प्रदीप सिंह ।
अरविंद केजरीवाल! यह भारतीय राजनीति का नायाब नाम है। कहते हैं कि राजनीति में लचीलापन रखना चाहिए, व्यावहारिक होना चाहिए और यह भी कि राजनीति में स्थायी दोस्त और दुश्मन नहीं होते। पर ये सब बातें केजरीवाल पर लागू नहीं होतीं।
केजरीवाल का व्यक्तित्व और राजनीति तरल पदार्थ की तरह है जिस बर्तन में रखो उसका आकार ले लेता है। वे अराजक और देशभक्त एक साथ हो सकते हैं। वे वामपंथियों से हाथ मिलाकर दक्षिणपंथियों से गले मिल सकते हैं। वे जिसे गाली दें मतलब पड़ने पर उसके सामने सजदा भी कर सकते हैं। एक ओटीटी पर एक सीरीज़ आई है ‘चंद्रकांत बशीर’। उसमें नायक कहता है ‘कोई कमिटमेंट नहीं, कोई रूल नहीं सिर्फ एडजस्टमेंट।‘ यही हैं केजरीवाल।
‘आप’ जैसा कोई नहीं
आजादी के बाद से अपने देश में बहुत से राजनीतिक दल बने कुछ चले कुछ बढ़े भी, और कुछ चलकर बंद हो गए। पर आम आदमी पार्टी जैसा कोई दल नहीं बना। क्योंकि यह एकमात्र ऐसा दल है जिसकी बनने से लेकर आजतक कोई विचारधारा नहीं है। यह कुछ लोगों का झुंड है जिसका लक्ष्य एक ही है। जो इससे इतर लक्ष्य रखते थे, वे या तो छोड़ गए या निकाल दिए गए। जो गए वे बड़े बड़े लोग थे लेकिन कोई केजरीवाल को उस समय पहचान नहीं पाया।
सत्ता ही एकमात्र सिद्धांत
एक अपवाद है। सत्ता हर राजनीतिक दल को भाती है पर इस पार्टी की बात अलग है। सत्ता ही इस पार्टी और इसके नेता का एकमात्र सिद्धांत है। सत्ता पर खतरा नजर आए तो यह अपने को अराजक घोषित कर सकते हैं। जिसकी उंगली पकड़ कर राजनीति और सत्ता में आए उसे धता बता सकते हैं। शुरुआत में पार्टी और आंदोलन से जुड़े बहुत से लोग बरसों से अपने घाव सहला रहे हैं। क्योंकि केजरीवाल का काटा पानी नहीं मांगता। आंदोलन के दौर के जो लोग आंतरिक जनतंत्र, नैतिकता, ईमानदारी, पारदर्शिता जैसी बड़ी बड़ी बातें करते थे उनके लिए केजरीवाल का संदेश साफ था कि खुद चले जाओ नहीं तो निकाल दिए जाओगे। यकीन न हो तो अन्ना हजारे, प्रशांत भूषण और कुमार विश्वास जैसे लोगों से पूछ लीजिए।
आरोप लगाओ- माफी मांगो…
इस पार्टी के लोगों की खूबी यह है कि किसी पर कोई भी आरोप लगा सकते हैं। आरोप में लेशमात्र सचाई न हो तो भी वे पलक तक नहीं झपकेंगे। पर मामला अदालत में पहुंच जाय तो लिखित माफी मांगकर फिर उसी काम में लग जाएंगे। मानहानि के मामले में दो-दो बार माफी मांगने वाले केजरीवाल शायद अकेले मुख्यमंत्री हैं। कोई और हो तो बताइएगा।
कानून की प्रति फाड़ रचा इतिहास
शुक्रवार को दिल्ली विधानसभा का एक दिन का विशेष अधिवेशन था। उसमें एक ‘क्रांतिकारी’ काम हुआ। देश की संसद ने जिन तीन कृषि विधेयकों को पास करके कानून बनाया उसकी प्रतियां सदन में फाड़ी गईं। इस पुनीत कार्य का नेतृत्व सदन के नेता यानी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने खुद किया। सत्तारूढ़ दल के सदस्य नारे लगाते हुए सदन के वेल में पहुंच गए। वैसे यह काम विपक्षी दल करते हैं। भारतीय संसद और विधानसभाओं के इतिहास में यह पहली घटना है कि संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति ने संसद से पास कानून की प्रतियां फाड़ीं हों। क्यों ऐसा किया आगे बताते हैं।
आपको याद है कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी केंद्र की अपनी सरकार के मंत्रिमंडल के प्रस्ताव की प्रतियां प्रेस काफ्रेंस बुलाकर फाड़ी थीं। राहुल गांधी उस समय किसी संवैधानिक पद पर नहीं थे। सांसद होते हुए भी उन्होंने यह काम संसद में नहीं किया। इसके बावजूद वो दिन और आज का दिन है कि वे लोगों की नजर से गिरे तो उठ नहीं पाए। पर आप यकीन मानिए केजरीवाल के साथ ऐसा कुछ नहीं होगा। क्यों? क्योंकि राहुल गांधी से लोग ऐसे आचरण की अपेक्षा नहीं करते थे। पर केजरीवाल से लोगों को ऐसी कोई अपेक्षा नहीं करने का कोई कारण नहीं है। इसलिए आप देखिए कि मीडिया से राजनीतिक गलियारों तक पूरी नहीं तो लगभग खामोशी है। यही काम किसी भी दूसरे दल के मुख्यमंत्री ने किया होता तो अब तक न जाने कितने सम्पादकीय और जनतंत्र की गिरते स्तर पर चिंता जताने वाले लेख छप गए होते। कांग्रेस शासित तीन राज्यों की सरकारों ने इन तीनों कानूनों को निष्प्रभावी करने के लिए विधेयक पास किए। जिसका उनको संवैधानिक अधिकार है। पर किसी मुख्यमंत्री ने केंद्रीय कानून की प्रतियां नहीं फाड़ीं। क्योंकि वे केजरीवाल नहीं हैं।
विधायिका, जनतंत्र शर्मसार
