दो-ढाई घण्टे बाद बच्ची कुनमुना के जागी और…
सत्यदेव त्रिपाठी ।
ऐसे गाढ़े अवसरों पर सबकुछ के बावजूद न जाने क्यों –शायद बचपन के संस्कारवश (‘संस्कार पीछा नहीं छोड़ते’– यशपाल) -मेरा ब्राह्मणत्व जाग जाता है और मैं श्लोक-स्तोत्र गाने लगता हूँ।
कभी गोद में न रहने वाला अपना जेरी (पालतू सफेद चूहा) जब मरणासन्न होने पर ख़ुद ही आके मेरे कन्धों पर बैठ गया था– उसके पूरे बदन में गिल्टियां निकल आयी थीं, तो मैं ज़मीन पर बैठकर ही शिवमहिम्न स्तोत्र ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने लगा था और तीन घण्टे बाद उन्हीं ध्वनियों के बीच लगभग आधी रात को उसने प्राण त्यागे थे। सब सो गये थे, पर स्तोत्र की आवाज सुनकर बस ‘बा’ (कल्पना की माँ) आ गयी थीं और हाथ जोड़े मेरे पास बैठी रही थीं। लेकिन इस बार तो दो-ढाई घण्टे बाद बच्ची कुनमुना के जागी और चारों तरफ यूँ निहारने लगी– जैसे इस संसार को पहली बार देख रही हो। फिर धीरे से उठी और डोलने लगी। सूजन आधी से ज्यादा पिचक गयी थी। और वह अपने घाव को चाटने चली, तो हल्दी-प्याज का स्वाद उसे इतना भाया कि सब का सब खा गयी। थोड़ी देर बाद जब हमने फिर हल्दी-प्याज छोपना चाहा, तो बच्ची में इतनी ताकत व सक्रियता आ गयी थी कि दुबारा छोपने न दिया। किसी तरह थोड़ा-सा दूध पिला पाये और दूसरे दिन बिल्कुल चंगी हो गयी।
बच्ची सबकी थी और सब उसके थे
लेकिन अपनी जाति से चाहे बच्ची लड़े या डरे, पर अपने अनुभव की थाती पर कहूँ, तो वह मनुष्य से जरा भी नहीं डरती थी। ‘बतरस’ के आयोजन में पचासों लोग आते थे, सबके बीच मनुष्यवत बैठती। जो भी गोद में लेता, चली जाती – सब आश्चर्य करते। यदि सिर्फ बच्ची के आधार पर व्यवस्था देनी हो, तो मैं कहूँगा कि बिल्लियां फल नहीं खातीं– बच्ची ने कभी कोई फल नहीं खाया। अन्न याने दाल-भात-रोटी वाला भोजन व मिठाइयां… आदि उसे हमने दिया नहीं, क्योंकि उसके स्वास्थ्य– ख़ासकर देह के बाहरी हिस्सों चर्म आदि के लिए हानिकर बताया गया था। कितना भी शाकाहारीत्व सिखायें, चूहे पकड़ने-खाने से उसे रोक न पाये। जाने कहाँ-कहाँ से पकड़-पकड़ के लाती और परिसर में ही आके खाती। वो तो उसकी हमने चलने नहीं दी, वरना घर में ही लाके खाती। चूहे को जब मुँह में दबाये लेके आती, तो वीरांगना का-सा जोश-उत्साह-खुशी उसके चेहरे पर बिराजती होती– गोया अपने पराक्रम से हमें अवगत कराना चाहती हो। और आप भले बच्ची के लिए इसे अपवाद कहें, पर मैं इस धारणा का सिरे से खण्डन कर दूँगा कि बिल्लियां किसी की नहीं होतीं। बच्ची सबकी थी और सब उसके थे। मनुष्य क्या, बच्ची के आने के साल-दो साल बाद ही अपना बीजो (कुत्ता) आया था। दोनों में इतनी पटरी बैठी कि दोनों भाई-बहन जैसे साथ-साथ रहते। बच्ची सोती बीजो की पीठ पर। इस दृश्य को देखते हुए मुझे आचार्य शुक्ल के ‘विरुद्धों के सामंजस्य’ वाला सौन्दर्य-सूत्र याद आता। इन सबको देखकर लोग चकित होते, पर यह मिलाप अपवाद नहीं- कई घरों में मैंने देखा है।
संतोष के सिवा कोई चारा न रहा
