डॉ. मयंक चतुर्वेदी
प्रत्येक शब्द के पीछे छिपे गहरे निहितार्थ
दुख यह सोचकर होता है कि काफिर शब्द के बारे में क्या ममता जानती नहीं हैं? सदियों से यह शब्द किन के द्वारा किन्हें संबोधित करने के लिए उपयोग में लाया जाता रहा है और आज भी उसी तरह से उपयोग में लाया जा रहा है; क्या यह भी वे नहीं जानती है? भारतीय ज्ञान परंपरा में शब्द को ब्रह्म की संज्ञा दी गई है, प्रत्येक शब्द के पीछे गहरे निहितार्थ छिपे रहते हैं। ऐसे में काफिर शब्द जिस अर्थ में उपयोग किया जाता है, उस अर्थ में यह शब्द इस्लाम में भाषायी दृष्टि से यह अरबी से आया है। इसका उपयोग उनके लिए होता है जिनका विश्वास इस्लाम में नहीं है। यदि इसके अधिक विस्तार में जाएं तो “वह व्यक्ति जो इस्लाम की मान्यताओं के अनुसार अल्लाह और उसके रसूल प्रोफेट मोहम्मद को नहीं मानता है। फिर चाहे वह किसी भी धर्म का हो और किसी भी धर्म की मान्यता के अनुसार ईश्वर में आस्था रखता हो उसके लिए इतिहास में “काफिर” शब्द का प्रयोग है। आसान भाषा में उन लोगों के लिए ये शब्द है जो गैर-मुस्लिम है। जो इस्लाम को नहीं मानते हैं।
ममता जैसे नेताओं की वजह से भारत एकत्व प्राप्त नहीं कर सकता
काफ़िर को लेकर जो पर्यायवाची प्राय: मिलते हैं वे भी इसी अर्थ में यही बता रहे हैं कि “अस्वीकार करने वाला”, “इनकार करने वाला”, “अविश्वास करने”, “ढ़कने वाला”, जो खुदा और कुरआन को न मानता हो और जो गैर-मुसलमान है। जो इस्लाम को नहीं मानें वे काफिर या कुफ्र हैं। काफिर का मतलब ‘मारने योग्य’ भी होता है। भाषायी दृष्टि से जिस सीएम के नाम में ‘ममता’ शब्द है ममत्व एवं मातृत्व की जिसमें झलक सभी को समान रूप से दिखनी चाहिए, वह ममता नाम रखने वाली मुख्यमंत्री जब विभेद पैदा करनेवाली बातें अपनी जुबान से निकालती हैं, तो लगता है कि भारत में जब तक इस तरह के नेता रहेंगे यह देश कभी एकत्व को प्राप्त नहीं कर पाएगा!
आम लोगों को भड़काने का काम करती है ममता
आश्चर्य होता है यह देखकर कि जिस समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत देश और दुनिया के तमाम देशों में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा की खुशियां मनाई जा रही थीं, उस समय में ममता पश्चिम बंगाल के आम लोगों को अपनी जहरीली जुबान से भड़काने का काम कर रही थीं। वह भी ‘सर्व धर्म समभाव’ नाम से बुलाई गई रैली में। यहां वे लोगों को कड़ी चेतावनी देते हुए बोली हैं कि जो बीजेपी का समर्थन करते हैं या उसे वोट देते हैं। उन्हें देखेंगे।…एक बात याद रखना, बीजेपी की मदद मत करो, बीजेपी का अगर तुम लोग मदद करोगे कोई, तो अल्लाह की कसम, आप लोगों को कोई माफ नहीं करेगा, हम तो माफ नहीं करेंगे। फिर आगे बोलीं, “जो काफिर हैं, वो डरते हैं, वो मरते हैं, जो लड़ते हैं वो जिंदा रहते हैं, वो बसते हैं, वो काम करते हैं।
नफरत के बीज बोने में लगी हुई ममता
जब सोशल मीडिया पर उनका यह विवादास्पद वीडियो आया तो लगा कि एक तरफ भारत की एकात्मता के जय घोष के स्वर अयोध्या से गुंजायमान होकर संपूर्ण विश्व को आनन्दित कर रहे हैं और दूसरी तरफ ममता जैसे लोग हैं जोकि अभी भी एक सामान्य जन में नफरत के बीज बोने में लगे हुए हैं । यहां सोचनेवाली बात यह भी है कि क्या इस तरह से ममता पहली बार बोल रहीं थीं? अनेक वीडियो सोशल मीडिया में मौजूद हैं जो बता रहे हैं कि ममता बनर्जी को बहुसंख्यक हिन्दू समाज से बहुत हैं, इस संदर्भ में उनके लिए गए रामनवमी निर्णय, हिन्दू साधुओं की पिटाई मामला या फिर हिन्दू विरोधी गतिविधियों पर मूक बने रहने के रूप में देखा भी जा सकता है। हर बार उन्होंने अपने आचरण से यही बताया है कि वे मुसलमानों को खुश रखने की राजनीति करती हैं।
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शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति को नहीं बोलनी चाहिए ऐसी भाषा
‘खेला होबे’ भी उनका इसी तरह का बयान है, सभी जानते हैं कि पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान ममता के द्वारा इस शब्द के बोले जाने के बाद पश्चिम बंगाल का क्या दृष्य था! पूरा बंगाल जल उठा था। वास्तव में आज ऐसे शीर्ष पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति से यह उम्मीद नहीं की जा सकती, बल्कि कहना चाहिए कि अन्य किसी को भी इस प्रकार की भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए जोकि समाज जीवन में वैमनस्यता का कारण बने। लेकिन ममता यहां जो इस प्रकार की भाषा का इस्तेमाल बार-बार कर रही हैं, उससे साफ है कि ममता को हिन्दुओं से सख्त नफरत है, वह तो वोट की, राजनीति की मजबूरियां हैं जो वह कई बार खुलकर नहीं बोल पाती हैं, भारत का संविधान है, कानून व्यवस्था है, उनके ऊपर केंद्र की सरकार भी है। अन्यथा तो पता नहीं ममता राज में पश्चिम बंगाल के हिन्दू समाज को कई बार वह अपनी सत्ता में रहते हुए डारेक्ट एक्शन से कब का पूरी तरह से कुचल चुकी होती!(एएमएपी)