सत्यदेव त्रिपाठी ।
इस बात से शायद ही कोई असहमत हो कि नसीरुद्दीन शाहजी एक आला दर्ज़े के अभिनेता हैं और हम जैसे तमाम लोग उनकी कला पे निसार हैं। कलाएं एक आदमी को बेहतर आदमी बनाने की सबसे सशक्त स्रोत हैं, जो जाति-धर्म-सम्प्रदाय, अमीर-गरीब… आदि दुनियावी पैमाने से मुक्त होकर इन्सान को सिर्फ़ इन्सान की हैसियत से देखने की दृष्टि देती हैं।
इस काम को अंजाम देने में अपनी जीवंतता और रू-ब-रूपन के चलते नाट्य व सिनेमा-कला सबसे कारगर ठहरती हैं। फिर नसीरजी तो यहाँ भी शुरू से ही यथार्थवादी याने सरोकार वाले कला-सिनेमा और नाट्य के पुरोधाओं की अगली पंक्ति में रहे हैं। मोहरा जैसी कुछ फिल्मों को बाद कर दिया जाये, तो सिने-संसार में इनके 80% से ज्यादा काम इसी तरह के हैं। इसलिए उनके विचार एवं प्रतिबद्धता (कमिटमेण्ट) को लेकर भी सन्देह की गुंजाइश नहीं बनती।
लव जेहाद पर वीडियो
सभी जानते हैं कि एक ज़हीन कलाकार की तरह शाह साहब जीवन व समाज को लेकर अपने सोच को समय-समय पर व्यक्त करते रहे हैं। ख़ासकर हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के मामले में वे बाकी कलाकारों के मुक़ाबले काफी मुखर रहे हैं और इधर के दिनों में तो वाचाल होने की हद तक। इसीलिए पिछले एक अरसे से वे एकाधिक बार विवाद में भी आते रहे हैं। इसी सन्दर्भ में अभी दो दिनों पहले ‘लव जेहाद’ को लेकर समाज-माध्यम (सोशल मीडिया) पर उनका एक वीडियो देखने-सुनने को मिला, जिसकी कैफियत को लेकर कुछ बातें कहने की अटाल्य जरूरत महसूस हो रही है।
सरताजे आलिम
नसीरजी ‘लव जेहाद’ को एक तमाशा कहते हैं, जो हिन्दुओं-मुसलमानों के बीच सामाजिक संवाद (सोशल इण्ट्रैक्शन) बन्द करने के लिए शुरू किया गया है। वे पूरे वक्तव्य में शुरू करने वालों का नाम नहीं लेते- बस, ‘ये लोग’, ‘वो लोग’ कहते हैं, जो किसके या किस-किस के लिए है, यह बात इतनी छिपी हुई भी नहीं रह जाती। उनका दावा है कि ‘शुरू करने वालों को जेहाद का मतलब ही नहीं मालूम’… तो ‘ये-वो लोग’ की ऐसी मूर्खता को पहचानने वाली नसीरजी की विद्वत्ता को दाद ही देनी पड़ेगी। फिर कहते हैं कि मुसलमानों की शादियों में आके पुलिस दूल्हे-दूल्हन को पकड़ ले जाती है, लेकिन पाती है कि दोनों मुसलमान हैं, तो छोड़ देती है और इस गलती के लिए माफी भी नहीं माँगती। यह कहके गोया वे सिद्ध कर रहे हैं कि मुसलमानों में सिर्फ़ सजातीय शादियां होती हैं- हिन्दू-मुस्लिम की जैसी कोई शादी होती ही नहीं। फिर वे अपना निजी उदाहरण देते हैं कि उन्होंने हिन्दू लड़की (रत्ना पाठक) से शादी की और धर्म-परिवर्तन नहीं कराया। उस जमाने में भी उनकी बिना पढ़ी-लिखी व बेहद रूढ़िवादी (ऑर्थोडॉक्स शब्द है उनका) माँ, जो पाँचो वक़्त नमाज़ पढती थीं, पूरा रोज़ा रखती थीं और हज भी कर आयी थीं, ने भी मान लिया कि जन्म व बचपन से सिखाया-माना गया धर्म बदला कैसे जा सकता है। कुल मिलाकर शाह साहब यह स्थापित कर देते हैं कि अमूमन हिन्दू-मुस्लिम की शादी होती नहीं और यदि होती है, तो धर्म-परिवर्तन होता नहीं। इस तरह शाहजी चुटकी बजाते भर में अपनी उक्त स्थापना कि ‘हिन्दू-मुस्लिम के बीच ‘सोशल एण्ट्रैशन’ को बन्द करने का तमाशा है लवजेहाद’ को साबित कर देते हैं और इसी के साथ स्वत: सिद्ध हो जाता है कि वे सरताजे आलिम हैं, जिसके महाज्ञान के सामने सिर्फ़ सज़्दा ही बचता और बनता है!
