बाबरी मस्जिद गिराने के मामले में कथित भूमिका को लेकर बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, विनय कटियार, उमा भारती और कई अन्य नेताओं पर वर्तमान में विशेष सीबीआई अदालत में सुनवाई चल रही है।
इस घटना से देश और दुनिया में हड़कंप मचा गया। उस वक्त कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, जबकि पीवी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री थे। बाबरी मस्जिद ढाहे जाने के बाद नई दिल्ली से लेकर लखनऊ और अयोध्या तक फोन की घंटियां बजने लगीं। प्रधानमंत्री कार्यालय ने सीधे हस्तक्षेप करते हुए अयोध्या के वरिष्ठ अधिकारियों से विवादित स्थल पर अर्धसैनिक बलों का इस्तेमाल करने का आदेश दिया।
लेकिन क्या एक दिन में एकाएक इतने लोग वहाँ एकत्रित हो गए थे, या इसकी भूमिका 1990 में लिखी गई, जब लाल कृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली।
उस घटना के कई प्रत्यक्षदर्शी इसके लिए 1990 में आडवाणी की रथ यात्रा को अहम मानते हैं, कई दूसरे जानकारों का कहना है इसकी विध्वंस की नींव 1949 में ही तैयार हो गई थी, जब पहली बार मस्ज़िद के अंदर मूर्ति की स्थापना की गई थी। इस रिपोर्ट के ज़रिए ये समझने की कोशिश की गई है कि वो कौन सी घटनाएँ रही, जो बाबरी मस्जिद विध्वंस के पीछे की वजह बनी।
उधर, मुख्यमंत्री कल्याण सिंह उस दिन, उस वक्त दोपहर में कालीदास मार्ग स्थित मुख्यमंत्री आवास में धूप सेंक रहे थे। जब उन्हें इस घटना की सूचना दी गई तो उन्होंने तत्काल फाइल मंगवाकर कार सेवकों पर गोली नहीं चलाने का लिखित आदेश डीजीपी को दिया था। हेमंत शर्मा की पुस्तक ‘अयोध्या का चश्मदीद’ में इस बात का उल्लेख है। किताब में लिखा गया है कि कल्याण सिंह ने 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में घटी घटना की जिम्मेदारी खुद अपने ऊपर ली थी।
जब लेखक ने कल्याण सिंह से इस बाबत पूछा था तो कल्याण सिंह का जवाब था, “इसकी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर ओढ़ता हूं। अगर ढांचे पर से कारसेवकों को हटाने के लिए गोली नहीं चली तो इसके लिए कोई अफसर जिम्मेदार नहीं है। फाइलों पर मेरे लिखित आदेश मौजूद हैं कि किसी भी कीमत पर गोली न चलाई जाए।” उस दिन अयोध्या जिला प्रशासन को दोपहर दो बजे मुख्यमंत्री कार्यालय से लिखित आदेश मिला था कि किसी भी स्थिति में गोली न चलाई जाए। इसके बाद केंद्रीय बलों ने विवादित स्थल पर जाने का इरादा छोड़ दिया था, जबकि केंद्र सरकार केंद्रीय बलों को वहां बल प्रयोग करने का निर्देश दे रही थी।
किताब में कल्याण सिंह के हवाले से लिखा गया है कि बल प्रयोग के मुद्दे पर कल्याण सिंह की तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण से भी फोन पर तीखी झड़प हुई थी। तब सिंह ने चव्हाण को दोपहर में साफ-साफ कह दिया था कि कार सेवकों पर किसी भी सूरत में गोली नहीं चलाई जाएगा। कल्याण सिंह ने लेखक को बताया था और कहा था, 6 दिसंबर को जब कार सेवक बेकाबू थे तो केंद्रीय गृह मंत्री चव्हाण को मैंने दोपहर 2 बजे ही साफ-साफ बता दिया था कि अयोध्या की मौजूदा हालत में गोली चलाना बुद्धिमतापूर्ण नहीं है क्योंकि ऐसा करने से जनाक्रोश और भड़क सकता था।
