सत्यदेव त्रिपाठी ।

एक आटो रिक्शावाला भी अपने भीतर कई कहानियां रखता है। कम उम्र होने से रात में आटो चलाता है ताकि दिन में पुलिस परेशान न करे, कॉलेज न छूटे… उसकी कुछ उम्मीदें हैं, कुछ ख्वाब, कुछ कोशिशें… और फिर नरेंद्र मोदी से मिलने की आकांक्षा भी!


 

यूं तो प्लेटफॉर्म पर आके ऑटो -टैक्सी के लिए पूछने वालों से मैं कभी मुखातिब नहीं होता, पर सुबह चार बजे बनारस उतरने पर जब उस मासूम-से लड़के ने ‘कहां जाना है साहब’ पूछा, तो अचानक मुंह से निकल गया -डीएलडब्ल्यू। लेकिन डेढ़ सौ सुनते ही ‘हटो, अब एक शब्द मत बोलना’ कहते हुए चार कदम आगे बढ़ा ही कि ‘120 देंगे?’ सुनाई पड़ा और मैंने चलने का इशारा कर लिया। उसने बड़े अदब से अटैची हाथ में ले ली।

अभी 17 साल का हूं , लाइसेंस नहीं है

ऑटो चलते ही उसकी कम उम्र को देखते हुए पूछ लिया- क्या उम्र है, लाइसेंस है तुम्हारे पास? और उसने छूटते ही साफ-साफ बता दिया- अभी 17 साल का हूं , लाइसेंस नहीं है। इसीलिए तो रात को चलाता हूं साहेब। दिन में पुलिस (आरटीओ) वाले पकड़ लेते हैं।

सुनते ही मेरी चेतना जाग उठी- ये तो हाशिए का केस है और कॉलम भेजने का समय आ गया है। बस, बात शुरू हुई और वह मुक्त भाव से बताता चला गया।

चुनार जिले के नारायणपुर गांव के रहने वाले पिता उदयराज चौधरी सपरिवार पचीसों साल से बनारस में रहते हैं। ट्रक चलाते हैं। पंद्रह हजार पाते हैं। किन्तु अभी तक रहने का एक अपना ठिकाना नहीं हो पाया। स्टेशन के पास छित्तूपुर में कहीं भाड़े के घर में रहते हैं, जिसकी हालत का पता दिन भर में मुझे इस बात से लगा कि पूरे दिन फोन पर बात न हो सकी। कैसा निचंट होगा कि नेट पहुंचता ही नहीं एक मिनट भी। शाम को बात हुई, तो घर जाना चाहा, पर बच्चे ने टाल दिया। सूर्य की किरणें पता नहीं वहां पहुंचती होंगी कि नहीं- जहां न पहुंचे रबि, तहां पहुंचे कबि… नहीं, तहां बसे गरीब।

बड़ा होकर कुछ बनना चाह रहा

गांव में थोड़ा सा खेत है, जो चाचा को करने के लिए दिया है। छठें-छमासे जाना-आना होता है। ट्रक चालक पिता महीने में दो-एक दिन ही घर रह पाते हैं। यह बच्चा उनका छोटा बेटा आकाश चौधरी है। आकाश ने अपने चौधरी होने को ब्राह्मण होना बताया, जो मुझे बिहार, उ.प्र., बंगाल व महाराष्ट्र आदि में कहीं भी ब्राह्मण कहे जाते नहीं मिले… पर भारत की असंख्य जातियों में यह अजूबा भी नहीं। बड़ा भाई शादी के बाद मुम्बई चला गया और अब वहीं रहता है। इस घर से कोई वास्ता नहीं रखता। आकाश अपने से बड़ी बहन व मां के साथ घर रहता है। बहन शादी लायक हो गई है। वर-घर खोजा जा रहा है। एक अच्छी आस है कि सबसे बड़ी बहन के परिवार जैसा कोई घर मिल जाए, जो बिना एक भी पैसे दहेज के खुशी खुशी शादी कर ले और यह बहन भी उसी तरह सुखी हो जाए।

घर की किल्लत के चलते ही यह सबसे छोटी संतान आकाश पिछले 3-4 महीने से  चलाने लगा है। दो सौ रुपये ऑटो रिक्शे के मालिक को भाड़ा देकर भी 3-4 सौ बचा लेता है। दिन में चलाता, तो ज्यादा कमा पाता, पर बिना लाइसेंस के पुलिस का डर तो है ही, दिन में पढ़ने जाने से महरूम हो जाने का डर उससे बड़ा है। दसवीं में 74% अंक मिलने का अर्थ है कि पढ़ने में अच्छा है आकाश। इसी से 11वीं में गणित, भौतिक व रसायन शास्त्र (पीसीएम ग्रुप) लिया है और बड़ा होकर कुछ बनना चाह रहा है- क्या, का पता नहीं, पर कुछ अच्छा व बड़ा… और पिता-भाई से अलग कुछ!

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राजनीति का कुछ मालूम नहीं… पर नरेन्द्र मोदी पसंद

लेकिन ताज्जुब हुआ कि आकाश को न टीवी-फिल्म का कुछ पता है, न क्रिकेट आदि किसी में रुचि है। उसे राजनीति का भी कुछ मालूम नहीं… पर ‘भनिति मोरि सब गुन रहित, बिस्व बिदित गुन एक’ वाले ‘रघुपति नाम’ की तरह आकाश को नरेन्द्रजी मोदी पसंद हैं। उनका नाम सुनते ही चहक उठा- ‘साहब, मोदी मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। वो हमेशा पीएम बने रहें, यही चाहता हूं’। वह उनके बारे में सब कुछ जानना चाहता है… यह पसंदगी क्यों है, का भी उसे कुछ पता नहीं, उनके कामों की कुछ जानकारी नहीं, बस दीवानगी है। वह उन्हें देखना, उनसे मिलना चाहता है। जानता है कि मिल नहीं सकता, पर कई बार उनके आने पर सभाओं में बैठकर दूर से देख चुका है और जब भी आएं देख पाने की हर कोशिश करता है- ‘साहब, पता लग जाए कि मोदी साहेब आ रहे हैं, बस…’ और गर्दन जोर से झटक दी।
घर आ गया था, मैंने 150 ही दे दिये… उसका मुदित (क्या मोदीमय) चेहरा देखने जैसा था।


जिन्दगी हाशिए पर : सीधी की प्रेमवती, सड़क पे पेशा सड़कै बास…