्य या व्यक्तिवाद युग आए… यह संभवत: व्यक्तिवाद युग भी हो सकता है। मगर आज हमें अपने युग के नियमों को समझना होगा। डंग जियाओ पंग के शब्दों को थोड़ा सा तोड़ने-मरोड़ने के लिए माफी मांगते हुए कहूंगा… हमारे देश का प्रतीक वाक्य होना चाहिए: धन अर्जित करना भव्य है! (समाप्त)
वैश्य युग-1 : ज्ञान नहीं, शक्ति नहीं, परिवर्तन की सबसे सक्षम मुद्रा पैसा