के. विक्रम राव । 
सिंघु सीमा पर संघर्षरत सिख-कृषक के अमेरिकी संगी-साथियों ने गत शनिवार (12 दिसम्बर 2020) के दिन वाशिंगटन स्थित महात्मा गांधी की प्रतिमा को विकृत, गन्दा कर दिया। ”खालिस्तान जिन्दाबाद” के नारे भी लगाये। अर्थात् दूसरा विभाजन हो। सीमा अमृतसर से खिसक कर अम्बाला तक आ जाये? नतीजन कश्मीर कट जाये। तीन दिन गुजर गये इन सिरफिरे भारतशत्रु विदेशी सिखों को ऐसी ओछी हरकत किये, मगर भर्त्सना नहीं हुई। चालीस गुटों में बंटी यह अराजक किसान संघर्ष समिति अपने चन्द मुनाफों के स्वार्थ में अंधी, एक बुनियादी ऐतिहासिक घटना को भूल गयी। 

पहला कारगर किसान आन्दोलन बापू ने चलाया

गुलाम भारत में पहला कारगर किसान आन्दोलन बिहार के चम्पारण जिले में बापू ने चलाया था। अंग्रेजी साम्राज्यवादी चम्पारण के निर्धन, मजलूम किसानों से जबरन नील की खेती कराते थे। उपज लूट लेते थे। सत्याग्रह द्वारा गांधीजी ने नवजागरण कराया। किसानों को अपनी असली ताकत का तभी एहसास हुआ। यही गांधीजी थे जिन्होंने विजयवाड़ा के एक गरीब किसान को घुटने तक धोती, बिना बाहों वाला कुर्ता पहने चिलचिलाती धूप में हल चलाते देखा था। तभी बापू ने कसम ली थी कि वे भी अपने लंबी चौड़ी काठियावाड़ी पगड़ी और छह गजवाली धोती छोड़ कर अधनंगे रहेंगे। फकीर बन जायेंगे। तो प्रश्न है कि क्या कोट-कम्बल पहने और सुविधाजन ट्रैक्टर-ट्राली में डटे ये किसान बापू पर इन आक्रमणकारियों की निंदा नहीं करेंगे? इन पिशाचों की जिन्होंने एक संत की मूर्ति को इन सिंघु के किसानों के समर्थन में बिगाड़ा, विकृत कर डाला?
The statue of Mahatma Gandhi vandalised in US' ; Presence of Khalistani elements detected !!! – East Coast Daily English
महात्मा गांधी की प्रतिमा अमेरिका में तोड़ दी गई ’; खालिस्तानी तत्वों की उपस्थिति का पता चला !!!

मंडी के झण्डाबरदार

सिंघु सीमावाले ये किसान जिस मंडी व्यवस्था के झण्डाबरदार बने हैं उन्हें याद दिलाना पड़ेगा कि इन्हीं अंग्रेज व्यापारी-शासकों ने इस घृणित मंडी प्रणाली को डेढ़ सौ वर्ष पूर्व गुलाम किसानों पर थोपा था। मकसद था कि सस्ते में कपास खरीद कर मैंचेस्टर की मिलों को कौड़ियों के दाम बेचा जाये। बापू ने ऐसे शोषण को रुकवाने के लिए चर्खा-तकली से खादी उत्पादन शुरु कराया। फिर ब्रिटिश मिल मजदूरों ने लंदन में गांधीजी से पूछा कि क्या वे अंग्रेज बेरोजगार मजदूरों का विनाश चाहते हैं? बापू तब भारत की आजादी पर चर्चा करने गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने लंदन गये थे। उन मिल मजदूरों को बापू का जवाब था, ”क्या आप गुलाम भारत के करोड़ों गरीब किसानों का भूख और बेरोजगारी से मर जाना पसंद करेंगे?” सब निरुत्तर हो गये।
तो किसान के लिये आजीवन संघर्षरत गांधीजी की प्रतिमा को गन्दा करने वाले उन पाकिस्तान-समर्थक अमेरिकी खालिस्तानियों से यह प्रदर्शनकारी धन, जन की मदद लेते रहेंगे?
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भ्रष्ट व्यवस्था का समर्थन क्यों

