नई दिल्‍ली ।  ईसाइयों और मुसलमानों के बीच धार्मिक युद्धों की एक श्रृंखला है, जो इतिहास में एक महत्वपूर्ण और जटिल अध्याय का प्रतिनिधित्व करती है। 1096 से 1291 तक फैले, इन आठ प्रमुख धर्मयुद्ध अभियानों का उद्देश्य संघर्ष के केंद्र में मध्य पूर्व में पवित्र भूमि के साथ, दोनों समूहों द्वारा पवित्र माने जाने वाले पवित्र स्थलों पर नियंत्रण हासिल करना था। इन महंगे, हिंसक और अक्सर क्रूर संघर्षों ने यूरोपीय ईसाइयों की स्थिति में काफी वृद्धि की, जिससे वे मध्य पूर्व में भूमि की लड़ाई में प्रमुख खिलाड़ी बन गए।

धर्मयुद्ध क्या थे?

जैसे-जैसे 11वीं शताब्दी समाप्त होने लगी, पश्चिमी यूरोप एक उल्लेखनीय शक्ति के रूप में उभरा। फिर भी, यह अभी भी अन्य भूमध्यसागरीय सभ्यताओं, जैसे बीजान्टिन साम्राज्य और इस्लामी साम्राज्य से पीछे है, जो कभी रोमन साम्राज्य का पूर्वी भाग था। बीजान्टिन साम्राज्य ने सेल्जुक तुर्कों के हाथों काफी क्षेत्र खो दिया था, जिसके कारण पश्चिमी मदद की गुहार लगाई गई।

धर्मयुद्ध कब हुए थे?

नवंबर 1095 में, फ्रांस में क्लेरमोंट की परिषद में, पोप अर्बन द्वितीय ने पश्चिमी ईसाइयों से हथियार उठाने और पवित्र भूमि को पुनः प्राप्त करने में बीजान्टिन की सहायता करने का आह्वान किया। इस आह्वान ने धर्मयुद्ध की शुरुआत को चिह्नित किया। इस सशस्त्र तीर्थयात्रा में शामिल होने वालों ने चर्च के प्रतीक के रूप में एक क्रॉस पहना था। धर्मयुद्ध ने नाइट्स टेम्पलर, ट्यूटनिक नाइट्स और हॉस्पिटैलर्स जैसे धार्मिक शूरवीर सैन्य आदेशों के लिए मार्ग प्रशस्त किया, जिन्होंने पवित्र भूमि की रक्षा की और ईसाई तीर्थयात्रियों की रक्षा की।

पहला धर्मयुद्ध (1096-1099)

पहले धर्मयुद्ध में क्रुसेडर्स की चार सेनाएँ देखी गईं, जिनका नेतृत्व सेंट-गिल्स के रेमंड, बोउलॉन के गॉडफ्रे, वर्मांडो के ह्यूग और टारंटो के बोहेमोंड और उनके भतीजे टेंक्रेड जैसे प्रमुख लोगों ने किया। पीटर द हर्मिट के तहत एक कम संगठित समूह, जिसे “पीपुल्स क्रूसेड” के नाम से जाना जाता है, पहले ही स्थापित हो चुका था। जब क्रुसेडर्स कॉन्स्टेंटिनोपल पहुंचे, तो सम्राट एलेक्सियस प्रथम ने उनके प्रति वफादारी की शपथ पर जोर दिया। आंतरिक संघर्षों के बावजूद, उन्होंने निकिया और अंततः यरूशलेम पर कब्ज़ा कर लिया, लेकिन यह जीत एक क्रूर नरसंहार के कारण ख़राब हो गई।

दूसरा धर्मयुद्ध (1147-1149)

