डॉ. संतोष कुमार तिवारी.
एक सेठ का युवा पुत्र रोज एक महात्माजी की कथा सुनने जाता था, किन्तु कथा समाप्त होने के पहले ही उठ कर चला जाता था। महात्माजी ने एक दिन उससे ऐसा करने का कारण पूछा।
युवक – महाराज, मैं अपने माता-पिता का एक मात्र पुत्र हूँ। यदि घर लौटने में कुछ देरी हो जाए, तो वे मुझे ढूँढने निकल पड़ते हैं और मेरी पत्नी भी परेशान हो जाती है। वह मेरे लिए प्राण देती है। आप संसारियों के सम्बन्ध को मिथ्या बतलाते हैं, किन्तु आपको कोई अनुभव तो है नहीं।
महात्माजी – यदि ऐसा ही है तो हम उनके प्रेम की परीक्षा ही क्यों न कर देखें? यह जड़ी-बूटी तू खा ले। तेरा शरीर गरम हो जाएगा। मैं इलाज करने आऊँगा। फिर वहाँ जो होता रहे, वह तुम देखते रहना।
उस युवक ने महात्माजी के आदेशानुसार किया। शरीर एकदम गरम हो गया। माता पिता ने घबड़ा कर डाक्टरों और वैद्यों को बुलाया। किन्तु उनके उपाय कारगर न हुए। युवक की पत्नी बहुत परेशान हो रही थी। इतने में वहाँ महात्माजी आ पहुंचे। सभी ने उनसे पुत्र का इलाज करने की प्रार्थना की। महात्माजी ने चिकित्सा करते हुए कहा – किसी ने जादू टोना कर दिया है। मैं एक उपाय कर सकता हूँ।
उन्होंने एक बर्तन में पानी मंगवाया। और उस पुत्र के मस्तक पर से उतार कर कहा – मैंने मंत्र शक्ति से उस जादू टोने को पानी में उतार लिया है। अब यदि इस युवक को बचाना है, तो यह पानी किसी को पीना होगा।
सभी ने एक साथ पूछा – महाराज इस पानी पीने वाले की क्या दशा होगी?
महात्माजी – वह शायद मर भी जाय, किन्तु यह युवक बच जाएगा। सो तुममें से कोई यह पानी पी जाओ।
युवक की माता ने कहा – मैं अपने लाड़ले के प्राण बचाने के लिए यह पानी पीने को तैयार हूँ, किन्तु मैं पतिव्रता हूँ। मेरी मृत्यु के बाद मेरे वृद्ध पति की सेवा कौन करेगा?
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युवक के पिता ने कहा – मैं यह पानी पी तो लूँ, किन्तु मेरी मृत्यु के बाद मेरी इस बेचारी पत्नी की क्या दशा होगी।
महात्माजी ने विनोद में कहा – तुम दोनों आधा-आधा पानी पी लो। दोनों के सभी क्रिया काण्ड एक साथ हो जाएंगे।
युवक की पत्नी से अनुरोध किया गया, तो उसने कहा – मेरी वृद्धा सास ने तो संसार के सभी सुख भोग लिए हैं। मैं तो अभी जवान हूँ। मैंने अभी संसार के सुख देखे तक नहीं। मैं क्यों मरूँ?
इस प्रकार युवक के सभी रिश्तेदारों ने पानी पीने से इंकार कर दिया। उलटे वे सब महात्माजी से कहने लगे – आप ही यह पानी पी जाइए। आपके पीछे रोने वाला तो कोई है नहीं। आप हमेशा कहते हैं कि परोपकार सबसे बड़ा धर्म है। सो आप स्वयं यह परोपकार कर दीजिए। हम आपके पीछे हर साल श्राद्ध और बृह्मभोज कराएंगे।
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महात्माजी ने पानी पी लिया। अब पुत्र के समझ में आ गया इस संसार के सभी रिश्ते स्वार्थ से भरे हुए हैं और वह महात्माजी के साथ चल दिया।
उपर्युक्त बात श्री रामचन्द्र डोंगरेजी ने अपनी श्रीमद् भागवत कथा के दौरान वडोदरा (बड़ौदा) गुजरात में कही। भागवत पर उनके प्रवचन ‘श्रीमद् भागवत रहस्य’ नामक पुस्तक में प्रकाशित हुए हैं। यह पुस्तक हिन्दी, मराठी, गुजराती, आदि भाषाओं में उपलब्द्ध हैं। जो लोग सात सौ से अधिक पृष्ठों की इस पुस्तक को हिन्दी में ऑनलाइन पढ़ना चाहें, वे क्लिक करें:
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शुरू-शुरू में गुजराती भाषा में इस पुस्तक का वितरण कुछ दूसरी प्रकार से हुआ। लिखित नाम जप अर्थात नगद रकम के बजाए, सवा लाख भगवान नाम लिख कर भेजने वाले को यह पुस्तक दी जाती थी। गुजराती भाषा में यह प्रयोग बहुत सफल रहा। और इसके दस संस्करण एक के बाद एक जल्दी ही निकालने पड़े।
डोंगरेजी ने किसी को शिष्य नहीं बनाया
डोंगरेजी महाराज का जन्म इन्दौर, मध्य प्रदेश में हुआ था। वह पूरे देश में एक प्रखर वक्ता थे और अत्यन्त लोकप्रिय भागवत कथाकार थे। उनकी वाणी से श्रोता भाव विभोर हो जाते थे। उन्हें शुकदेव तुल्य कहा जाता है, क्योंकि उनका जीवन शुकदेवजी की तरह ही निस्वार्थपूर्ण था। वह कभी कथा की दक्षिणा नहीं लेते थे; उनका किसी बैंक में कोई खाता नहीं था; उन्होंने कोई ट्रस्ट नहीं बनाया। और किसी को शिष्य भी नहीं बनाया। उनका निधन सितम्बर 1991 में गुजरात में हुआ।
कुछ पाठकगण ऐसा सोच सकते हैं कि डोंगरे जी की उपर्युक्त कथा हमारे और हमारे नाते रिश्तेदारों के बारे में सही नहीं है। हमारे रिश्ते बहुत मजबूत हैं। परन्तु अभी हाल के करोना काल को याद कर लें, जबकि लोग बीमार के पास फटकना भी पसंद नहीं करते थे।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)