लेकिन अपनी जाति को लेकर बनी उस धारणा का अपवाद न बन सकी बच्ची कि बिल्लियां घर में मरती नहीं, मरने के पहले घर छोड़ देती हैं। जब एक दिन खेलने-लड़ने गयी बच्ची शाम तक नहीं लौटी, तो पूरी रात इंतज़ार में बिताकर सुबह होते ही खोज शुरू हुई। अपने दोनों घर के कोने-कोने छान मारने के बाद बाहर निकले, पर ऐसी वेगवती व नन्हीं प्राणी को कहाँ खोजते? खोये हुए टीनू (कुत्ते) को तो रात-रात भर स्कूटर पर हम पति-पत्नी पूरे इलाके में खोजते रहे थे और अंत में मान लिया था कि उसे कोई पकड़ के उठा ले गया, लेकिन बच्ची के बारे में तो ऐसा कदापि नहीं हो सकता। कभी पकड़ा भी जाती, तो रहती-टिकती कैसे? लिहाजा अपने आसपास के भवनों में पूछताछ की, परिसरों में ताक-झाँक की। किसी दुर्घटना के शिकार की आशंका में सड़कों पर ख़ूब गश्तें लगायीं। कचरा ले जाने वाली नगरपालिका की गाड़ियों को रोक-रोककर कर्मचारियों से पूछ-ताछ की। उनके ना कहने पर चिरौरियां कीं कि कभी कोई मृत बिल्ली मिले, तो हमें सूचित कीजिए, ताकि उसकी अंतिम बिदाई कर सकें। पर बच्ची को नहीं मिलना था, तो नहीं मिली। यह सोचकर संतोष करना पड़ा कि अपने बिछोह के दुख से हमें बचाने के लिए या हमसे छूटने की अपनी पीड़ा से बचने के लिए ही वह चली गयी– अनुक्त्वैवं वनं गता:। पर क्या बच पायी होगी? हम जैसे ही वह भी तड़पी होगी, पर अपनी जातीय वृत्ति के चलते ऐसा कर सकी होगी, के संतोष के सिवा कोई चारा न रहा… अंत तो विवश ही होता है!
सबसे ज्यादा मुझपे जान क्यों छिड़कती थी
बच्ची के जाने के बाद मेरा मन कई-कई कोठों में भटकता हुआ बार-बार सोचने पर मज़बूर हो जाता कि बच्ची इतना मेरे हियें रहती थी, वह सचमुच थी कौन? कई जवाब आते सवाल बनकर… क्या वह सिर्फ मेरी जिम्मेदारी थी, जो निभानी पड़ी, क्योंकि उस निष्पाप जीव को छूने का पाप किया था? लेकिन उससे पहले यह था कि वह मेरे ही घर के पास क्यों आयी? आयी भी, तो उस वक्त वहाँ मैं ही क्यों पहुँचा? फिर उसके बाद भी खिलाते-पिलाते, चाहते-मानते तो सभी थे। मैं तो उसे छोड़के 15 दिनों-महीनों गायब भी रहता था। कल्पना व उषा तो हमेशा रहती थीं। रहने पर भी मैं दिन भर बाहर रहता था। ज्यादा खिलाना-पिलाना तो उषा करती थी। फिर भी सबसे ज्यादा मुझपे जान क्यों छिड़कती थी? मुझमें उसके लिए इतना प्यार क्यों जाग उठा? ‘फिर वही पृच्छा चिरंतन’ कि पुनर्जन्म में मेरा विश्वास नहीं, पर तिक्का की जानिब से सोचने लगता क्या वह सचमुच कोका थी। तो फिर ज्यादा मेरे पास क्यों रहती, बा (अपनी माँ) के पास न रहती? फिर क्या यह मान लूँ कि मेरी माँ ही थी, जो मेरे पास आ गयी थी। उस जन्म में मुझे गोद में रखकर पाला-पोसा, इस बार मेरी गोद में पली। इस तरह क्या वह अपने पूर्वजन्म का मुझ पर दाय थी, जो मैं चुका रहा था!
कौन थीं तुम…
सारे प्रश्नों में उलझते-उलझते वही हुआ, जो हर भाव-विचार का होता है– किसी काव्य-पंक्ति में अवसान या उपराम। सो, एक क्षण सहसा बच्चनजी की तरह मन में उठा, होठों ने बुदबुदाया और तब से आज तक तमामो तमाम बार किन्हीं एकांत क्षणों में बच्ची की याद आने पर होंठ बरबस बुदबुदा उठते हैं और इसी बुदबुदाहट में बार-बार बच्ची मन में मौजूद हो उठती है– ‘पिछले जनम की यदि नहीं मनुहार थीं, तो कौन थीं तुम’? (समाप्त)