गैर मुस्लिम लड़की का कलमा पढ़े बगैर निक़ाह जाइज़ नहीं
अब शाहजी की इसी निजी मिसाल का अनुसरण करते हुए मैं भी एक अपना भोगा हुआ वाकया शाहजी के हुजूर में पेश कर दूं। मेरी मुँहबोली डॉक्टर बेटी है, जिसके पिता के अवसान के बाद मैं ही उसका अभिभावक रहा। उसने अपने मुस्लिम सहपाठी डॉक्टर (सर्जन) से शादी का प्रस्ताव रख दिया। यह भी बता दिया कि दोनों ही धर्म न बदलने पर दृढ़ हैं। मैंने दोनों के साथ लम्बी बातचीत की। लड़का बेहद अच्छा लगा और शादी के लिए मैं तैयार हो गया। थोड़े ना-नुकुर के बाद बिटिया की माँ-मामा-मामी भी तैयार हो गये। बच्ची की नानी-दादी वाली पुरानी पीढ़ी को बताया ही नहीं गया। वह 2012 का वर्ष था। लेकिन धर्मांतरण का प्रश्न आया लड़के के वालिद की तरफ से, जिसके बिना शादी न होगी, की चेतावनी के साथ। सांगली के पास गाँव के रहने वाले वे लोग नसीर साहब की अम्मी जैसे समझदार नहीं निकले। लेकिन बिटिया-दामाद अडिग थे। शादी का दिन तय हो गया और लगा कि लड़के के माँ-बाप शादी में नहीं आयेंगे। परंतु बेटे की मुहब्बत से बँधे आये- शायद इस कमासुत (डॉक्टर) बेटे को खो देने की मजबूरी भी रही हो! शादी कोर्ट में हुई थी। समारोह के नाम पर बस, रात्रिभोज आयोजित था और पूरे भोज के दौरान वृद्ध पिता धार-धार रोते रहे। तीन-चार बार पकड़ के बेसिन पर मुँह धुलाया मैंने। वे अपने को मना नहीं पा रहे थे। बार-बार यही कहते- मेरे तीनों भाई छूट जायेंगे, मैं बिरादरी-बाहर हो जाऊँगा। कोई भाई आया भी नहीं था। हमारे हिन्दू समुदाय में अन्तरजातीय विवाह वर्जित है- यह तो धर्मेतर भी था। ऐसी वर्जनाएं मुस्लिम समुदाय में नहीं है। लेकिन “मुस्लिम समुदाय में किसी गैर मुस्लिम लड़की का कलमा पढ़े बगैर निक़ाह जाइज़ नहीं माना जाता और इसे शरीअत के खिलाफ माना जाता है” (इस्लाम और मुसलमान : कुछ प्रश्न, कुछ जिज्ञासाएं- प्रो. अख़्तर उल वासे)। याने धर्मांतरण का पक्का विधान है। अब इसके इस-उस तरह के इस्तेमाल व परिहार दोनों हो सकते हैं, लेकिन इसका उत्स इसी विधान में निहित है। बाकी जो कुछ इसे लेकर हो रहा है, कहा-सुना जा रहा है, वह सब इसी का विकास-विलास है। अत: ‘लव जेहाद’ के उद्भव व विकास का यही मूल कारण है, से इनकार कदापि नहीं किया जा सकता। और हमारे प्रगतिशील आलिम नसीर भाई पूरे वीडियो में इस मूल वजह का नाम तक नहीं लेते- इससे लड़ना तो दूर, क्योंकि उन्हें तो घुमा-फिरा कर इसका ठीकरा ‘ये लोग-वो लोग’ के सर फोड़ना है।
