कुत्ते पालना विरासत में मिला था, बिल्ली पालूंगा सोचा भी नहीं था।
सत्यदेव त्रिपाठी ।
पालतू प्राणियों में कुत्ते पालना तो मुझे विरासत में मिला था बड़के बाबू से, लेकिन कभी बिल्ली भी पालूंगा, इसकी दूर-दराज़ तक कोई कल्पना तक न थी। ऐसे में मेरे जीवन में बच्ची के आने की अनहोनी जितनी अप्रत्याशित सिद्ध हुई, उतनी ही नाटकीय भी।
2004 की वह बारिश
मुम्बई की बरसात में हर साल दो-तीन बार ऐसी बारिश हो ही जाती है, जब लोकल गाड़ियां बन्द हो जाती हैं। सड़कें पानी में डूब जाती हैं। चालों-झोपड़ों में रहने वाले त्रस्त हो जाते हैं। तमाम इमारतों के परिसर जलमग्न हो जाते हैं। वह 2004 की ऐसी ही एक बारिश थी, जिसके थमने के बाद जब पानी उतरने लगा था। मैं शाम को घर के पीछे वाले झूले पर बैठके कुछ पढ़ने में लग ही रहा था कि पीछे से कुछ स्फुट-सी साँय-साँय की आवाजें आने लगीं। पलट के देखा, तो दीवाल से सट कर दो फिट की उस जगह, जहाँ से पानी निकल गया था, पर एक बिल्ली का बच्चा बैठा दिखायी पड़ा। अचरज के साथ मैं उसके पास गया, तो देखा कि बमुश्क़िल दो-तीन दिनों का जन्मा रहा होगा। आँखें अभी हाल-फिलहाल की खुली लग रही थीं। अभी यह नश्वर संसार उसके लिए अज़नवी था। इसलिए आख़ें मुलमुला के वह इस दुनिया को आश्चर्य से देखने की कोशिश कर रहा था। शायद किसी को बुलाने के प्रयत्न में मुँह खोल-खोल रहा था और इसी से साँय-साँय की महीन-सी ध्वनि भर आ रही थी। अवश्य ही अपनी माँ को बुला रहा होगा– दूसरा भला किसे जानता होगा वह!
घर में आने के पहले ही उसका नामकरण-संस्कार
चारों तरफ नज़र दौड़ाने के बाद जब कहीं न कोई बिल्ली दिखी न कुछ और, तो उसे भूखा समझकर मैंने अपनी तत्कालीन सेविका को गुहार लगायी- निर्मला, जरा थोडा-सा दूध लाना तो इस बच्ची के लिए। तब क्या पता था कि अनजाने ही बिल्ली के स्त्रीलिंग होने के झटके में मुँह से निकला सर्वनाम ‘बच्ची’ अपनी सारी पोतियों-नातिनों, जिन्हें मैं ‘बच्ची’ ही कहता हूँ, पर इस क़दर भारी पड़ेगा कि संज्ञा बनकर अभिन्न रूप से घर में ही नहीं, मन में भी बैठ जायेगा! इस तरह घर में आने के पहले ही उसका नामकरण-संस्कार हो गया या घर में आ जाने पर यही सम्बोधन उसकी संज्ञा बन गया। निर्मला से कोई उत्तर न पाकर खुद ही उठा, छोटी-सी कटोरी में दूध ले आया। लेकिन उसके सामने रखते ही अपनी बालिशता पर हँसी आयी– यह अबोध, जो अभी तक अपने होने के हादसे से ही नहीं उबर सकी है, माँ के कुदरती स्तन-पान के सिवा भला क्या जाने कोई और दूध या उसे पीना! अभी तो वह स्वयं के लिए महादेवीजी के उसी विस्मय में पड़ी है- ‘अश्रुमय कोमल कहाँ तू आ गयी परदेशिनी री’!