प्रथम धर्मयुद्ध की सफलता के कारण इस क्षेत्र में क्रूसेडर राज्यों की स्थापना हुई। हालाँकि, जब मुस्लिम सेनाएँ मजबूत होने लगीं, तो दूसरे धर्मयुद्ध का आह्वान सामने आया। फ्रांस के लुई VII और जर्मनी के कॉनराड III के नेतृत्व में, इसके परिणामस्वरूप हार हुई। एडेसा की हार ने यूरोप को झकझोर दिया और दूसरे धर्मयुद्ध की शुरुआत हुई, जो डोरिलेम में राजा कॉनराड की हार और दमिश्क पर कब्जा करने के असफल अभियान के बाद निराशा में समाप्त हुआ।

तीसरा धर्मयुद्ध (1187-1192)

मुस्लिम जीत के जवाब में, तीसरा धर्मयुद्ध शुरू किया गया, जिसका नेतृत्व इंग्लैंड के राजा रिचर्ड प्रथम, फ्रांस के राजा फिलिप द्वितीय और सम्राट फ्रेडरिक बारब्रोसा ने किया। तीसरे धर्मयुद्ध में कई लड़ाइयाँ हुईं, जिनमें अरसुफ़ की लड़ाई भी शामिल थी, लेकिन एक शांति संधि के साथ समाप्त हुई, जिसमें यरूशलेम शहर के बिना ही यरूशलेम साम्राज्य को फिर से स्थापित किया गया।

चौथा धर्मयुद्ध (1202-1204)

चौथा धर्मयुद्ध सत्ता संघर्ष के कारण अपने लक्ष्य से भटक गया और कॉन्स्टेंटिनोपल के विनाशकारी पतन के साथ समाप्त हुआ। क्रुसेडर्स ने अपने भतीजे के पक्ष में बीजान्टिन सम्राट को उखाड़ फेंकने की कोशिश की, जिससे शहर को बर्खास्त कर दिया गया।

अंतिम धर्मयुद्ध (1208-1271)

13वीं शताब्दी में विभिन्न धर्मयुद्ध देखे गए, जिनमें एल्बिजेन्सियन धर्मयुद्ध, बाल्टिक धर्मयुद्ध और दुर्भाग्यपूर्ण बाल धर्मयुद्ध शामिल हैं। सैन्य अभियानों की एक श्रृंखला का उद्देश्य ईसाई धर्म के कथित दुश्मनों से लड़ना था।

अंतिम धर्मयुद्ध

1291 में एकर के पतन से क्रूसेडर राज्यों और धर्मयुद्धों का अंत हो गया। हालाँकि चर्च ने बाद में छोटे धर्मयुद्धों का आयोजन किया, लेकिन 16वीं शताब्दी में सुधार और पोप के अधिकार में गिरावट के कारण उनका महत्व कम हो गया।

धर्मयुद्ध का प्रभाव

धर्मयुद्ध ने ईसाई धर्म और पश्चिमी सभ्यता की पहुंच का विस्तार किया, जिससे रोमन कैथोलिक चर्च को लाभ हुआ और पोप की शक्ति में वृद्धि हुई। उन्होंने पूरे यूरोप में व्यापार और परिवहन में भी सुधार किया। हालाँकि, मुसलमानों के बीच, क्रुसेडर्स को निर्दयी और क्रूर के रूप में देखा गया, जिसके परिणामस्वरूप लंबे समय तक नाराजगी रही। आज भी, कुछ लोग मध्य पूर्व में पश्चिमी भागीदारी को “धर्मयुद्ध” कहते हैं। धर्मयुद्ध ने निस्संदेह मध्य पूर्व और पश्चिमी यूरोप पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ा, जिसने राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण को आकार दिया जो आज भी कायम है।

यरुशलेम में सबसे पहले कौन रहता था? ya
इतिहास के अनुसार यहां पर सबसे पहले यहूदियों की बसाहटह हुई थी।

