प्रदीप सिंह।
नैरेटिव कैसे बनता है, कैसे गढ़ा जाता है और उसको कैसे स्थापित किया जाता है, आज मैं आपको इसके बारे में उदाहरण के साथ बताऊंगा। खासतौर से लेफ्ट-लिबरल मीडिया और सेक्युलर ब्रिगेड कैसे बीजेपी विरोधी, हिंदू विरोधी, सनातन विरोधी नैरेटिव बनाते हैं और उसको स्थापित कर देते हैं जिसे हम, आप, सबलोग धीरे-धीरे सच मान लेते हैं। झूठ और सच का एक ऐसा मिश्रण बनाया जाता है जिसमें झूठ की हिस्सेदारी ज्यादा होती है और उसे लेकर हमको, आपको लगता है कि इससे बड़ा सच या इसके अलावा और कोई सच हो ही नहीं सकता।
बात करूंगा 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का। चुनाव नतीजे आने के बाद सपा-बसपा की सरकार बनी और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। जीत के बाद एक नारा लगा था-“मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम”। यह चुनावी जीत का नारा नहीं था, यह सनातन धर्म को नीचा दिखाने का मामला था, उसकी हार बताने का मामला था। चुनाव हो रहा था एक गठबंधन और एक पार्टी के बीच में। चुनाव में हार जीत होती रहती है। कोई पार्टी कभी जीतती है, तो कभी हारती है। मगर क्या उसके जरिये सनातन धर्म पर हमला किया जाए?जब बीजेपी जीतेगी तो सांप्रदायिकता की जीत होगी और जब हारेगी तो धर्मनिरपेक्षता की जीत होगी और सनातन धर्म के खिलाफ लोगों का एक तरह से रिजेक्शन होगा, यह बताने की कोशिश होती है। मैं आपके सामने तथ्य रख रहा हूं जिसका नतीजा आप खुद निकालिए।
पिछड़ों-दलितों के सर्वमान्य नेता थे मुलायम-कांशीराम
1993 में पहली बार सपा और बसपा का गठबंधन हुआ। 1992 में जनता दल से मुलायम सिंह यादव निकले और उन्होंने समाजवादी पार्टी बनाई। बहुजन समाज पार्टी उससे पहले से थी। यह याद रखिए कि यह वह दौर था जब कांशीराम उत्तर प्रदेश की सभी दलित जातियों के नेता थे। जिस तरह से आज मायावती की स्थिति हो गई है कि वह केवल जाटवों की नेता रह गई हैं, कांशीराम के साथ ऐसा नहीं था। उसी तरह से मुलायम सिंह यादव सभी पिछड़ी जातियों के नेता थे। जिस तरह से आज अखिलेश यादव सिर्फ यादवों के नेता हैं, वैसे नहीं थे। एक दलित समाज का सर्वमान्य नेता और दूसरा पिछड़ा वर्ग का सर्वमान्य नेता, दोनों मिले तो मुसलमानों को यह बात बताने की जरूरत नहीं रह गई किइनके साथ जाने पर ही बीजेपी को हराया जा सकता है। उत्तर प्रदेश की जो डेमोग्राफी है उस पर अगर आप ध्यान दें, तो दलित, पिछड़ा और मुस्लिमों का यह गठजोड़ जीत की सुनिश्चित गारंटी है। इसको कोई हरा ही नहीं सकता, यह ऐसा गठजोड़ था।मगर मैं बार-बार कहता हूं कि चुनावी राजनीति में दो तरह के सिद्धांत काम करते हैं। एक होता है अर्थमैटिक और दूसरा होता है केमिस्ट्री।
चुनावी अर्थमैटिक या केमिस्ट्री
अर्थमैटिक का सिद्धांत तब काम करता है जब दो या दो से अधिक पार्टियां मिलती हैं और उनका वोट शेयर जुड़ता है। मगर वह पूरा नहीं जुड़ता है, कुछ मात्रा में जुड़ता है। जिसके खिलाफ वे लड़ रहे होते हैं उसको नुकसान यह होता है कि कुछ जो मार्जिनल सीटें होती हैं जो 500, 1000 या 2000 वोटों से जीते हैं,उन सीटों को हारने की आशंका बढ़ जाती है। मैं यह बात विधानसभा चुनाव के बारे में कह रहा हूं। मगर जब केमिस्ट्री बनती है तब सभीपार्टियां जो गठबंधन में