सुरेंद्र किशोर।
तृणमूल कांग्रेस के 7 विधायकों के साथ-साथ वाम दलों के दो विधायकों ने भी शनिवार को भाजपा ज्वाइन कर ली। एक विधायक कांग्रेस के हैं। सी.पी.आई. (भारत की कम्युनिस्ट पार्टी) और सी.पी.एम. (भारत की कम्युनिस्ट पार्टी- मार्क्सवादी) के विधायक भाजपा में शामिल हो गए हैं। उत्तर धु्रव से निकल कर सीधे दक्षिण ध्रुव पर। विचित्र किंतु सत्य।
बंगाल में अपशकुन!
वाम को भी ऐसा क्यों करना पड़ रहा है? आपात स्थिति में ही ऐसे कदम उठाए जाते हैं। यह राजनीतिक घटना अचंभित करने वाली है। यानी, पश्चिम बंगाल में सचमुच कुछ भारी अपशकुन हो रहा है। वहां के अनेक विधारधाराओं के अनेक लोगों को यह लग रहा है कि उस अपशकुन का जवाब सिर्फ भाजपा के पास है। इससे आप समझ सकते हैं कि समस्या किस तरह की व कितनी गंभीर है।
बंगाल 90 के दशक का बिहार
गत लोकसभा चुनाव के ठीक पहले चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक व बिहार काॅडर के आई.ए.एस. अफसर अजय नायक ने पश्चिम बंगाल के बारे में चौंकाने वाली टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि वहां अभी नब्बे के दशक के बिहार वाली स्थिति हैं।
याद रहे कि नब्बे के दशक के बिहार के बारे में पटना हाईकोर्ट ने कहा था कि ‘‘बिहार में जंगल राज है।’’
अजय नायक की टिप्पणी इसलिए चौंकाने वाली थी क्योंकि वह एक आई.ए.एस. अफसर की टिप्पणी थी। आम तौर बड़े अफसर सार्वजनिक रूप से ऐसी टिप्पणी नहीं करते। सी.पी.आई. और सी.पी.एम. के विधायकों का पक्ष परिवर्तन अजय की टिप्पणी का सबूत है।
क्या… कम्युनिस्ट दल बदल नहीं करते!
वाम दल के नेता आम तौर पर दल -बदल नहीं करते थे। 1967 में बिहार के सी.पी.आई. विधायक एस.एन.अब्दुल्ला (हरसिद्धि) ने जब दल बदल कर मंत्री पद पाया तो अनेक लोगों को आश्चर्य हुआ।मुझसे बातचीत में अब्दुल्ला ने जो कारण बताया था वह विचित्र, अभूतपूर्व, किंतु सत्य था। पर वह कारण यहां लिखने लायक नहीं।
तब तक कम्युनिस्ट दल व अन्य दल के चाल-चरित्र-चिंतन में साफ -साफ अंतर दिखाई पड़ता था। बाद के वर्षों में भी यह अंतर कायम रहा। पर समय के साथ स्थिति बदलती चली गई।
बिहार के सी.पी.आई. विधायक भोला सिंह और देवनाथ प्रसाद बारी-बारी से भाजपा में गए। तब आश्चर्य नहीं हुआ था। लालू प्रसाद ने नब्बे के दशक में कई माले विधायकों को भी तोड़ लिया था।
ये क्या हुआ… कैसे हुआ
इस गरीब देश में कम्युनिस्टों के लिए काम करने के बहुत अवसर थे। कम्युनिस्टों के बीच के अधिकतर नेता व कार्यकर्ता समर्पित व ईमानदार रहे।
किंतु कुछ मामलों में कम्युनिस्टों की नीतियां-रणनीतियां आम जन को देशहित में सही नहीं लगीं। नतीजतन कम्युनिस्ट दुबले होते चले गए।
क्यों हुआ
• सामाजिक न्याय यानी पिछड़ों के लिए आरक्षण की जरूरत को लेकर कम्युनिस्टों में एकमत नहीं था।
• चीन सरकार जेहाद की कोशिश में लगे उइगर मुसलमानों को तो अभूतपूर्व रूप से प्रताड़ित कर रही है। उस पर यहां के कम्युनिस्ट भी कुछ नहीं बोलते। किंतु जब भाजपा सरकार इस देश में सक्रिय जेहादियों के खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई करती है तो अधिकतर कम्युनिस्ट उनके पक्ष खडे़ हो जाते हैं।
• कम्युनिस्ट जब केंद्र व राज्यों में भ्रष्ट व जातिवादी सरकारों का लगातार समर्थन कर रहे थे, तब वे यह तर्क देते थे कि हम सांप्रदायिक तत्वों यानी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए ऐसा कर रहे हैं। पर इस रणनीति के जरिए वे न तो खुद को बचा सके और न ही उन विवादास्पद सरकारों को ही। भाजपा को सत्ता में आने से भी नहीं रोक सके। यदि कम्युनिस्ट अकेले भी चुनाव लड़ते होते तो शायद बेहतर स्थिति में होते।
अब पछताए होत क्या?
• बांग्लादेशी घुसपैठियों को अवैध तरीके से मतदाता बनवा कर उनके वोट पर वाम मोर्चा वर्षों तक पश्चिम बंगाल में राज करता रहा। वहीं काम ममता बनर्जी कर रहीे हैं। ऐसी बातें भी आम भारतीय नापसंद करते हैं।
एक आकलन के अनुसार पश्चिम बंगाल में करीब एक करोड़ घुसपैठिए हैं। उनका विरोध करने के कारण भी भाजपा वहां मजबूत हो रही है।
इस तरह की कुछ अन्य बातें भी हैं जिन कारणों से कम्युनिस्टों को भारत में अधिक ताकतवर होने व जमने में दिक्कतें आईं। संकेत हैं कि पश्चिम बंगाल विधानसभा के अगले चुनाव में अपने अस्तित्व को बचाने में कम्युनिस्टों को बड़ी दिक्कतें आएंगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सौजन्य: सोशल मीडिया)