अत: मसला यह है कि भ्रष्ट मंडी व्यवस्था का समर्थन यह पंजाब और हरियाणा के किसान क्यों कर रहे हैं। इसमें सुधार की बात सोनिया-कांग्रेसी अपने गतवर्ष के संसदीय निर्वाचन के घोषणापत्र में कर चुकी हैं। तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार ने भी मुख्यमंत्रियों को इसमें सुधार हेतु मंत्रणा दी थी। समाजवादी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2005 में सत्ता पाते ही बिहार बाजार समिति व्यवस्था को खत्म कर दिया था। बिहार का किसान सीधे विक्रय द्वारा खूब लाभ उठाता है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट शासित- केरल में यह एपीएमसी (कृषि उत्पाद मार्केटिंग) है ही नहीं। बेचने की खुली छूट है उत्पादकों को। फिर भी इस गूढ़ तथ्य पर माकपा के राष्ट्रीय महासचिव सीताराम येचुरी का नजरिया गोलमोल, भ्रामक रहा। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में मण्डी परिषद महाकदाचार का अड्डा बन गया है। अरबों रुपयों की सालाना हेराफेरी होती है। किसानों के साथ धोखा होता है। मनमानी कीमत, घटिया अनाज की ऊंचे दामों पर घूस लेकर खरीददारी, फिर उन दानों को चूजे-मुर्गों को खिलाना, अमीर उत्पादकों से ऊंचे दामों पर कमीशन प्राप्त कर लेना आदि की जानकारियां सभी को हैं। एक रिपोर्टर के नाते मैं जानता हूं कि जो भी प्रशासनिक अधिकारी, मंत्रीजी की मुट्ठी गर्म करता है वह मंडी परिषद के पद पर नियुक्त हो जाता है। तुरन्त उसके बंगले की मंजिलें उठ जाती हैं, कई के लिए बेहतर प्लाटों की खरीद होती है, विशाल भूखण्ड मिल जाते हैं, संतानों का महंगी उच्च शिक्षा हेतु अमेरिका में दाखिला हो जाता है, नवीनतम विदेशी मोटरकार खरीदी जाती है, काबीना मंत्री को खुश करने के दाम अलग से देना आदि।
भांति-भांति के मुनाफों की बाकी सूची पंजाब के कांग्रेसी तथा अकाली दल के विधायकों और मंत्रियों से जान लें। प्रश्न है कि क्या कदाचार के इस किले को किसान ढाना चाहेंगे या उसकी नींव मजबूत करेंगे? अतएव न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी की मांग अत्यावश्यक है ताकि उत्पादक को वाजिब दाम मिले। इसे वोट से जोड़ दें ताकि ये स्वार्थी सियासतदार जनता के अंकुश का दर्द महसूस कर सकें।

20 लाख बनाम 10 करोड़

इन संघर्षशील कृषकों से पूछना पड़ेगा कि क्या वे केवल दो राज्यों के बीस लाख समृद्ध, सम्पन्न उत्पादकों के ही हित और लाभ के इच्छुक हैं अथवा भारत राष्ट्र के दस करोड़ फटेहाल किसानों की भी चिंता से व्यथित हैं? तेलंगाना, विदर्भ, मराठवाडा, वाइनाड (केरल), छत्तीसगढ़, बुंदेलखण्ड, आदि इलाकों से खुदकुशी की खबरें आती हैं। कारण का पता कहां से मिलेगा? क्या कभी ऐसी विपदा पंजाब और हरियाणा पर पड़ी?