यहूदी मान्यता के अनुसार यहां पर ही यहोवा (ईश्‍वर) ने मिट्टी रखी थी  जिससे आदम का जन्म हुआ था।
पैगंबर नूह के पुत्र शेम के वंशज पैगंबर अब्राहम का जन्म इराक के ऊर शहर में हुआ था।
हजरत अब्राहम हारान शहर से निकलकर कनान पहुंचे और वहां से उनके दो बेटे के वंशज मिस्र पहुंच गए।
मिस्र में ही हजरत मूसा हुए जो यहूदियों के अंतिम व्यवस्थाकार माने जाते हैं।
जब यहूदियों को मिस्र से बेदखल किया गया तो हजरत मूसा के नेतृत्व में सभी यहूदी अपनी पुरानी भूमि यरुशलेम में एकत्रित हो गए।

शुरुआत से ही यहूदियों के प्राचीन राज्य इसराइल में यहूदियों के 10 कबीले रहा करते थे।
हजरत मूसा ईजिप्ट से जाकर अपने कबीलों के साथ यरुशलम में बस गए थे, क्योंकि यही उनका प्राचीन शहर था। यहूदियों के पवित्र राजा दाऊद और सुलेमान के बाद इस स्थान पर बाद में बेबीलोनियों तथा ईरानियों का कब्जा रहा।
ईसाई धर्म के उदय के बाद यहां पर कुछ समय तक ईसाइयों की सत्ता रही।
इसके बाद इस्लाम के उदय के बाद बहुत काल तक मुसलमानों ने यहां पर राज्य किया।
इस दौरान यहूदियों को इस क्षेत्र से कई दफे खदेड़ दिया गया, लेकिन वे पुन: आकर बस गए।
शुरुआत में उसका नाम लैंड ऑफ इजरायल रखा गया था। 1948 में इजरायल की दावेदारी का आधार यही लैंड ऑफ इजरायल बना।
ईसाई और ईस्लाम धर्म के उदय के बाद यरुशलेम 1948 तक कभी भी यहूदी शासन नहीं कर पाए।

यरुशलेम के लिए हुए युद्ध का इतिहास

क्रूसेड : क्रूसेड अथवा क्रूस युद्ध। क्रूस युद्ध अर्थात ख्रिस्त धर्म की रक्षा के लिए युद्ध। ख्रिस्त धर्म अर्थात ईसाई या क्रिश्चियन धर्म के लिए युद्ध। अधिकतर लोग इसका इसी तरह अर्थ निकालते हैं लेकिन सच क्या है यह शोध का विषय हो सकता है। जेहाद और क्रूसेड के दौर में सलाउद्दीन और रिचर्ड ने इस शहर पर कब्जे के लिए बहुत सारी लड़ाइयां लड़ीं। ईसाई तीर्थयात्रियों की रक्षा के लिए इसी दौरान नाइट टेम्पलर्स का गठन भी किया गया था।

ईसाइयों ने ईसाई धर्म की पवित्र भूमि फिलिस्तीन और उसकी राजधानी यरुशलम में स्थित ईसा की समाधि पर अधिकार करने के लिए 1095 और 1291 के बीच सात बार जो युद्ध किए उसे क्रूसेड कहा जाता है। इसे इतिहास में सलीबी युद्ध भी कहते हैं। यह युद्ध सात बार हुआ था इसलिए इसे सात क्रूश युद्ध भी कहते हैं। उस काल में इस भूमि पर इस्लाम की सेना ने अपना आधिपत्य जमा रखा था।

पहला क्रूसेड : अगर 1096-99 में ईसाई फौज यरुशलम को तबाह कर ईसाई साम्राज्य की स्थापना नहीं करती तो शायद इसे प्रथम धर्मयुद्ध (क्रूसेड) नहीं कहा जाता। जबकि यरुशलम में मुसलमान और यहूदी अपने-अपने इलाकों में रहते थे। इस कत्लेआम ने मुसलमानों को सोचने पर मजबूर कर दिया। जैंगी के नेतृत्व में मुसलमान दमिश्क में एकजुट हुए और पहली दफा अरबी भाषा के शब्द ‘जिहाद’ का इस्तेमाल किया गया। जबकि उस दौर में इसका अर्थ संघर्ष हुआ करता था। इस्लाम के लिए संघर्ष नहीं, लेकिन इस शब्द को इस्लाम के लिए संघर्ष बना दिया गया।

