आईजीएनसीए में ‘गढ़वाल का बेडा समाज: एक अध्ययन’ पुस्तक का विमोचन
आपका अखबार ब्यूरो
उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री श्री तीरथ सिंह रावत ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र (आईजीएनसीए) के समवेत ऑडिटोरियम में ‘गढ़वाल का बेडा समाज: एक अध्ययन’ पुस्तक का विमोचन किया। इस पुस्तक का प्रकाशन उत्तराखंड की संस्कृति पर आईजीएनसीए के जनपद सम्पदा विभाग की शोध परियोजना के पहले चरण के अन्तर्गत किया गया है।
इस अवसर पर आईजीएनसीए के आदि दृश्य प्रभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. रमाकर पंत, पुस्तक के लेखक श्री मनोज चंदोला और उत्तराखंड के कई वरिष्ठ पत्रकार तथा प्रबुद्धजन भी उपस्थित थे। कार्यक्रम के दौरान गढ़वाल के बेडा समाज पर आईजीएनजीए और ‘हिमाद्रि प्रोडक्शंस’ द्वारा निर्मित एक डाक्यूमेंट्री फिल्म भी दिखाई गई। यह पुस्तक उत्तराखंड के विलुप्त हो रहे बेडा समाज, जिसे बादी समाज भी कहा जाता है, की परम्पराओं, उनकी संस्कृति के बारे में विस्तार से तो बताती है; उनके दुःख-दर्द, उनकी समस्याओं, उनकी चुनौतियों को भी बयां करती है। साथ ही, बेडा समाज के विलुप्त होते जाने के कारणों पर भी बात करती है। डाक्यूमेंट्री में भी इन बातों को ऑडियो-विजुअल रूप में प्रस्तुत किया गया है।
श्री तीरथ सिंह रावत विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि थे। कार्यक्रम का आरम्भ जनपद सम्पदा प्रभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. के. अनिल कुमार के स्वागत भाषण से हुआ। प्रो. अनिल कुमार ने अपने भाषण में उत्तराखंड की संस्कृति पर आईजीएनसीए द्वारा किए जा रहे कार्यक्रमों के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा, उत्तराखंड की जीवंत विरासत का डाक्यूमेंटशन किया जा रहा है। गढ़वाल के पांच जिलों- पौड़ी, चमोली, रूद्रप्रयाग, टिहरी और उत्तरकाशी में निवास करने वाले बेडा समाज के आदि गायकों के गीत, संगीत, नृत्य एवं लोक विधाओं का अध्ययन किया गया है।
श्री तीरथ सिंह रावत ने कहा कि जिस तरह भारत विविधताओं का देश है, उसी तरह उत्तराखंड भी विविधताओं का प्रदेश हैं। यहां पहाड़ हैं, जंगल हैं, नदियां हैं, मैदानी क्षेत्र भी हैं। यहां के विभिन्न अंचलों के खानपान में विविधता है, भौगेलिक स्थितियों में विविधता है, रहन-सहन अलग है। लेकिन यहां की संस्कृति एक है। बेडा समाज के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि पहले बेडा समाज के लोग घर-घर नाचने और गाने आया करते थे। लोगों का मनोरंजन भी किया करते थे। उन्होंने कहा, जो हम नहीं जानते थे, वह उन्हें पता होता था। वो पढ़े-लिखे नहीं होते थे, लेकिन उनको पारम्परिक ज्ञान बहुत होता था। लेकिन जैसे ही उत्तराखंड से पलायन होना शुरू हुआ, धीरे-धीरे संस्कृति का ह्रास होता गया। लेकिन अब लोग जागरूक हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी ‘वोकल फॉर लोकल’ का नारा दिया है। हमें अपनी संस्कृति को लेकर भी मुखर होना होगा। अलग उत्तराखंड बनने से हमारी पहचान बनी है। हमें अपनी पहचान को बनाए रखना है, इसलिए हमें अपने बेडा समुदाय की संस्कृति को भी बचाना होगा।
‘गढ़वाल का बेडा समाज: एक अध्ययन’ पुस्तक के लेखक श्री मनोज चंदोला ने कहा, ‘हिमाद्रि प्रोडक्शंस’ ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली के सहयोग से गढ़वाल के आदि गायक ‘बेडा समाज’ पर एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन में गढ़वाल में संगीत और लोकविधाओं में बेड़ा समाज के योगदान को समझने की कोशिश की गई है। यह अध्ययन न केवल रोचक था, बल्कि लोक विधाओं के संरक्षण और संवर्धन के लिये नई समझ देने वाला भी था। गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों में कई चरणों के अध्ययन के बाद यह बात सामने आई कि पौराणिक काल से संगीत के इन ध्वजवाहकों (बेडा समाज) के सामने अब नई चुनौतियां हैं। भगवान शंकर को अपना कला गुरु मानने वाले इस समाज की अपनी कई सारी विशेषताएं हैं। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और समसामयिक दृष्टि से हर काल में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गढ़वाल में एक बड़ा संसार है बेडा समाज का और बहुत समृद्ध है उनकी गीत-संगीत की परम्परा। बदलती विश्व व्यवस्था और ग्लोबल होती दुनिया में आंचलिक विधाओं को बचाने की विकट चुनौती सामने है। बाज़ारवाद का असर बेडा जैसे समाजों पर भी पड़ा है। सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर इन्हें संरक्षण देने की आवश्यकता है। यह भी चिंतनीय है कि जो समाज हमेशा दूसरों के लिये गाता रहा है, दूसरों के कल्याण की मंगल कामना करता रहा है, वही समाज की मुख्यधारा से कटने को अभिशप्त है। इसलिये इस समाज के गीतों, ‘लांग’, ‘स्वांग’ और ‘बेडावर्त’ जैसी लोक विधाओं को किसी न किसी रूप में संरक्षित करने का रास्ता निकालना चाहिए।
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जनपद सम्पदा प्रभाग की श्रीमती लक्षमी रावत ने कार्यक्रम का संचालन और अतिथियों एवं आंगतुकों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।