संघर्ष के आधारभूत कारण

अब गौर करें कि अंतत: सिंघु सीमा पर जमे किसानों के संघर्ष के आधारभूत कारण क्या हैं? इसे जानने हेतु लाल परचम को लहराते मार्क्सवादी लेनिनवादियों और माओवादियों से पूछना पड़ेगा। इन लोगों ने इन सरल किसानों के संघर्ष को हथिया लिया है। आदतन। फितरतन भी। गत सदी के प्रारंभिक दशकों में जारशाही के खात्मे पर रुसी कृषक दो खेमों में विभाजित था। पहला कहलाता था ”कुलक” अर्थात सम्पन्न, बड़ा भूस्वामी। दूसरा साधारण किसान जिसे ”मौजिक” की श्रेणी में रखते थे। व्लादिमीर लेनिन ने सोवियत शासन में कुलक की जमीन राज्य संपत्ति बना ली। यही कुलक के पर्याय और समधर्मी ये भारतीय कृषक हैं जो सिंघु सीमा पर हफ्तों से अपनी ट्राली-ट्रैक्टर, शामियाना आदि में जमे हैं। उन सबको हल से सरोकार नहीं है। हलधर तो प्रेमचन्द का शोषित किसान था जिसकी हथेली हल के मूंठ से चिपकी रहती थी। अभी भी है। आज भी उसकी पोशाक धोती कुर्ता है। ऊनी कोट, कीमती शाल, रंगीन रेशमी पगड़ी नहीं। अर्थात इन तीन संसदीय कानूनों से लाभ इन्हीं वंचित कृषकों को ही होगा। बिचौलियों के शोषण से वे सब मुक्त होंगे। वर्ग संघर्ष होगा इन सूती बण्डीधारियों बनाम ऊनी कोटवालों में। जैसे श्रमिकों की नीली वर्दी और सूटधारी के मध्य।
Farmers' Protest Highlights: Farmer union leaders to sit on hunger strike  on Dec 14 | India News,The Indian Express

एक खबरी प्रसंग

यहां एक खबरी प्रसंग हमारे चन्द शहरी और भ्रमित पत्रकार साथियों के विषयवाला। कभी समाजवादी चिंतक रहे बाबू संपूर्णानन्द बनारसवाले तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। पूर्वांचल में उस वर्ष भयंकर सूखा पड़ा था। सरकारी राहत कार्य की समीक्षा के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु देवरिया पधार रहे थे। दिल्ली से संवाददाताओं का विशेष दल राज्य सूचना निदेशालय ने मंगवाया था। उन्हें दिखा सके कि कांग्रेस सरकार कितनी जनहितकारी है। इन पत्रकारों के लिये यात्रा के बाद सरकारी अतिथि भवन में विशेष लंच रखा गया था। न जाने कितने मुर्गों के शरीर थे भोजन टेबुल पर। उस वक्त समाजवादियों का  खून लाल रंग से भी गहरा हुआ करता था। विधानसभा में प्रसोपा दलीय नेता बाबू गेन्दा सिंह को सूझी कि पत्रकारों को दूसरा पक्ष भी दिखाया जाये। करीब पांच सौ अधनंगे किसान जिनकी पसलियां गिनी जा सकती थी, उन्हें लाइन से बाबू गेंदा सिंह ”भूखों का मार्च” लेकर शासकीय अतिथि गृह आये। इसके पूर्व कि ये विशेष संवाददातागण ठण्डी विलायती (बियर) से आचमन करते, फिर मुर्गे की टांग का स्पर्श करते, अधनंगे भूखे किसानों को समाजवादी विधायक ने पेश कर दिया। ये पत्रकार सहृदय तो थे ही, वापस दिल्ली लौट गये, उपवास रखा। यूपी सरकार की और उनके आका नेहरु को सूद समेत पूरा मूल्य पेशकर दिया गया। परन्तु यहां सिंघु सीमा पर दृश्य उलटा है। लेनिन की नजर में।
(सोशल मीडिया से।  लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)