कल्याण सिंह ने बाद में भी कई मौकों पर इसकी जिम्मेदारी खुद ली थी। उन्होंने उसी दिन शाम में एक लाइन की चिट्ठी लिखकर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। हालांकि, उन्होंने विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं की थी। उसी शाम केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। बाद में इस मामले की जांच करने वाले लिब्राहन आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट में बाबरी विध्वंस के लिए 68 लोगों को दोषी ठहराया था।
बहुप्रतीक्षित भव्य राम मंदिर के निर्माण के लिए अयोध्या में राम जन्मभूमि पर भूमि पूजन 5 अगस्त को होने वाला है। इस कार्यक्रम में विभिन्न दिग्गज शामिल होंगे और पूजा स्वयं प्रधान मंत्री मोदी द्वारा की जाएगी। शुभ आयोजन के लिए बस कुछ ही दिन शेष हैं, यह 1992 के राम जन्मभूमि आंदोलन के प्रतिष्ठित वीडियो को याद करने लायक है, जिसने अयोध्या में भगवान राम को समर्पित एक भव्य मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया था।
अयोध्या में कारसेवकों द्वारा विवादित ढांचे का विध्वंस
1992 के राम जन्मभूमि आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण वीडियो में से एक अयोध्या में राम जन्मभूमि स्थल पर बलपूर्वक बनाए गए विवादित ढांचे का विध्वंस है। एक राष्ट्रव्यापी अभियान के बाद, कारसेवकों के नाम से जाने जाने वाले हिंदू कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों के एक समूह ने परिसर में प्रवेश किया और विवादित इमारत को ध्वस्त कर दिया, जो सदियों से इस्लामी हमले का प्रतीक था, जो हिंदू आस्था के लिए सबसे पवित्र मैदानों में से एक के शीर्ष पर खड़ा था।
6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में भाजपा और विश्व हिंदू परिषद द्वारा बुलाई गई एक रैली में देश भर से लगभग 150,000 कारसेवक शामिल हुए। आख़िरकार, बड़ी संख्या में आरोपित कारसेवकों ने राम जन्मभूमि के भारी किलेबंद परिसर पर धावा बोल दिया, जहाँ विवादित ढांचा खड़ा था और उसे ज़मीन पर गिरा दिया।
1949: मस्जिद के अंदर मूर्तियाँ
साल 1949 – भारत के आज़ाद होने और संविधान लागू होने के बीच का वक़्त था। केंद्र में सत्ता में थे पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत थे। इसी साल कांग्रेस और समाजवादियों में टूट की वजह से अयोध्या में उप-चुनाव हुए, जिसमें हिंदू समाज के बड़े संत बाबा राघव दास को जीत मिली। उनके विधायक बनते ही हिंदू समाज के हौसले बुलंद हुए। बाबरी मस्जिद का मामला इससे पहले तक क़ानूनी लड़ाई से लड़ा जा रहा था। इस वक़्त तक इस मामले का राजनीतिकरण शुरू नहीं हुआ था।
बाबा राघव दास की जीत से मंदिर समर्थकों के हौसले बुलंद हुए और उन्होंने जुलाई 1949 में उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर मंदिर निर्माण की अनुमति माँगी। उत्तर प्रदेश सरकार के उप-सचिव केहर सिंह ने 20 जुलाई 1949 को फ़ैज़ाबाद डिप्टी कमिश्नर केके नायर से जल्दी रिपोर्ट माँगते हुए पूछा कि वह ज़मीन नजूल की है या नगरपालिका की।
सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह ने 10 अक्तूबर को कलेक्टर को अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें उन्होंने कहा कि वहाँ मौक़े पर मस्जिद के बग़ल में एक छोटा-सा मंदिर है। इसे राम जन्मस्थान मानते हुए हिंदू समुदाय एक सुंदर और विशाल मंदिर बनाना चाहता है। सिटी मजिस्ट्रेट ने सिफ़ारिश की कि यह नजूल की ज़मीन है और मंदिर निर्माण की अनुमति देने में कोई रुकावट नहीं है।