अब सवाल है कि केजरीवाल ने ऐसा क्यों किया और करवाया। याद रहे केजरीवाल की सरकार इन तीन कृषि कानूनों में एक को तेइस नवम्बर को नोटिफाई करके लागू कर चुकी है। पर तब तक पंजाब और हरियाणा के किसानों का जत्था दिल्ली की सीमा पर नहीं पहुंचा था। किसानों के सीमा पर पहुंचते ही केजरीवाल को याद आया कि 2022 में पंजाब विधानसभा चुनाव है। पंजाब के किसान केंद्र सरकार के इन कानूनों के खिलाफ हैं। केजरीवाल को पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से अपने को किसानों का बड़ा हितैषी बताना था। शिरोमणि अकाली दल ने जब इस मुद्दे पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से नाता तोड़ा तब भी केजरीवाल के पुराने रुख में बदलाव नहीं आया। बल्कि उसके बाद ही उनकी सरकार ने एक कानून को दिल्ली मे लागू किया। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 18 दिसम्बर को दिल्ली विधानसभा में जो किया वह विधायिका और जनतंत्र दोनों को शर्मसार करने वाला है।
वीरता का पर्याय अराजकता
दरअसल पूरी पार्टी का चरित्र ही ऐसा है। पार्टी के एक स्वनामधन्य राज्यसभा सदस्य हैं, संजय सिंह। राज्यसभा के इतिहास में उन्होंने भारी अराजक आचरण किया। मार्शलों को आकर उन्हें नियंत्रित करना पड़ा। यह राज्यसभा की कार्यवाही और वीडियो में दर्ज है। उसके बाद से वे अपने इस करतब का इस तरह बखान करते हैं जैसे हल्दी घाटी का युद्ध जीत कर आए हों। उसके बाद पार्टी में उनका सम्मान और कद दोनों बढ़ गया है। चर्चा है कि पार्टी उन्हें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने वाली है। पंजाब और उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले विधानसभा चुनाव में उनपर क्या- क्या और कैसे-कैसे आरोप उनकी ही पार्टी के लोगों ने लगाए थे वह बहुत से लोगों को अभी याद होगा। उन्हें राज्यसभा में अपने किए पर शर्म तो छोड़िए कोई पछतावा भी नजर नहीं आता। शर्म, पछतावा, सार्वजनिक जीवन की मर्यादा, संवैधानिक पदों की गरिमा जैसे शब्द इनके शब्दकोष में हैं ही नहीं।
संकट के समय साजिश में जुटा मसीहा
पार्टी और उसके मुखिया गरीबों के मसीहा होने का दावा करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। पर मसीहा की परीक्षा संकट के समय होती है। देश जब कोरोना के महासंकट से जूझ रहा था, उस समय केजरीवाल सरकार ने उत्तर प्रदेश और बिहार के एक लाख से ज्यादा गरीब मजदूरों को उत्तर प्रदेश की सीमा पर आधी रात को डीटीसी बसें लगाकर धकिया कर दिल्ली से बाहर कर दिया। वही गरीब जिन्होंने दो महीने पहले ही अपने वोट से उन्हें फिर सत्तारूढ़ कराया था। वही गरीब जो दिल्ली के विकास में दिन-रात अपना पसीना बहाते हैं। लॉकडाउन के दौरान वे सैकड़ों किचन चलाने के लम्बे लम्बे दावे करते रहे। दिल्ली के गुरुद्वारे, झंडेवाला मंदिर और सेवा भारती ने गरीबों के भोजन की व्यवस्था न की होती तो दिल्ली में कोरोना से ज्यादा लोग भूख से मरते। पर केजरीवाल और उनकी पार्टी ने कभी नहीं कहा कि हमसे गलती हो गई। और हद तो ये है कि यह पार्टी 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में इन्हीं गरीब मजदूरों के परिजनों से वोट की अपेक्षा कर रही है। दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आ रहा है- ‘उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें, चाकू की पसलियों से गुजारिश तो देखिए।‘
दिल्ली दंगों का मांस्टरमाइंड
नागरिकता संशोधन कानून के विरोध की आड़ में दिल्ली में सुनियोजित ढ़ंग से कराए गए दंगों की जांच में परत दर परत साजिश का खुलासा हो रहा है। अब तो इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है कि इन दंगों का मांस्टरमाइंड कौन था। वह और कोई नहीं आम आदमी पार्टी का कारपोरेटर ताहिर हुसैन है। फरवरी की अट्ठाइस तारीख को दिल्ली पुलिस ने आईबी अफसर अंकित शर्मा की हत्या के आरोप में ताहिर हुसैन के खिलाफ एफआईआर दर्ज की, उसके बाद भी उसे आम आदमी पार्टी से निकाला नहीं गया। बल्कि सदस्यता से निलम्बित किया गया। यह कहते हुए कि जब तक निर्दोष साबित नहीं होते तब तक निलम्बित रहेंगे।
ऐसा नहीं है कि दूसरे दलों में या नेताओं में बुराइयां नहीं हैं। फर्क यह है कि दूसरे दलों को आम आदमी पार्टी के स्तर तक पहुंचने में कई दशक लगे थे। इसलिए यह बड़ी ही तेज पार्टी है। व्यवस्था बदलने के नाम पर राजनीति में आए थे। सबसे पहले इसी कमिटमेंट और रूल को छोड़ा और एडजस्टमेंट को सिद्धांत के रूप में अपना लिया।