कभी तू भी आ मेरी आँखों में कि मेरी नज़र को ख़बर न हो

 

सत्यदेव त्रिपाठी ।

गोद में रहने वाली बात को आगे बढायें… तो बच्ची सो भी जाती मेरे सीने पर, जिसे देखकर हृदयरोग से ग्रस्त मेरे मित्र ओमप्रकाश शुक्ल (अब स्वर्गीय) कहते कि तुम्हें दिल की बीमारी कभी नहीं होगी और अब तक तो अमूमन बचा हूँ। रात भर भी रहती हमारे बिस्तर में ही, लेकिन यूँ कि न कभी दबी, न कभी उसके नाख़ून आदि लगे, बल्कि हमें पता ही न चले कि बिस्तर में है कहाँ– बशीर बद्र की प्रेमिका की तरह– ‘कभी तू भी आ मेरी आँखों में कि मेरी नज़र को ख़बर न हो’। मैं लिखंता-पढ़ता भी रहूँ तो वह गोद में लेटी रहे।


मेहमान आदि आये उसे फर्क़ न पड़ता

जन्म से ही हमारे साथ रहते-रहते वह मनुष्य जाति से ऐसी हिल गयी कि घर में कोई भी मेहमान आदि आये, उसे फर्क़ न पड़ता। सोफे पर बैठी-लेटी हो, तो उठे ही न। उठाके यहाँ से वहाँ रखना पड़ता। उन दिनों हर महीने एक कार्यक्रम होता हमारे घर– ‘बतरस’। 50-60 लोग आते। सबके बीच वह भी बैठी रहती। एक बार तो उस कुर्सी पर लेट गयी, जो मंच के रूप में वक्ता के लिए नियत थी। उठाये से नहीं उठने पर सबने बड़ा मज़ा किया था– आज की प्रमुख वक्ता बच्ची ही है। ऐसा जल्वा था, ऐसी ढिठाई थी– ये बेबाक़ी नज़र की ये मुहब्बत की ढिठाई है (फिराक़)।

गन्दगी के निशान तक न होते थे

इस तरह साथ-साथ और हाथ में रहती बच्ची से यह अहसास सीख बनकर आता रहा कि प्रकृति से कैसे संचालित होता है वो जीव, जिसे क़ुदरत ने भाषा नहीं दी, वाणी नहीं दी। सबसे अद्भुत था एकदम छुटपन से बच्ची का छी-छी करने के पहले अगले पाँव से ज़मीन खुलिहारना– ठीक वैसे ही जैसे अपने आप चलना। इसी से हम जानने लगे और ऐसा करते ही उठाकर बाहर कम्पाउण्ड में ले जाके रखने लगे और उसने इस साहचर्य-सम्बन्ध को भी जोड़ लिया। खुद ही बाहर जाने लगी और हमेशा के लिए यह समस्या हल हो गयी। पेट आदि खराब होने की आपात् स्थिति के अलावा घर में कभी गन्दा न किया। अगली ही बरसात में वो भयंकर बाढ़ आयी, जिसमें अमिताभ बच्चन की तीन गाड़ियां और तबेलों की तमाम भैंसें बह गयीं– मिलीं ही नहीं। हमारे तल मंजिल के घर में तीन दिनों तक खिड़की बराबर पानी भरा रह गया। हम अपनी दूसरी मंजिल के दो कमरों में रहने चले गये और बच्ची का संयम ऐसा कि उसने तीन दिन छीछी ही नहीं किया। व्याकुल थी, पर जज़्ब करती रही। खाती यूँ भी कम थी, उन दिनों तो बिल्कुल छोड़ दिया था। चौथे दिन पानी थोड़ा उतरा, तो गोद में लेके मैं नीचे गया। परिसर (कम्पाउण्ड) के दक्षिण-पश्चिम कोने को ऊँचा होना चाहिए, के ज्योतिषीय विधान-विश्वास के चलते कल्पनाजी ने मिट्टी पटा रखी थी। तो वहाँ से पानी उतर गया था। उधर ले जाते हुए समझदारी देखिये कि चार कदम रहते ही गोद से कूदकर वहाँ चली गयी और तुरत करके फिर उछल के गोद में आ गयी! पानी से बिल्लियों का कतई सम्पर्क नहीं होता और इतने पानी में भी वह बची रह गयी– बचा ले गयी ख़ुद को। चार साल में हमने कभी नहलाया नहीं– नहला सकते ही न थे। इस पर लतीफा है… कोई अपनी बिल्ली को नहला रहा था, तो उधर से गुज़रते आदमी ने बरजा– मत नहलाओ, मर जायेगी। वह न माना। लौटते हुए उस आदमी ने बिल्ली को मरी-पड़ी देखकर कहा– नहलाने से मना किया था न, देखो– मर गयी। उसने कहा– तुम झूठे हो, यह तो निचोड़ते हुए मरी है। वस्तुत: बिल्लियां अपना बदन चाटकर खुद को इतना साफ रखती हैं कि बच्ची में गन्दगी के निशान तक न होते थे।