उसके होंठ हिलने लगे
फिर तो रुई की खोज में निकला कि फाहा बनाकर उसी से पिला दूँ…। किंतु उस वक़्त घर में शायद कोई था नहीं और कल्पनाजी ने कुछ खोजने को लेकर मुझे ‘अन्धे’ की पदवी दे रखी है। घर में इस्तेमाल की नियमित चीज़ें भी मेरे हाथ नहीं आतीं, तो रुई जैसी विरल जरूरत की चीज़ भला कैसे मिलती? लेकिन रुई की गहन खोज में साफ कपड़े का एक टुकड़ा मिल गया। सो, ‘अभावे शालिचूर्णं च शर्करा वा गुडं तथा’ की अपनी नीति को अपनाते हुए उसी से काम चलाने का निश्चय किया। हिम्मत करके लिजलिजे से उस माँस के टुकड़े को उठाया और झूले पे लाके डरते-डरते गोद में रख लिया। कपड़े को तिरछे गोल लपेटने से बने नुकीले कोने को दूध में डुबाकर उसके मुँह से लगाया, तो उसके होंठ हिलने लगे– जीवमात्र का देह-धर्म। और इस प्रक्रिया में आधा-तीहा करके बूँद-दो बूँद तो मुँह में गया ही होगा, इसका इत्मीनान तब हुआ, जब उसे वहीं बिठा आने पर साँय-साँय की आवाज आनी बन्द हो गयी।
पर बिल्ली-माँ नहीं आयी
मुझे अपने काम में लगे दस मिनट ही बीता होगा कि फिर बिल्ली की झाँव-झाँव से झटका लगा– उधर देखते ही ‘हट-हट, बिल-बिल’ चिल्लाते हुए झूले से कूदा, तब तक वह बिल्ली भाग चुकी थी, जो उस छोटी-सी बच्ची को मार रही थी। पहले तो उसे उलट-पलट के देखा, तो बच गयी मिली– कहीं घाव-वाव लगा दिखा नहीं। इस हादसे और विस्मय से उबरने पर सोचने लगा, तो समझ में आया कि यह उसकी माँ ही रही होगी– और किसे पता था इस बारिश में यहाँ इसके होने का! फिर मारा क्यों अपने बच्चे को, अचानक बचपन की याद किलक उठी, जब गाँव में बिल्ली के बच्चों की बावत बड़ों से प्राय: चेतावनियां मिला करती थीं– ‘ एके छुहिया जिन, नहीं तौ एकर मतरिए एके छोड़ि देई, या मारि नाई’ (इसे छूना मत, नहीं तो इसकी माँ ही इसे छोड़ देगी या मार डालेगी)। इससे ठीक अलग होतीं पिल्लों (कुत्तों के बच्चों) की माँएं। हम उनके बच्चों के साथ खेलते रहते और वह उन्हें पिलाने के लिए कातर याचक की आँखों से हमें देखते रहतीं और जब हम उन्हें अपनी मर्ज़ी से मुक्त करते, तभी पिलातीं- लाड़ कर पातीं। इसमें एकाध अपवाद भी होतीं, जो हमें भौंक-डरा के अपने बच्चे को ले लेतीं। लेकिन बकौल उन बुज़ुर्गवारों के ‘बिल्ली को अपने में मानुष-गन्ध बर्दाश्त नहीं होती’। याने इसकी माँ को मेरे छूने की गन्ध आ गयी, का ख्याल आते ही मन पश्चात्ताप से भर आया। अपराध-बोध भी होने लगा। देर तक ग्लानि से भरा वहीं बैठा रहा… कदाचित् उसकी माँ के आने का इंतज़ार करता रहा। फिर उठके अन्दर-बाहर अपना कुछ काम करते-कराते भी कान-मन उस आहट की तरफ लगे रहे। कहीं मन की आस टूटती न थी- ‘कुपुत्रो जायेत्, क्वचिदपि कुमाता न भवति’ या ‘माता बिनु आदर कौन करे!’, के ज्ञान-संस्कार की क़ुदरत कहीं मन में विश्वास बनाये थी। कुल मिलाकर यह कि आख़िर माँ है, गुस्सा ठंडा होगा, तो अपनी तन-जाया के प्रति सहज प्यार उमगेगा-उमड़ेगा… और वह आयेगी। लेकिन शाम हुई, अँधेरा पसरा, रात घिर आयी। पर बिल्ली-माँ नहीं आयी। विचार बदलने लगे– पशु अपनी सहजात वृत्तियों से संचालित होते हैं। भावुकता में बहकर अपनी जातीय चेतना में परिवर्तन नहीं करते– ‘कोटि जतन कोऊ करे, परे न प्रकृतिहि बीच’ आदि-आदि। बहरहाल, वह नहीं आयी, तो नहीं आयी।
बिल्ली नहीं, परिवार की कोई चिर वांच्छित अभिलाषा
अब उसकी देखभाल के सिवा दूसरा उपाय न था। बच्ची के साथ मैं अनजाने ही कर्त्तव्य भाव से बँध गया। मैं न छूता, न वह मातृ-सुख से वंचित होती। उसे इस तरह अनाथ करने का जिम्मेदार या दोषी तो मैं ही हूँ। लेकिन सबसे सुखद यह कि अपने परिवार वालों को दैव-योग से तबियत अच्छी मिली है। सो, कल्पना ने सुनते ही सहर्ष इस दायित्त्व में साथ दिया– ‘मिस्टर सत्य, अब तो तुम्हें इसकी माँ बनना ही पड़ेगा’। मैंने आश्चर्य से देखा, तो भाष्य फूटा– ‘इसके आने की वजह तुम हो, तो माँ ही हुए न’! मैंने कहा – ‘ठीक है, अब इस बार तुम्हीं पिता रहो…’। और हम दोनों में बात इसी पर ठहर गयी। बेटा अकुल तो जन्म से पालतुओं का दीवाना है, जो अब बुढ़ाई में हम पे बेतरह भारी भी पड़ रहा है; क्योंकि लाके ख़ुद जब चाहे, खिसक लेता है। तब तक वह आधे दर्जन तोते, तीन कुत्ते, एक सफेद चूहा पाल चुका था। संयोग से उस वक्त घर में कोई पालतू था भी नहीं। सो, वह भी बच्ची को देखते ही खुशी से झूम उठा। दूसरे दिन पृथ्वी थिएटर के पास स्थित ‘मार्क’ (पेट्स शॉप) से उसके खाने-पीने और ओढ़ने-बिछाने के ढेर सारे सामान उठा लाया। इस तरह बच्ची को घर में हाथों-हाथ लिया गया- जैसे वह बिल्ली नहीं, परिवार की कोई चिर वांच्छित अभिलाषा हो, जो साकार होके आ गयी है। (जारी)