(22 नवंबर पर विशेष)
शादी खत्म होने के तुरंत बाद रखमाबाई ने 1889 में लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर वीमेन में दाखिला लिया। उन्होंने 1894 में स्नातक पूरा किया लेकिन वो आगे एमडी करना चाहती थीं। लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन उस समय तक महिलाओं को एमडी नहीं करवाता था। उन्होंने मेडिकल स्कूल के इस फैसले के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की। इसके बाद उन्होंने ब्रसेल्स से अपनी एमडी पूरी की। रखमाबाई भारत की पहली महिला एमडी और प्रैक्टिस करने वाली डॉक्टर बनीं। शुरू में उन्होंने मुंबई के कामा अस्पताल में काम किया लेकिन बाद में सूरत चली गईं। उन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए समर्पित कर दिया और 35 सालों तक प्रैक्टिस की।
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ब्रिटिश भारत में महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले प्रेरक लोगों में से रखमाबाई एक थीं। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करने वाले सामाजिक सम्मेलनों और रीति-रिवाजों के प्रति उनकी अवज्ञा ने 1880 के रूढ़िवादी भारतीय समाज में बहुत से लोगों को हिलाकर रख दिया और उनकी इस लड़ाई ने ही 1891 में पारित होने वाले ‘सहमति की आयु अधिनियम’ का नेतृत्व किया। उन्होंने असाधारण साहस और दृढ़ संकल्प के साथ कई वर्षों तक अपमान सहन किया। रखमाबाई आनेवाले सालों में कई अन्य महिलाओं को डॉक्टर बनने और सामाजिक कार्य करने के लिए प्रेरणा देती रहीं। (एएमएपी)