हिंदू वैरागियों ने अगले महीने 24 नवंबर से मस्जिद के सामने क़ब्रिस्तान को साफ़ करके वहाँ यज्ञ और रामायण पाठ शुरू कर दिया, जिसमें काफ़ी भीड़ जुटी। झगड़ा बढ़ता देखकर वहाँ एक पुलिस चौकी बनाकर सुरक्षा में अर्धसैनिक बल पीएसी लगा दी गई।
पीएसी तैनात होने के बावजूद 22-23 दिसंबर 1949 की रात अभय रामदास और उनके साथियों ने दीवार फाँदकर राम-जानकी और लक्ष्मण की मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रख दीं और यह प्रचार किया कि भगवान राम ने वहाँ प्रकट होकर अपने जन्मस्थान पर वापस क़ब्ज़ा प्राप्त कर लिया है।
कई जानकारों की राय है कि कोर्ट से जो मामला सुलझाने की कोशिश पहले चल रही थी, इस तरह मूर्ति स्थापना की वजह से पूरा मामला विवादित ढाँचे में तब्दील हो गया और मंदिर बनाने का एक संकल्प उस दिन जो साधु-संत समाज ने लिया, उसकी पूर्ति के लिए आगे रास्ते बनाते गए।
अगले शुक्रवार को मुस्लिम समुदाय के लोग सुबह की नमाज़ के लिए आए, लेकिन प्रशासन ने उनसे कुछ दिन की मोहलत माँगकर उन्हें वापस कर दिया। कहा जाता है कि अभय राम की इस योजना को गुप्त रूप से कलेक्टर नायर का समर्थन प्राप्त था। वह सुबह मौक़े पर आए, तो भी अतिक्रमण हटवाने की कोशिश नहीं की, बल्कि क़ब्ज़े को रिकॉर्ड पर लाकर पुख़्ता कर दिया।
पूरे विवाद की असल शुरुआत यहीं से हुई, ऐसा कई जानकार मानते हैं। जब भारत के प्रधानमंत्री को इस बात की जानकारी मिली, तो उन्होंने मुख्यमंत्री पंत को तार भेजकर कहा, “अयोध्या की घटना से मैं बहुत विचलित हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि आप इस मामले में व्यक्तिगत रुचि लेंगे। ख़तरनाक मिसाल क़ायम की जा रही है, जिसके परिणाम बुरे होंगे। इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव ने कमिश्नर फ़ैज़ाबाद को लखनऊ बुलाकर डाँट लगाई और पूछा कि प्रशासन ने इस घटना को क्यों नहीं रोका और फिर सुबह मूर्तियाँ क्यों नहीं हटवाईं?
ज़िला मजिस्ट्रेट नायर ने इसका उल्लेख करते हुए चीफ़ सेक्रेटरी को लंबा पत्र लिखा, जिसमें कहा कि इस मुद्दे को व्यापक जन समर्थन है और प्रशासन के थोड़े से लोग उन्हें रोक नहीं सकते। अगर हिंदू नेताओं को गिरफ़्तार किया जाता तो हालात और ख़राब हो जाते। बाद में पता चला कि नायर जनसंघ से जुड़े थे और आगे चल कर जनसंघ की टिकट पर वो लोकसभा का चुनाव भी लड़े थे।
बाबरी मस्जिद विध्वंस और राम जन्मभूमि आंदोलन को 80 के दशक से कवर करने वाली पत्रकार नीरजा चौधरी मानती हैं कि पूरे आंदोलन में यही सबसे अहम दिन था। बाद में हाई कोर्ट में भी सुनवाई के दौरान ये बात कही गई कि अगर उसी समय ये मूर्तियाँ तुरंत ही हटा दी जाती, तो विवाद इतना लंबा नहीं खिंचता। विवाद बढ़ता देख इस पूरी ज़मीन की कुर्की कर ली गई।
1984: वीएचपी का विकास और विस्तार
“अयोध्या विवाद: एक पत्रकार की डायरी” लिखने वाले अरविंद कुमार सिंह कहते हैं कि 1949 से लेकर 1984 तक के 35 साल कुछ एक घटनाओं को छोड़ दिया जाए, तो शांतिपूर्ण ही बीते। लेकिन 1984 में एक साथ कई घटनाएँ हुईं, जिनकी वजह से राम मंदिर आंदोलन की नींव तैयार हुई। हालाँकि वीएचपी का गठन 60 के दशक में हो चुका था, लेकिन उसका विकास और विस्तार इसी साल ज़्यादा हुआ। इसी साल वीएचपी ने एक धर्म संसद का आयोजन किया, जिसमें ये संकल्प लिया गया कि राम जन्म भूमि को मुक्त कराना है।