होती हैं, एक दूसरे को अपना वोट ट्रांसफर करती हैं और उनकी ताकत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। वह ताकत नजर आती है नतीजे में। नतीजे देखकर आप बता सकते हैं कि उस चुनाव में अर्थमैटिक काम कर रही थी या केमिस्ट्री। अब आप सोचिए कि अगर इन तीनों वर्गों की केमिस्ट्री मिली होती तो कितना बड़ा वोट शेयर होता। पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों की उत्तर प्रदेश में आबादी देखिए, तो उनके सामने कौन पार्टी टिक सकती है या कौन नेता टिक सकता है।
मंदिर आंदोलन पर कुर्बान हुई कल्याण सरकार
उस समय राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी के सर्वमान्य नेता थे अटल बिहारी वाजपेयी और प्रदेश में थे कल्याण सिंह। कल्याण सिंह 1991 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके थे। तब उत्तर प्रदेश का विभाजन नहीं हुआ था। विधानसभा की 425 सीट होती थी। 1991 में 425 में से 221 सीट भारतीय जनता पार्टी ने जीती थी और उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत सेपहली बार सरकार बनाई थी।उसके बाद 6 दिसंबर की घटना हुई, प्रदेश सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। यह सब आपको पता है,इसे दोहराने की जरूरत नहीं है। राम मंदिर के मुद्दे पर भाजपा ने प्रदेश में पहली बार बनी अपनी सरकार को कुर्बान कर दिया।इसके बाद 1993 में चुनाव हुआ और मुद्दा यह बनाया जा रहा था कि राम मंदिर का आंदोलन चलाने वाले जीतेंगे क्या?क्या 6 दिसंबर को जो कुछ हुआ उस पर जनता की मुहर लगेगी?मुहरतब लगेगी जब बीजेपी जीतेगी। चुनाव में इस तरह का कोई नैरेटिव नहीं था, लोग इस आधार पर वोट नहीं दे रहे थे कि 6 दिसंबर को जो हुआ उसके लिए भाजपा को पुरस्कृत किया जाए या उसके लिए दंडित किया जाए। इस आधार पर लोग वोट नहीं दे रहे थे लेकिन यह नैरेटिव गढ़ा गया, स्थापित किया गया और लोगों के मन में बिठा दिया गया।
भाजपा को मिला गठबंधन से ज्यादा वोट
यह तो एक बात हुई। दूसरी बात, उत्तर प्रदेश विधानसभा में देश के इतिहास में पहली बार एक गठबंधन की सरकार बनी और उसके बाद विधानसभा के अंदर मारपीट हुई, हिंसा हुई,लोगों के सिर फूटे, माइक तोड़कर फेंके गए, कुर्सी और मेज के हिस्से तोड़कर फेंके गए और विधानसभा के अंदर नारा लगता रहा- मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम। अब आप तथ्यों पर गौर कीजिए। 1993 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 33.3 फीसदी वोट मिले। 1991 में उसे जो वोट मिला था यह वोट उससे 1.68% ज्यादा था। अगर यह एक्सेप्टेंस थी, तो यह मानना चाहिए कि 6 दिसंबर को जो हुआ उसे उत्तर प्रदेश की जनता ने स्वीकार कर लिया। भारतीय जनता पार्टी की कुर्बान हुई सरकार के लिए लोगों ने उसे पुरस्कृत किया।मगर हमारा जो चुनावी सिस्टम है वह यह है कि जो सबसे ज्यादा सीटेंलाएगा वह जीता माना जाएगा। विधानसभा या लोकसभा जिसका भी चुनाव हो रहा हो सबसे ज्यादा सीटों वाले ही विजयी होंगे। सीटों की संख्या महत्वपूर्ण होती है वोट गौण हो जाता है। अब आप जरा गौर कीजिए कि सामाजिक रूप से इतने विराट गठबंधन यानी सपा और बसपा को मिलाकर 29.14% वोट मिले जो भाजपा से 4.16% कम वोट थे। कहा गया कि सपा- बसपा की केमिस्ट्री काम कर गई। आज भी इसका उदाहरण दिया जाता है।मगर वह सरकार कांग्रेस और जनता दल के समर्थन से बनी थी।