फिर यह व्यावहारिक जिक्र वे क्या करेंगे कि ऐसी शादियों में अमूमन अधिकांशत: लड़का मुस्लिम होता है और लड़की हिन्दू, क्योंकि अभिजात व उच्च शिक्षित वर्ग के अलावा आम जीवन में बुरके की कठोर प्रथा काफी कड़ाई से कायम है- चाहे भले इसके पालन में पर्दे के पीछे या फिर भले सामने से ही, बड़ा कारण बनता है मर्द जाति का अहम। इसके चलते आम मुस्लिम समुदाय की लड़कियां सामने नहीं आतीं, जबकि हिन्दू लड़कियां ऐसे रूढ़ रवाज़ों (दूसरे बहुत से हैं) से मुक्त होने से व्यवहार में आ जाती हैं।
लड़का मुस्लिम, लड़की हिन्दू
फिर यह व्यावहारिक जिक्र वे क्या करेंगे कि ऐसी शादियों में अमूमन अधिकांशत: लड़का मुस्लिम होता है और लड़की हिन्दू, क्योंकि अभिजात व उच्च शिक्षित वर्ग के अलावा आम जीवन में बुरके की कठोर प्रथा काफी कड़ाई से कायम है- चाहे भले इसके पालन में पर्दे के पीछे या फिर भले सामने से ही, बड़ा कारण बनता है मर्द जाति का अहम। इसके चलते आम मुस्लिम समुदाय की लड़कियां सामने नहीं आतीं, जबकि हिन्दू लड़कियां ऐसे रूढ़ रवाज़ों (दूसरे बहुत से हैं) से मुक्त होने से व्यवहार में आ जाती हैं। बुरके होते, तो नसीरजी को रत्नाजी शायद नहीं मिलतीं और मेरी बिटिया को मुस्लिम प्रेमी नहीं मिलता। नसीर साहब को बुरके वगैरह की ऐसी दक़ियानूसियां शायद नहीं दिखतीं- कभी इन पर वे कुछ कहते नहीं दिखते। और अगर उन्हें लगता है कि बुरका-प्रथा जीवन में नहीं है, तो वे ‘सेक्रेट सुपरस्टार’ जैसी तमाम फिल्मों के खिलाफ भी क्यों नहीं बोलते, जिस क्षेत्र से वे सम्बद्ध भी हैं।
इकतरफे फलसफे और फैसले
मैं तो इसका भी भुक्तभोगी हूँ। विश्वविद्यालय की अपनी विभागीय सहकर्मी की 14-15 साल की भतीजी को एक दिन जुहू के बस स्टॉप पर बुरके में देखकर जब मैंने उनसे बात की, युनिवर्सिटी में उनके पढ़ाने के दायित्त्व का हवाला दिया, तो अल्पसंख्यक को नीचा दिखाने, उसे अपमानित करने (माइनॉरिटी ह्यूमिलिएशन) का मामला मेरे खिलाफ बनने चला, जिससे बचने के लिए बेहद आजिज़ी के साथ मुझे आइन्दा उनसे ऐसी बातें कभी न करने का कौल करना पड़ा। बहरहाल, हिन्दू लड़की और मुस्लिम लड़के की शादियों के बीसों उदाहरण मैं अभी दे सकता हूँ, लेकिन मेरे परिचय के दायरे में (जो बहुत छोटा भी नहीं है) अब तक एक ही उदाहरण मिला, जो 1990 के आसपास का है, जब चेतना कॉलेज की मेरी सहकर्मी ने एक हिन्दू लड़के से शादी की। कोई अड़चन आनी ही नहीं थी, क्योंकि हिन्दू लड़के की तरफ से धर्मांतरण की माँग आने का प्रश्न ही नहीं था। तो बवाल की जड़ यही धर्मांतरण है, जिसे नसीर भाई यूँ निगल जाते हैं, जैसे उसका कोई अस्तित्त्व ही न हो। और ऐसे अन्धाधुन्ध, मनमाने आकलन वाले इकतरफे फलसफे और फैसले देने वाले नसीर साहब पर भी निसार हो जाने का जी तो चाहता है!