इसके बाद से ही इस आंदोलन में संत-महात्मा शामिल हुए। लेकिन कोई बहुत बड़ा नाम उस वक़्त उनके साथ नहीं आया था। 1984 तक कोई बड़े शंकराचार्य, वीएचपी के साथ लाने की तमाम कोशिशों के बाद भी राम जन्म भूमि के आंदोलन में शामिल नहीं हुए थे। हालाँकि अशोक सिंघल इन सबसे मिलते भी रहे, लेकिन बहुत लाभ नहीं हुआ।
पत्रकार अरविंद कुमार सिंह कहते हैं, “इससे पहले बाबरी मस्जिद का विवाद अदालतों में लड़ा जा रहा था और स्थानीय लोग ही इस मुक़दमे को लड़ रहे थे। वीएचपी के आने के बाद बाहर के लोग इस आंदोलन से जुड़ने लगे। इसी साल राम जानकी रथ यात्रा भी निकाली गई। 27 जुलाई 1984 को राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ। एक मोटर का रथ बनाया गया, जिसमें राम-जानकी की मूर्तियों को अंदर क़ैद दिखाया गया।
25 सितंबर को यह रथ बिहार के सीतामढ़ी से रवाना हुआ, आठ अक्तूबर को अयोध्या पहुँचते-पहुँचते हिंदू जन समुदाय में आक्रोश और सहानुभूति पैदा हुई। मुख्य माँग यह थी कि मस्जिद का ताला खोलकर ज़मीन मंदिर निर्माण के लिए हिन्दुओं को दे दी जाए। इसके लिए साधु-संतों का राम जन्मभूमि न्यास बनाया गया।
यह यात्रा लखनऊ होते हुए 31 अक्तूबर को दिल्ली पहुँची। उसी दिन इंदिरा गांधी की हत्या के कारण दो नवंबर को प्रस्तावित विशाल हिंदू सम्मेलन और आगे के कार्यक्रमों को स्थगित करना पड़ा। इसी दौरान बजरंग दल की भी स्थापना 8 अक्तूबर 1984 को अयोध्या में हुई।
बजरंग दल की आधिकारिक बेवसाइट के मुताबिक़ ‘श्रीराम जानकी रथ यात्रा’ को अयोध्या से प्रस्थान के समय तत्कालीन सरकार ने सुरक्षा देने से मना कर दिया। उस समय संतों के आवाहन पर विश्व हिन्दू परिषद की ओर से वहाँ मौजूद युवाओं को यात्रा की सुरक्षा का दायित्व दिया। श्रीराम के कार्य के लिए हनुमान सदा उपस्थित रहे हैं, उसी प्रकार आज के युग में श्रीराम के कार्य के लिए यह बजरंगियों की टोली ‘बजरंग दल’ के रूप में कार्य करेगी। और हुआ भी कुछ वैसा ही।
छह दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराने में बजरंग दल के कार्यकर्ता ‘सबसे आगे’
इसका राष्ट्रीय संयोजक विनय कटियार को बनाया गया था। विनय कटियार के कानपुर का होने के कारण राम मंदिर आंदोलन के दौरान बजरंग दल सबसे ज़्यादा कानपुर में ही फला-फूला। युवाओं को लगातार इससे जोड़ा गया। बजरंग दल का सूत्रवाक्य सेवा, सुरक्षा और संस्कार है।
श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के विभिन्न चरणों की घोषणा होती रही और बजरंग दल उस अभियान को सफलता पूर्वक करता गया। रामशिला पूजन, चरण पादुका पूजन, राम ज्योति यात्रा, कारसेवा, शिलान्यास आदि। चाहे 1990 की कारसेवा हो या फिर 1992 की कारसेवा, दोनों ही समय बजरंग दल ने बढ़ चढ़ का उसमें हिस्सा लिया। 1987 आते-आते वीएचपी ने देश में राम जन्म भूमि मूर्ति समितियों का गठन शुरू कर दिया। बाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया।
14 अक्तूबर 1984 को ही संत समाज ने मुख्यमंत्री से मिल कर आधिकारिक तौर पर मंदिर का ताला खोल कर मंदिर बनाने की माँग रखी। उस वक़्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी थे, जबकि अशोक सिंघल, महंत अवैद्यनाथ, रामचंद्र दास परम हंस मंदिर की माँग करने वाले संतों में शामिल थे। 1984 से 1986 के बीच वीएचपी की मुहिम की वजह से दूसरे संगठन भी मंदिर आंदोलन से जुड़े, जिनमें प्रमुख थे बजरंग दल, साधुओं का संगठन अखिल भारतीय संत समिति।
