गोया हमसे खोजवाने के लिए जानबूझकर छिपी हो

सत्यदेव त्रिपाठी ।

खेलने-घूमने जाना तो ठीक है, पर बारहा लड़ के आती और कई बार घायल होके आती। मैं समझ सकता था कि जब माँ ने ही मारके छोड़ा हो, तो अन्य बिल्लियां और क्या न करेंगी! सब टूट पड़ते रहे होंगे। शुरुआती दिनों में तो घर में आ-आके बिल्लियां मार जाती थीं। हमें चौकन्ना रहना होता था।


 

एक मोटा जबर बिल्ला तो ऐसा खार खाये था कि घात लगाते रहता। एक बार तो गज़ब हो गया। मैं मलेरिया से बुरी तरह ग्रस्त होकर खाट से उठने तक के लिए अशक्त हो गया था। मेरे ही कमरे में बच्ची थी और भरे दिन में वह बिल्ला घुस आया। देखते ही बच्ची मेरी खाट के नीचे जा छिपी और वह वहीं घुस के मारने लगा। मैं न उठ पा रहा था, न जोर से डाँट पा रहा था। लेकिन दैव योग से मेरी मद्धम चीख बगल के स्नान घर में कपड़े धोते हुए सेवक सोनू ने सुन ली और कपड़े पीटने का मोटा मुंगरा हाथ में लिये प्रकट हो गया। इसे ताड़के बिल्ला भागने चला कि दरवाज़े से उछल के निकलते हुए जोर का मुंगरा उसकी कमर पे ऐसा पड़ा कि दरवाजे के बाहर गिर पड़ा, परंतु जीवट व जान देखिए कि उठ भाग़ा… लेकिन ऐसा डरा कि फिर कभी न आया। इस तरह घर में निश्चिंतता आ गयी।

बिल्लियों के डर से कमरे के बाहर न निकलती

लेकिन उस दौर में इन सबका बच्ची पर ऐसा आतंक छा गया था कि मारने वाली बिल्लियों के डर से कमरे के बाहर निकलती ही न थी। उन्हीं दिनों हृदय-रोग से अशक्त हुए मेरे मित्र शुक्लजी मेरे घर रहने आये, क्योंकि उनके डॉक्टर का घर मेरे घर के पास था। तो उनके साथ बच्ची भी उसी कमरे में उन्हीं की तरह दिन भर दुबकी बैठी रहती। शुक्लजी विनोद में बच्ची को अपना असली साथी कहते। उसके डर को निकालने में मुझे महीनों मशक्कत करनी पड़ी थी। मैं उसे गोद में लेके बाहर निकलता और घण्टों घूमते हुए जहाँ भी बिल्लियां दिखतीं, उधर जाता। मुझे देखते ही बिल्लियां भाग खड़ी होतीं… इन सबसे धीरे-धीरे बच्ची का डर भागा और उसमें आत्मविश्वास जागा। वह धीरे-धीरे बाहर जाने लगी और फिर तो बिहरने-बउँड़ने लगी। कई बार तो खोजना पड़ता। एक बार ऐसा गायब हुई कि हम सब परेशान… बड़ा तलाशने पर सामने के घर के बार्जे पर बेख़बर सोती मिली– गोया हमसे खोजवाने के लिए जानबूझकर छिपी हो।