बेवकूफ कहा ही नहीं बना भी रहे हैं
इस ‘लव-जेहाद’ की चर्चा को नसीरजी अचानक शादी के परिणाम- आबादी- पर ले जाते हुए कहते हैं- ‘मैं नहीं समझता कि कोई इतना बड़ा बेवक़ूफ होगा, जिसे वाक़ई लगेगा कि एक दिन मुसलमानों की तादाद हिन्दुओं से बढ़ जायेगी। (और हँसते हुए कहते हैं) इसके लिए मुसलमानों को किस तादाद में बच्चे पैदा करने होंगे! यह बात बिल्कुल ढकोसला है’। अब उन्होंने सीधे-सीधे बेवक़ूफ कह ही नहीं दिया, बेवक़ूफ बना भी रहे हैं; वरना वे भी जानते हैं कि आबादी बढ़ाने के लिए ‘लव-जेहाद’ की शादियों के भरोसे कोई नहीं हैं। अल्पसंख्यक कार्ड के नतीजे स्वरूप चार-चार शादियों की परवानगी और कितने भी बच्चे पैदा करने की छूट से तो आबादी यों भी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ ही रही है। बढ़ोत्तरी का अनुपात तो राष्ट्रीय स्तर पर आँकड़ों में बोल रहा है। और नसीर जी ने निजता की जानिब से बातें की हैं, तो उसी जानिब से कहूँ, जो कि कहीं और भी कह चुका हूँ कि मेरी पीढ़ी के साथ हमारे गाँव में इकले मुस्लिम घर के रसीद-बकरीदन दो ही भाई थे। आज लड़कियों को छोड़कर चौवालिस हुए हैं। नसीर भाई कल्कुलेट कर लें कि किस तादाद में बच्चे पैदा किये जा चुके हैं। गाँव के बाकी सभी हिन्दू घर इस अनुपात से कोसों दूर हैं। भारतीय राष्ट्रीयता के काग़ज़ी हिमायती बनने वाले लोग तब नहीं बोले कि सिर्फ़ हिन्दू आबादी से तो देश गरीब या अभावग्रस्त नहीं हो रहा है। तब भारतीयता का दम भरने वाले इन लोगों ने एक ज़ुबान नहीं कहा कि परिवार नियोजन और एक शादी का नियम हर भारतीय के लिए होना चाहिए। तो, मियां ढकोसला यह है। अवसरवाद यह है। तीन सौ सालों और सात पुस्तों से इस सरज़मीं पर रहने से हिन्दुस्तानी होने का हक़ जताने वाले नासीरुदीनों को तब ख्याल नहीं आता कि इस देश के सुख-दुख और नफे-नुक्सान में भागीदार होकर भारतीय होना होता है। आज जो ख्यालों के आदान-प्रदान (एक्सचेंज शब्द दिया है नसीर भाई ने) को बन्द करने की कोशिश का इल्जाम लगा रहे हैं, उनकी ज़ुबानें ऐसे मौकों पर सिल क्यों जाती हैं? तब कोई प्रोग्रेसिव नहीं रह जाता! सब मज़हबी हो जाते हैं।
सपने के टूटने की तोहमत ‘इन-उन’ पर
बस, हिन्दू लड़की से शादी करने में मज़हब को जरा बगल भी कर लेते हैं- कई-कई फलसफे बघार लेते हैं, समाज-विज्ञान की चादरें ओढ़ लेते हैं, इन्सानियत की दरियां बिछा लेते हैं। तादाद का अनुपात तो देख लिया नसीरभाई… और हिन्दू आबादी की बराबरी करने के लिए बच्चे पैदा करने की तादाद की जो बात आप कह रहे हैं, वह भी कोई बात नहीं है। अलग देश बनाने के लिए तो प्रतिशत का पैमाना बन चुका है। तब तो सचमुच के बहुत से भारतीय थे, देशभक्त थे, देश के लिए कुर्बान हुए लोग थे। लेकिन एक जिन्ना का तोड़ किसी को न मिला। उसी प्रतिशत को लेकर फिर कोई जिन्ना