सीटों में भी पीछे रह गई सपा-बसपा
सपा और बसपा को कुल मिलाकर 176 सीटें मिली थी और बीजेपी को अकेले 177 सीटें मिली थी। बीजेपी कोगठबंधन से एक सीट ज्यादा मिली और वोट 4.16% ज्यादा मिला लेकिन नैरेटिव यह बनाया गया कि बीजेपी हार गई और आज तक यह चल रहा है। तीन दशक हो गए और हम, आप, सबलोग इस पर विश्वास करते हैं। इससे आप अंदाजा लगाइए कि नैरेटिव की ताकत क्या होती है। वह कैसे सच को झूठ और झूठ को सच में बदल देता है। आज तक कहा जाता है कि मुलायम और कांशीराम जैसे मिले थे वैसे सपा-बसपा फिर से मिल जाए, 1993 वाली केमिस्ट्री काम कर जाए तो बीजेपी को हराया जा सकता है। यह बड़ा सीधा सा अंकगणित बताया जाता है लेकिन चुनाव और राजनीति ऐसे नहीं चलती है। 2019 में भी नहीं हुआ। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा मिल गए और आरएलडी भी उनके साथ थी। इन तीनों का अगर आप सामाजिक समीकरण देखें तो यादव, मुस्लिम, दलित और जाटों का गठजोड़ जीत की गारंटी थी लेकिन भारतीय जनता पार्टी को 62 औरउसकी सहयोगी अपना दल को 2 सीट मिली यानी कुल 64 सीट मिली। जबकि पूरे विपक्ष को 16 सीटें मिली मिली जिसमें एक सीट कांग्रेस को और 15 सीट सपा-बसपा को मिली। बसपा को 10 और सपा को 5 सीटें मिली। याद रखिए कि 2014 में भी समाजवादी पार्टी को पांच ही सीट मिली थी। तब भी परिवार के ही ज्यादातर लोग जीते थे। समाजवादी पार्टी उससे एक सीट भी आगे नहीं बढ़ पाई।
मुसलमानों से बसपा को मिली संजीवनी
अब आप कहेंगे कि मायावती की तो बढ़ गई,शून्य से 10 पर पहुंच गई। बिल्कुल सही बात है। मायावती की समस्या यह है कि जब उन्होंने बीजेपी से गठबंधन किया और दो-तीन बार सरकार बनाई, तब से मुसलमान उनको शक की नजर से देखते हैं। उनके विरोधियों द्वारा, खासतौर से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी यह प्रचार करते हैं कि अगर बीएसपी को वोट दिया तो चुनाव बाद वह फिर भाजपा से मिल जाएगी और आपका वोट एक तरह से बीजेपी के लिए चला जाएगा। इसलिए मुसलमान बीएसपी को वोट नहीं देते।मगर जब सपा, बसपा और आरएलडी मिले तब मुसलमानों को लगा कि यहगठजोड़ बीजेपी को हरा सकता है इसलिए मुस्लिम वोट मिला। बहुजन समाज पार्टी को जैसे ही जाटव और मुसलमानों का वोट मिला, उसकी 10 सीटें आ गई। इन सभी सीटों का विश्लेषण कर लीजिए, सब की सब सीटें उन इलाकों से हैं जहां मुस्लिम आबादी बड़ी संख्या में है। अगर 2019 में मुस्लिम वोट बसपा को नहीं मिलता तो 10 सीटें नहीं मिलती लेकिन नैरेटिव 1993 का चलता है।
भाजपा-जदयू की केमिस्ट्री ने बनाया रिकॉर्ड
अब आपको बताता हूं दूसरा उदाहरण जो बिहार का है कि केमिस्ट्री कैसे काम करती है। 2010 का बिहार विधानसभा का चुनाव याद कीजिए। भाजपा और जनता दल (यू) का गठबंधन था और सामने आरजेडी थी। बिहार में मुस्लिम-यादव समीकरण बड़ा मजबूत है। इसके बावजूद विधानसभा की 243 सीटोंमें सेभाजपा-जदयू गठबंधन को 206 सीटें मिली जो एक रिकॉर्ड है। इतनी बड़ी संख्या में, इतने प्रतिशत में कभी किसी पार्टी को सीट नहीं मिली है। राजद जब से बनी है तब से लेकर अब तक सिर्फ एक बार पूर्ण बहुमत मिला है, वह भी 1995 में जब राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थी। उसके अलावा राजद को अपने दम पर कभी बहुमत नहीं मिला। जब केमिस्ट्री काम करती है यानी वोट एक दूसरे को ट्रांसफर होता है, तो उसका नतीजा 206 सीटों वाली जीत जैसा होता है। इसकी तुलना कीजिए 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव से। बिहार का जो सामाजिक समीकरण है उससे बड़ा समीकरण था उत्तर प्रदेश का। इसके बावजूद बहुमत तो छोड़िए,सपा-बसपा गठबंधन भारतीय जनता पार्टी से एक सीट पीछे ही रह गया। मगर आज तक नैरेटिव चल रहा है कि मुलायम और कांशीराम मिल गए थे तो सनातन धर्म को हरा दिया था।
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मोदी ने ध्वस्त किया मुस्लिम वोटों का वीटो
अब आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि नैरेटिव किस तरह से बनाया जाता है, चलाया जाता है और उसे स्थापित किया जाता है। इस पर हजारों लेख देश-विदेश में लिखे गए कि किस तरह से जातीय समीकरण के जरिये हिंदुत्व को हराया जा सकता है। धर्म को जाति हरा सकती है, यह स्थापित करने की कोशिश हुई।इसलिए बीजेपी को हराना है, हिंदुत्व को हराना है, उसके विस्तार को सीमित करना है तो भारत को जातियों में बांटों। जाति में बांटों तो वह सामाजिक न्याय है, धार्मिक एकता की बात करो, हिंदुत्व की, सनातन धर्म की बात करो तो वह सांप्रदायिकता है। यह नैरेटिव पिछले 75 साल में गढ़े गए हैं और वह स्थापित हो चुके हैं। हम और आप जो इससे दिल से सहमत नहीं होते हैं फिर भी मानते हैं कि हां भाई ऐसा हुआ है, ऐसा हो सकता है। इस पूरे नैरेटिव को 2014 में नरेंद्र मोदी ने ध्वस्त किया। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने मुस्लिम वोट के वीटो को जिस तरह से खत्म किया है वह हमारे आपके सामने है। उससे पहले कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता था, खासतौर से उत्तर प्रदेश जैसे राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कि मुस्लिम वोट जिसको नहीं मिलेंगे वह सत्ता में आ भी सकता है। नरेंद्र मोदी ने दो बार लोकसभा चुनाव में यह साबित किया है और तीसरी बार भी करने जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में भी दो बार प्रचंड बहुमत से यह साबित हो चुका है लेकिन जो नैरेटिव बनाने वाले हैं वह अभी तक इसको स्वीकार नहीं कर पाए हैं। उनकी जो यह अवधारणा है कि मुस्लिम वोट के बिना कोई नहीं जीत सकता उससे वह हटने को तैयार नहीं हैं।
जनता बार-बार यह संदेश दे रही है कि किसी एक धर्म की बात करोगे तो उसको तुष्टीकरण कहा जाएगा, उसको धर्मनिरपेक्षता नहीं कहा जाएगा। अगर बीजेपी धर्म की बात करेगी, हिंदुत्व की बात करेगी तो उसको धर्मनिरपेक्षता नहीं कहा जाएगा उसको सांप्रदायिकता कहा जाएगा।नैरेटिव की इस ताकत को समझिए और इसकी काट के लिए तैयार रहिए।नैरेटिव अगर सही हो तो उसको मानने में कोई बुराई नहीं है। अगर किसी की कमजोरी है तो उसे स्वीकार करने में हर्ज नहीं है लेकिन कमजोरी न हो और उसे कमजोर बताया जाए, जो कमजोर हो उसको ताकतवर बताया जाए यह नैरेटिव नहीं चलने देना चाहिए। इसलिए सारे तथ्यों पर विचार करने के बाद ऐसे नैरेटिव को ध्वस्त करने का प्रयास करना चाहिए।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)