संत समाज के जुड़ने से आंदोलन को बहुत फ़ायदा हुआ। उनके प्रवचन में जाने से आम जनता, जिनको इस आंदोलन की जानकारी अब तक नहीं थी, वो भी इससे जुड़ने लगे। घर-घर इस आंदोलन के बारे में बात पहुँचाने में ये दौर बेहद अहम रहा। कुंभ मेले और दूसरे धार्मिक अनुष्ठानों के ज़रिए ये काम संत समाज ने बख़ूबी पूरा किया। 1980 में बीजेपी के गठन के बाद पार्टी ने पहला आम चुनाव 1984 में लड़ा। तब बीजेपी को केवल दो सीटों पर ही कामयाबी मिली थी और बाद के दौर में बीजेपी इस आंदोलन में शामिल हुई।
1986 : जब मंदिर का ताला खुला
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो आम चुनाव हुए उसमें राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। एक फ़रवरी, 1986 को ज़िला न्यायाधीश केएम पांडेय ने महज़ एक दिन पहले यानी 31 जनवरी 1986, को दाख़िल की गई एक अपील पर सुनवाई करते हुए तकरीबन 37 साल से बंद पड़ी बाबरी मस्जिद का गेट खुलवा दिया था।
ताला खुलने से शांति व्यवस्था क़ायम रखने में कई परेशानी नहीं होगी
ये याचिका फ़ैज़ाबाद ज़िला अदालत में एक ऐसे वकील उमेश चंद्र पांडेय ने लगाई थी, जिनका वहाँ लंबित मुक़दमों से अब तक कोई संबंध नहीं था। ज़िला मजिस्ट्रेट और पुलिस कप्तान ने ज़िला जज की अदालत में उपस्थित होकर कहा कि ताला खुलने से शांति व्यवस्था क़ायम रखने में कई परेशानी नहीं होगी। इस बयान को आधार बनाकर ज़िला जज केएम पांडेय ने ताला खोलने का आदेश कर दिया। कई जगह ऐसी ख़बरें आई कि इसके पीछे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का हाथ है। लेकिन इसके प्रमाण नहीं मिलते।
80 के दशक से ही इन आंदोलनों को कवर करने वाली पत्रकार नीरजा चौधरी मानती हैं कि शाह बानो मामला और मंदिर का ताला खोले जाने की घटनाओं का आपस में संबंध है । मंदिर में ताला खुलने के घंटे भर के भीतर इस पर अमल करके दूरदर्शन पर समाचार भी प्रसारित कर दिया गया, जिससे यह धारणा बनी कि यह सब प्रायोजित था।
इसके बाद ही पूरे हिंदुस्तान और दुनिया को अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद का पता चला। प्रतिक्रिया में मुस्लिम समुदाय ने मस्जिद की रक्षा के लिए मोहम्मद आज़म ख़ान और ज़फ़रयाब जिलानी की अगुआई में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन कर जवाबी आंदोलन चालू किया।
बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन भी इसी साल फरवरी में हुआ। यानी ताला खुलने के पहले मुस्लिम पॉलिटिक्स मंदिर के इर्द-गिर्द उतनी आक्रामक नहीं हो रही थी। इस घटना के बाद वो शांत पॉलिटिक्स भी गरमा गई।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नेताओं ने राजीव गांधी पर दबाव डाला
इस बीच मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नेताओं ने राजीव गांधी पर दबाव डाला कि एक तलाक़शुदा मुस्लिम महिला शाह बानो को गुज़ारा भत्ता देने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश संसद में क़ानून बनाकर पलट दिया जाए। राजीव गांधी सरकार ने इस फ़ैसले को उलटने के लिए सांसद में क़ानून पारित करा दिया। इस निर्णय की तीखी आलोचना हुई। हालाँकि दोनों मामलों को एक दूसरे से जोड़ने की बातों को पूर्व आईएएस अधिकारी वजाहत हबीबुल्लाह सही नहीं मानते।