वे सब कुछ सीखते हैं अपनेआप

ज़मीन खुलिहारने की जन्मजात प्रकृति की तरह ही प्रकृति उनसे बात करती है– उनके चर्म-संवेदन से, उनके बुद्धि-बल से, उनकी प्राणवायु से। वे धीरे-धीरे सब कुछ सीखते हैं– बिना बताये- अपनेआप। हमारे इशारों को अभ्यास से समझते हैं। शब्दों को अर्थ से नहीं, ध्वनि व लय-लहजे से जानते हैं। फिर अंग-संचालन व देह की गति (बॉडी लैंग्वेज) से परख लेते हैं। सामने दूध रखकर ‘पी लो’ में प-ल से बनते शब्द से नहीं, पी-लो की ध्वनि से सामने रखी वस्तु (दूध या पानी) के साथ ‘पी लेने’ की क्रिया के साथ साहचर्य बना लेते हैं। इसी तरह आओ-जाओ, नहीं-हाँ… आदि दैनन्दिन के जरूरी शब्दों की हमारी ध्वनियों से क्रियाओं का सम्बन्ध जोड़ लेते हैं। कालांतर में दूध न पीना हो, तो पी-लो कहने की ध्वनि को समझकर न मानना भी सीख लेते हैं। इसी तरह भूख से दूध का और फिर दूध से उसके रखे जाने की जगह का सम्बन्ध भी जुड़ जाता है। तब भूख लगने पर दूध के पास जाके आपकी तरफ देखने से दूध माँगने का सहज रिश्ता बन जाता है। देखने से ध्यान न देने पर म्याऊँ की आवाज निकालने की भी सीख जगती है। फिर म्याऊँ कहके दूध की जगह जाने का रास्ता निकाल ही नहीं लेतीं, हमें भी दिखा देती हैं।

बिल्ली को आप बाँधके नहीं रख सकते

बिल्ली को आप बाँधके या कमरे अथवा बड़े बॉक्स में बन्द करके नहीं रख सकते, वह मुक्त ही रहती है। खाने-सोने के लिए तो मुक्त रहेगी ही, पर जब खाना होगा और जो खाना होगा, वह तो आपकी जान खाके ले लेगी। जब सोना होगा, तो अडण्ड होके ऐसा सोयेगी कि आपके उठाये न उठेगी– इस से उस करवट बदल लेगी, पर हटेगी नहीं। सबसे बड़ी बात यह कि आप उसे खेलने-घूमने के लिए बाहर जाने से रोक नहीं सकते। और हमारी बच्ची का तो क्या कहें… मैं अड़के बैठा रहता, उसपे नज़र गड़ाये रहता कि आज भागने न दूंगा, पर जैसे दर्ज़ा सात में पढ़ते हुए मारकण्डेय पण्डितजी ने बताया था कि अर्जुन के लाख रोके रहने पर भी, उनकी नज़र एक पल के लिए भी भँजते ही भीष्म पितामह दस हजार सैनिक मारने की अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर लेते थे, वैसे ही मेरी नज़र भी एक पल के लिए तो बहकनी ही बहकनी थी, बस वह कब चम्पत हो जाती थी– पता ही न चलता था। इस मामले में बच्ची गोया प्रकृति की अनुकृति हो। जैसे प्रकृति का परिवर्तन इतना स्पष्ट है– रात के बाद दिन की तरह, लेकिन आप उसका होना लक्ष्य नहीं कर सकते। भिनुसारे से बरामदे में बैठकर अँधेरे के जाने और उँजाले के आने को टकटकी लगाके मैंने घण्टो-घण्टों कितनी बार देखा है कि गेट, उसका खम्भा, उसकी बगल के पौधे न दिखने से दिखने में कब बदलते हैं, पर कभी लक्षित न हुआ। ऐसे ही बैठी-सोयी बच्ची कब नज़रों से ओझल हुई, कभी देख न सका। (जारी)


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