झउंझिया के पंजे तो मार दिये, पर बुरी तरह सहम गयी

लड़ के घायल होके आने की दो घटनाएं बड़ी दर्दनाक हैं, पर अपनी रोचकता व विरलता में उल्लेख्य भी। एक दिन बहुत मार खा के आयी थी और घर की चहारदीवारी पर बैठी थी, जो उसकी एक प्रिय जगह भी थी। लेकिन पूरा बदन थरथरा रहा था– डर से काँप रहा था या गुस्से से गनगना रहा था। बदन के घाव थोड़ी दूर से भी स्पष्ट दिख रहे थे। मै पीछे से पहुँचा और आदतन सहलाने चला कि उसी गुस्से के आवेग में झउंझिया के पंजे तो मार दिये, पर मुझे देखते ही बुरी तरह सहम गयी… फिर भी काँपना न रुका। इतने में तो इधर मेरे हाथ में गदोरी के पीछे 5-6 लकीरें खिंच गयीं और उनमें खून चुहचुहा आया। बिस्साने (विषैले असर से जलने) लगा। मैं कुछ लगाने के लिए वापस आ गया। वैसे तो वह जब भी लड़ के आती, तो जल्दी घर में न आती। शायद अपने घाव-डर-दुख… आदि सब छिपाना चाहती- जैसे बचपन में खेलते हुए घायल होने पर हम करते, ताकि कोई देख के पूछ न ले और कल से खेलने जाना बन्द न हो जाये! लेकिन उस दिन मेरे चले आने पर पीछे-पीछे दबे पाँव धीमे-धीमे, डरी-डरी आयी और 5 फिट की दूरी पर बैठके दयनीय भाव से मेरी तरफ देखने लगी। गहन पश्चात्ताप का भाव चेहरे पर पसरा था। कल्पना ने उसकी ओर देखके कहा था– ते डैडीने मार्यू? (तुमने डैडी को मारा?) और बच्ची का सर नीचा होके ज़मीन पर पड़ गया। उसकी ग़लती न थी, फिर भी उसके इस अपराध-बोध से मैं द्रवित हो उठा। जाके उठा लाया, तो भी वह घण्टों उस बोध से उबर न पायी– ठकमुर्री मारे मेरे पास बैठी रही। जब सामान्य हुई और फिर पुराने वाले भाव में आयी, तो भी लकीरों के दाग़ जब तक रहे, उन्हें देखके उदास हो जाती।

बावजूद इन सबके उसका बाहर जाना और लड़ना न छूटा। इसका राज़ तब समझ में आया, जब एक बार वह ज्यादा बीमार हुई और हम उसे लेकर डॉक्टर के पास गये। उसके बाहर जाने और लड़ने-घायल होने की बात सुनकर डॉक्टर ने कहा– यह तो लड़ेगा। बिल्ला है, इसे लड़ने से रोका जा ही नहीं सकता। तब हमने जाना कि यह तो बच्ची नहीं है, इसे तो बच्चा कहना चाहिए, लेकिन हमारी आदत नहीं छूटी– हमारे लिए वह आजीवन बच्ची ही बनी रही।

इतनी घायल कि उठ नहीं पा रही

घायल होने की दूसरी घटना ज्यादा गम्भीर है। मैं उस दिन देर से आया– करीब आठ बजे। घर में प्रविष्ट होते ही उषा ने कहा– अंकल, बच्ची लड़ के आयी है। इतनी ज्यादा घायल है कि उठ नहीं पा रही है। उठाने जाओ, तो काटने चलती है। बगीचे में गुड़हल तले छिप के बैठी है। मैं झोला फेंकके उधर भागा। झटके से उठाया, तो देखा कि उसका पीछे वाला दाहिना पैर दिख ही नहीं रहा था। कमर से पुट्ठे तक में सूजन इतनी ज्यादा थी कि पैर उसी में दब के छिप गया था। याने कि भागते हुए ऊँची चहारदीवारी से कूदने में लड़खड़ाके या कहीं फँसके गिरी थी और घुटने के ऊपर मोच आ गयी थी। गाँव में खेलते हुए हमारे साथ ऐसा सब प्राय: होता रहता था और इसकी रामबाण दवा हल्दी-प्याज होती। बस, डॉक्टर-वाक्टर के चक्कर छोड़के उषा से कहा– हल्दी-प्याज पीसो, उसे कड़ू तेल में तवे पे चुरा के ले आओ। और मैं बच्ची को गोद में लेके ज़मीन पे ही गादी बिछवाके व गावदी की टेक लगाके बैठ गया। फूँक-फूँक के सहा-सहा के उसके पूरे सूजन वाले भाग पर खूब मोटी परत छोप दी। वो पहले कराही, फिर कसमसाती रही, पर ज्यादा तो असमर्थतावश और कुछ उषा की पकड़ के चलते खिसक न सकी– गोकि हिली जरूर इधर-उधर। लेकिन आधे घण्टे में ही हल्दी-प्याज-तेल की गर्मी से उसे नींद आ गयी।


बच्ची : पिछले जनम की मनुहार नहीं तो कौन-1

बच्ची : पिछले जनम की मनुहार नहीं तो कौन-2 

बच्ची : पिछले जनम की मनुहार नहीं तो कौन-3