बातचीत में उन्होंने कहा था, “बाबरी मस्जिद का ताला राजीव गांधी के कहने पर खुलवाए जाने और इसका इस्तेमाल शाह बानो मामले (मुस्लिम तुष्टीकरण) बनाम राम मंदिर करने की बात सरासर झूठ है। सच तो ये है कि पूर्व प्रधानमंत्री को एक फ़रवरी 1986 को अयोध्या में जो हुआ, उसका इल्म तक नहीं था और अरुण नेहरू को मंत्री पद से ड्रॉप किए जाने की यही वजह थी।
वजाहत हबीबुल्लाह, राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में तत्कालीन संयुक्त सचिव और दून स्कूल में उनके जूनियर थे। उन्होंने अपनी किताब ‘माई ईयर्स विद राजीव गांधी ट्रायम्फ़ एंड ट्रैजेडी’ में भी इस बात का ज़िक्र किया है। इस घटना के बाद दोनों ओर से सुलह समझौते की बातें भी इसी दौर में शुरू हुई। एक कोशिश की गई कि हिंदू मस्जिद पीछे छोड़कर राम चबूतरे से आगे ख़ाली ज़मीन पर मंदिर बना लें। लेकिन संघ परिवार ने इन सबको नकार दिया। हिंदू और मुस्लिम दोनों के तरफ़ से देश भर में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति चलती है। भाजपा खुलकर मंदिर आंदोलन के साथ आ गई।
1989 : लोकसभा चुनाव और मंदिर मुद्दा
साल 1989 नवंबर में लोकसभा के चुनाव होने थे। इसके लिए राजनीतिक पार्टियों ने साल की शुरुआत से ही माहौल बनाना शुरू कर दिया। अलग-अलग पार्टियों और संत समाज की ओर से जो भाषण दिए गए, उसकी वजह से हिंदू-मस्लिम के बीच दूरियाँ बढ़ती गई, नफ़रत और घृणा का एक माहौल बनने लगा था।
लेकिन अच्छी बात ये रही कि अयोध्या-फैज़ाबाद के इलाक़े में मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर दोनों समुदायों के बीच बहुत झगड़ा-फसाद नहीं हुआ। एक साल पहले बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने विवादित स्थल पर नमाज़ पढ़ने का ऐलान किया था, लेकिन सरकार के हस्तक्षेप के बाद उन्होंने अपना फ़ैसला वापस ले लिया था।
साल 1989 इलाहाबाद में कुंभ मेले का आयोजन हुआ था। वहाँ बड़ी संख्या में साधु संत जमा हुए थे। वीएचपी ने संतों का सम्मेलन आयोजित किया। वहीं पर 9 नवंबर 1989 को राम मंदिर शिलान्यास की पहली तारीख़ तय की गई। इसके बाद मई के महीने में 11 प्रांतों के साधुओं की हरिद्वार में मीटिंग हुई और उसमें मंदिर निर्माण के लिए चंदा जमा करने की बात हुई।
राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दा बन गया
भारतीय जनता पार्टी ने 11 जून 1989 को पालमपुर कार्यसमिति में प्रस्ताव पास किया कि अदालत इस मामले का फ़ैसला नहीं कर सकती और सरकार समझौते या संसद में क़ानून बनाकर राम जन्मस्थान हिंदुओं को सौंप दे। इसी के बाद ऐसा लगा कि अब यह राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दा बन गया गया है, जिसका असर अगले लोकसभा चुनाव पर पड़ सकता है।
उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करके अनुरोध किया कि चारों मुक़दमे फ़ैज़ाबाद से अपने पास मँगाकर जल्दी फ़ैसला कर दिया जाए। 10 जुलाई 1989 को हाईकोर्ट ने मामले अपने पास मंगाने का आदेश दे दिया। हाईकोर्ट ने 14 अगस्त को स्थगनादेश जारी किया कि मामले का फ़ैसला आने तक मस्जिद और सभी विवादित भूखंडों की वर्तमान स्थिति में कोई फेरबदल न किया जाए।
उत्तर प्रदेश सरकार ने यह कहकर 9 नवंबर को शिलान्यास की अनुमति दे दी कि मौक़े पर पैमाइश में वह भूखंड विवादित क्षेत्र से बाहर है। 1989 में कांग्रेस से बाग़ी वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल ने केंद्र में अगली सरकार बनाई। कांग्रेस चुनाव हार गई और वीपी सिंह बीजेपी और वामपंथी दलों के समर्थन से प्रधानमंत्री बने।
