तीन राज्यों में मिली हार के बाद कांग्रेस में माथापच्ची का दौर जारी है। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने संबंधित प्रदेशों के नेताओं से बातचीत कर उन कारणों को तलाशने की कोशिश की है, जिसके चलते कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा।

राजनीतिक जानकारों का कहना है, कांग्रेस सियासी पिच तो खुद तैयार करती है, लेकिन जब मैच की बारी आती है, तो उसके हिस्से में हार के अलावा कुछ नहीं आता। दरअसल, कांग्रेस में फैसला लेना, आज भी एक या कुछ हाथों में नहीं है। नैतिकता, वोट बैंक और सत्ता पक्ष द्वारा लगाए जाने वाले परिवारवाद के आरोपों से बचने के लिए कांग्रेस ने ‘गैर-गांधी’ के रूप में अध्यक्ष की कुर्सी पर खरगे को बैठा दिया। कुछ ही दिन में कांग्रेस के क्षत्रपों ने खरगे के हंटर को बेअसर कर दिया। नतीजा, तीन राज्यों में हुई हार के बाद प्रदेशाध्यक्ष या सीएलपी लीडर के त्यागपत्र पर रार मच गई। इतने कम समय में सब कुछ सामान्य हो गया। वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, कांग्रेस के पास ’10’ लोगों से ‘100’ गुना फायदा लेने की ‘मोदी तकनीक’ तकनीक नहीं है। पार्टी के पास मोदी जैसा भी हंटर नहीं है।

क्षत्रप उनकी ज्यादा नहीं सुन रहे

विधानसभा चुनाव में हुई हार के बाद कांग्रेस में कई तरह के स्वर सुनने को मिल रहे हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हार क्यों हुई, इस पर पार्टी ने चर्चा की है, मगर कोई त्यागपत्र नहीं हो सका। कांग्रेस पार्टी की राजनीति को करीब से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक राशिद किदवई कहते हैं, कांग्रेस ने भले ही मल्लिकार्जुन खरगे को पार्टी अध्यक्ष की कमान सौंप दी हो, लेकिन क्षत्रप उनकी ज्यादा नहीं सुन रहे हैं। उन्हें भी मालूम है कि अंतिम निर्णय कहां से होना है। कांग्रेस और भाजपा में यही फर्क है। भाजपा में केंद्रीय स्तर पर जो फैसले होते हैं, शीर्ष नेतृत्व से लेकर निचले स्तर के कार्यकर्ता, सभी उनका सम्मान करते हैं। कांग्रेस में इस बात को लेकर चर्चा हुई थी कि तीन राज्यों में हुई पराजय के बाद वहां के सीएलपी लीडर और प्रदेश अध्यक्षों का त्यागपत्र मांगा जाए। इसी पर रार मच गई। वजह, तीनों ही राज्यों के क्षत्रपों का दखल सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका तक रहा है। चुनाव में अति आत्मविश्वास को लेकर कुछ नेताओं की तरफ इशारा हुआ, लेकिन उनके खिलाफ कुछ नहीं हुआ। चुनाव प्रचार के दौरान कई कमियां सामने आई थीं, मगर प्रदेशों के क्षत्रपों ने अपनी पहुंच के चलते उन्हें नजरअंदाज कर दिया। इस मामले में भी कोई कार्रवाई नहीं हो सकी।

खरगे का विवेक भी राहुल व प्रियंका की तरफ

खरगे, पार्टी के अध्यक्ष हैं, मगर हाईकमान कल्चर अभी खत्म नहीं हुआ है। बतौर किदवई, जब खरगे के लिए अपने विवेक के आधार पर कोई फैसला लेने की बात आती है, तो वे मजबूरी में सोनिया, प्रियंका और राहुल की तरफ देखते हैं। यही बात, पार्टी के क्षत्रपों के लिए खुद को महफूज करने की स्थिति में ला देती है। जब तक पार्टी अध्यक्ष कुछ सोचते हैं, तब तक टारगेट वाले नेताओं का बचाव हो जाता है। जैसा सोचा गया था कि खरगे खुले हाथों से कठोर फैसले लेंगे, वैसा कुछ नहीं दिख रहा। ‘ढाक के वही तीन पात’ वाली स्थिति नजर आ रही है। पार्टी में मोदी जैसी सक्रियता नहीं दिखती। किसी के पर कतरें जाएं, ऐसा तो बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ता। महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्यों में पार्टी प्रभारी की नियुक्ति तक नहीं हो पा रही है। किदवई कहते हैं, पार्टी में कौन सा मुद्दा कब उठाया जाए, इस बाबत कोई चर्चा नहीं होती। ईवीएम का मुद्दा कब और किन स्थितियों में उठाया जाए, पार्टी को इसकी लाइन लैंथ का अंदाजा नहीं होता। मुद्दे कांग्रेस तय करती है, उसका फायदा भाजपा उठा लेती है। कांग्रेस में अधिकांश नेता स्वर्ण, एससी समुदाय या मुस्लिम हो सकते हैं, लेकिन ओबीसी कम हैं। पिछड़े समुदाय के नेताओं को शीर्ष स्तर पर प्रमुखता क्यों नहीं दी जा रही। सचिन पायलट को आगे लाकर पार्टी एक बड़ा संदेश दे सकती थी।

दस लोगों का सौ गुना फायदा

पीएम मोदी की तकनीक, दस लोगों से सौ गुना फायदा, यह कांग्रेस या राहुल गांधी नहीं उठा पा रहे हैं। भाजपा में किसी भी मुद्दे को उठाने के लिए, पहले जमीनी स्तर पर होमवर्क किया जाता है। उसका नफा नुकसान देखा जाता है। भाजपा में प्रभावशाली मुद्दों को भुनाने की कला है। अगर मध्यप्रदेश में यादव को सीएम बनाया गया है, तो उसके लिए पार्टी ने कोई चांस नहीं लिया। जातिगत गणना और ओबीसी जैसे मुद्दे से पार्टी को जो नुकसान संभावित था, उसका निराकरण कर दिया है। पीएम मोदी, हर क्षेत्र में कम से कम ‘दस लोगों से सौ गुना फायदा’ लेने की क्षमता रखते हैं। उन्हीं से ग्राउंड रिपोर्ट भी लेते हैं। केंद्रीय मंत्रियों को विधानसभा का चुनाव लड़ा दिया। ऐसे कठोर फैसले लेने के लिए कांग्रेस में माहौल तैयार करने से खरगे चूक रहे हैं। कांग्रेस को अपना घर दुरुस्त करने की बजाए, दूसरों के भरोसे राजनीति करना छोड़ना होगा।(एएमएपी)