दूसरा क्रूसेड : 1144 में दूसरा धर्मयुद्ध फ्रांस के राजा लुई और जैंगी के गुलाम नूरुद्‍दीन के बीच हुआ। इसमें ईसाइयों को पराजय का सामना करना पड़ा। 1191 में तीसरे धर्मयुद्ध की कमान उस काल के पोप ने इंग्लैड के राजा रिचर्ड प्रथम को सौंप दी जबकि यरुशलम पर सलाउद्दीन ने कब्जा कर रखा था। इस युद्ध में भी ईसाइयों को बुरे दिन देखना पड़े। इन युद्धों ने जहां यहूदियों को दर-बदर कर दिया, वहीं ईसाइयों के लिए भी कोई जगह नहीं छोड़ी।लेकिन इस जंग में एक बात की समानता हमेशा बनी रही कि यहूदियों को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अपने देश को छोड़कर लगातार दरबदर रहना पड़ा जबकि उनका साथ देने के लिए कोई दूसरा नहीं था। वह या तो मुस्लिम शासन के अंतर्गत रहते या ईसाइयों के शासन में रह रहे थे।

इसके बाद 11वीं शताब्दी के अंत में शुरू हुई यरुशलम सहित अन्य इलाकों पर कब्जे के लिए लड़ाई 200 साल तक चलती रही, जबकि इसराइल और अरब के तमाम मुल्कों में ईसाई, यहूदी और मुसलमान अपने-अपने इलाकों और धार्मिक वर्चस्व के लिए जंग करते रहे।

17वीं सदी की शुरुआत में विश्व के उन बड़े मुल्कों से इस्लामिक शासन का अंत शुरू हुआ जहां पर इस्लाम नहीं था। अंग्रेजों का वह काल जब मुसलमानों से सत्ता छीनी जा रही थी। ब्रिटेन ने लगभग आधी से धरती पर अपने शासन को स्थापित कर दिया था। भारत से लेकर फिलिस्तीन तब कई क्षेत्रों में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत लोग रहते थे।

बहुत काल तक दुनिया चार भागों में बंटी रही, इस्लामिक शासन, चीनी शासन, ब्रिटेनी शासन और अन्य। फिर 19वीं सदी कई मुल्कों के लिए नए सवेरे की तरह शुरू हुई। कम्यूनिस्ट आंदोलन, आजादी के आंदोलन चले और सांस्कृतिक संघर्ष बढ़ा। इसके चलते ही 1939 द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ जिसके अंत ने दुनिया के कई मुल्कों को तोड़ दिया तो कई नए मुल्कों का जन्म हुआ। इसी दौर में ही फिलिस्तीन सहित दुनियाभर के यहूदियों ने भी अपने लिए एक अलग देश की मांग और उन्हें 1948 में उनकी भूमि का कुछ हिस्सा उन्हें लौटा दिया गया। लेकिन यरुशलेम पर संयुक्त राष्ट्र का कंट्रोल था। बाद में इस पर इजरायल ने कंट्रोल कर लिया। द्वि‍तीय विश्व युद्ध में यहूदियों को अपनी खोई हुई भूमि इसराइल वापस मिली। यहां दुनिया भर से यहूदी फिर से इकट्ठे होने लगे। इसके बाद उन्होंने मुसलमानों को वहां से खदेड़ना शुरू किया जिसके विरोध में फिलिस्तीन इलाके में यासेर अराफात का उदय हुआ। फिर से एक नई जंग की शुरुआत हुई जो अब तक चल रही है। (एएमएपी)