वीपी सिंह और जनता दल का रुझान स्पष्ट रूप से मुसलमानों की तरफ़ दिख रहा था। उस वक़्त उत्तर प्रदेश में समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे, जो पहले विश्व हिंदू परिषद के अयोध्या आंदोलन का विरोध कर चुके थे। 1989 में बीजेपी ने एक ऐसी सरकार का साथ दिया, जिसने वादा किया कि अयोध्या मामले के समाधान में वो मदद करेगी। लेकिन तत्कालीन पीएम वीपी सिंह ने मथुरा रैली में बीजेपी के साथ मंच साझा करने से इनकार कर दिया। इस लिहाज से भी ये साल बाबरी विध्वंस की कहानी का अहम पड़ाव माना जाता है।
1990 : लाल कृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा
इस वक़्त तक बीजेपी ने राम मंदिर आंदोलन को खुलकर अपने हाथ में ले लिया, जिसका नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी कर रहे थे। आडवाणी उस वक़्त बीजेपी अध्यक्ष थे।
वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री थे और 1990 की फरवरी में उन्होंने साधुओं की कमेटी बनाई और कहा कि 4 महीने में समस्या का समाधान करें। लेकिन इसमें देर हुई तो कार सेवा कमेटियों का गठन शुरू हो गया और 1990 के अगस्त महीने से अयोध्या में मंदिर के लिए पत्थर तराशने का काम शुरू हो गया, जो आज तक जारी है।
1990 में ही रामचंद्र दास परम हंस ने वो मुक़दमा वापस ले लिए, जो 40 साल पहले दायर किया गया था। इसके पीछे की वजह ये दी गई कि अदालत से न्याय मिलने की उन्हें उम्मीद नहीं है। तब तक इन्हें राम जन्म भूमि न्यास का अध्यक्ष बना दिया गया था।
बीपी मंडल की रिपोर्ट ने राजनीति में भूचाल ला दिया
सितंबर 1990 में आडवाणी की रथ यात्रा शुरू होने से एक महीने पहले देश में एक और बड़ी घटना हुई थी, अगस्त महीने में तब के प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने का ऐलान किया था। 10 साल से धूल खा रही बीपी मंडल की रिपोर्ट ने राजनीति में भूचाल ला दिया।
वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को दो तरफ़ से समर्थन प्राप्त था। एक ओर वामपंथी थे, तो दूसरी ओर थी भारतीय जनता पार्टी। दोनों वीपी सिंह सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी। मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने की वीपी सिंह की घोषणा ने बीजेपी को सकते में डाल दिया, राजीव गांधी ने तो वीपी सिंह की तुलना जिन्ना से करते हुए, मंडल आयोग की सिफ़ारिशों का ज़ोरदार विरोध किया। लेकिन बीजेपी ने राजीव गांधी की तरह तत्काल प्रतिक्रिया नहीं दी।
मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के दूरगामी राजनीतिक असर की काट के लिए बीजेपी ने ‘हिंदू एकता’ का नारा देते हुए राम मंदिर आंदोलन तेज़ कर दिया। 1990 के अंतिम चार महीनों में मंडल विरोध और मंदिर आंदोलन से पूरे देश का राजनीतिक माहौल गरमा गया। आडवाणी देश भर में माहौल बनाने के लिए 25 सितंबर 1990 को सोमनाथ मंदिर से रथ यात्रा पर निकले। 30 अक्तूबर तक रथ यात्रा अयोध्या पहुँचनी थी। वो ख़ुद कहते थे कि लोगों से ऐसी प्रतिक्रिया मिलने की उन्हें उम्मीद ही नहीं थी। उस दौरान लोग आकर उनके रथ की पूजा करते थे, पैर छूते थे, इसका अंदाज़ा उन्हें ख़ुद नहीं था।
आडवाणी को गिरफ्तार करके यात्रा रोक दी गई
सोमनाथ से दिल्ली होते हुए जब लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा बिहार में दाखिल हुई, तो धनबाद, राँची, हजारीबाग, नवादा होते हुए पटना पहुँची। पटना के गांधी मैदान में उन्हें सुनने के लिए क़रीब तीन लाख लोगों की भीड़ थी। लोग जय श्रीराम और सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएँगे- जैसे नारे लगा रहे थे। इस मीटिंग के बाद आडवाणी समस्तीपुर पहुँचे। वहाँ भी उन्होंने लोगों को संबोधित किया। जय श्रीराम के नारे लगे। उनके साथ क़रीब 50 हज़ार लोगों की भीड़ थी, जो समस्तीपुर में कहीं-कहीं रुकी थी।
इतने बड़े जन समर्थन के बावजूद बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने आडवाणी की रथ यात्रा रोक कर उन्हें गिरफ़्तार करने की योजना बनाई। ऐसे में बिना दंगा-फसाद हुए, उनकी गिरफ़्तारी बड़ी चुनौती थी। मुख्यमंत्री लालू यादव के आदेश पर आडवाणी को बिहार में 23 अक्तूबर को गिरफ़्तार करके रथयात्रा रोक दी गई।
गिरफ़्तारी के ठीक पहले आडवाणी ने एक सादे काग़ज़ पर राष्ट्रपति के नाम पत्र लिखा। उसमें लिखा था कि उनकी पार्टी विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले रही है। आडवाणी ने वो पत्र, गिरफ़्तारी के लिए पहुँचे अधिकारियों से पटना पहुँचाने का अनुरोध किया। वह पत्र पटना पहुँचाने की व्यवस्था कराई गई, जिसके बाद वीपी सिंह सरकार गिर गई।
30 अक्तूबर को लाखों कार सेवक अयोध्या पहुँचे
दूसरी तरफ़ मुलायम सरकार की तमाम पाबंदियों के बावजूद 30 अक्तूबर को लाखों कार सेवक अयोध्या पहुँचे। लाठी, गोली के बावजूद कुछ कार सेवक मस्जिद पर चढ़ गए। लेकिन अंत में पुलिस भारी पड़ी। प्रशासन ने कार सेवकों पर गोली चलवा दी, जिसमें 16 करसेवक मारे गए। हालाँकि हिंदी अख़बार विशेषांक निकालकर सैकड़ों कार सेवकों के मरने और सरयू के लाल होने की सुर्ख़ियाँ लगाते रहे।
मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम कहा जाने लगा, वे हिंदुओं में बेहद अलोकप्रिय हो गए और अगले विधानसभा चुनाव में उनकी बुरी पराजय हुई। नाराज़ बीजेपी ने केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया, फिर सरकार गिर गई। और फिर 6 दिसंबर 1992 को जो हुआ, वो सब जानते हैं। उस वक़्त राज्य में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और केंद्र में नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे।
तीनों ही घटनाएँ कांग्रेस के कार्यकाल में हुई
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि नेहरू के कार्यकाल में चाहे मूर्ति स्थापित करने की बात हो, या राजीव गांधी के कार्यकाल में ताला खुलवाने की घटना या फिर नरसिम्हा राव के ज़माने में बाबरी विध्वंस, तीनों ही घटनाएँ कांग्रेस के कार्यकाल में हुई।
वो इन्हें कांग्रेस की ग़लतियाँ मानती हैं और कहती हैं कि तीनों के लिए कांग्रेस ज़िम्मेदार थी। उनके मुताबिक़ आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद और बीजेपी की तरफ़ से आंदोलन को जो हवा मिलती गई, वो दूसरी वजह थी, जिसके कारण ये आंदोलन इतने साल चला और मस्जिद गिराई गई।
मुलायम सिंह यादव और वीपी सिंह के ज़माने में 1990 में जो कुछ हुआ, उसे नीरजा विध्वंस रोकने का प्रयास मानती हैं। उनकी राय में राज्य प्रशासन की सख़्ती की वजह से कोई बड़ी घटना वहाँ नहीं घटी। 1992 की घटना 1990 में हो सकती थी, लेकिन केंद्र और राज्य सरकार की वजह से नहीं हुई। (एएमएपी)