निकल आयेगा, तो आज क्या होगा? आज तो दोनों तरफ भुनाने वाले ही रह गये हैं। और जिन दो-चार सौ शायर-संगीतज्ञ…आदि कलाकार-देशभक्त रोज़ गिनाये जाते हैं और उनके बनाये भारत का या भारत के बनने में उनके योगदान का राग अलापा जाता है, सब धरे के धरे रह जायेंगे.। किसी का चोला बदल जायेगा, किसी के आत्मा की आवाज बदलने लगेगी, किसी को अपने जिन्नाओं के इमोशन्स सताने लगेंगे। नसीरजी एक हिन्दू लड़की से बिना धर्म बदले प्रेम-विवाह करके कौमी एकता व इन्सानियत की थाप रखने का दावा करते हैं और इसी दम पर उन्होंने भविष्य में हालात बदलने के सपने देखे थे। उस सपने के लिए कुछ और करना होता है। वह न करके उसके बदले हमारे नसीर भाई अपने सपने के टूटने की तोहमत ‘इन-उन’ लोगों पर लगाने के लिए ऐसे वक्तव्य दे रहे हैं, वीडियो जारी कर रहे हैं।
अपना उल्लू सीधा करने की बातें कहनी थीं
वीडियो खोलते ही नसीरजी सीधे शुरू हो जाते हैं, तो लगता है कि उन्होंने स्वत: ही वीडियो बनाके माध्यम पर डाल दिया है। लेकिन थोड़ी देर बाद एक आदमी भी दिखता है, जिससे मुखातिब होते पाये जाते हैं नसीरजी और बाद में वह आदमी एक सवाल भी पूछता है- ‘कोविड-19 के बाद की तस्वीर को लेकर’, लेकिन नसीर भाई उस सवाल को सुनते ही नहीं- कोविड व उसके बाद के हालात का नाम नहीं लेते। क्योंकि उन्हें तो अपना उल्लू सीधा करने की सारी बातें कहनी थीं। प्रश्नकर्त्ता तो काठ का उल्लू ही बनाया गया था- एक तकनीकी खानापूर्त्ति की गयी थी। नसीर भाई को तो पहले कभी की कही बात- पुलिस की हत्या और गाय की हत्या पर अपनी सफाई देनी थी। अपने पर डरने के आरोप को ख़ारिज़ करना था। गुस्से के नाम पर भड़ास निकालनी थी, जो सब नसीर भाई ने किया।
‘वह’ छवि टूटेगी, तब क्या होगा
इस मुखामुखम (संवाद) की शुरुआत नसीरजी के बेहतरीन कलाकर होने के शतप्रतिशत सही व सच से हुई थी। वह है और रहेगा- उसके मुरीद हम हैं और रहेंगे। लेकिन अंत भी उनके ही एक कलात्मक सच से करना मौजूँ होगा। उन्हीं की अदायगी में कलाकार का, फ़नकार- गुलफ़ाम हसन का एक सच, जो ‘सरफरोश’ में उघड़ा है। उसने भी अपने पुरखों के हवाले दिये हैं। उसके पुरखों ने जिस सरज़मीं पर हुकूमत की थी, उसके छिन जाने का उसे गुस्सा है। छिन जाना जायज़ है, पर उसका गुस्सा निजी कुण्ठा का है, सामंती मानसिकता का है। सामंतशाही खत्म हो जाने का नाजायज़ गुस्सा है। कुण्ठा व गुस्से के साथ उसे रंज भी है। इन सबने मिलकर उसके दिमाग में एक ख़लिश पैदा की है। उससे एक साज़िश रचवायी है, जो अंत में उघड़ती है। उसका कलाकार-छवि का दुरुपयोग सामने आता है। एक ज़हीन कलाकार का यह भी एक मनोविज्ञान है। नसीरजी के ऐसे वीडियो देखे जायेंगे। मेरा यह संवाद नहीं पढ़ा-सुना जायेगा। क्योंकि उनकी एक छवि है, जिसका इस्तेमाल अपने गुस्से व रंज निकालने के लिए सन्दर्भों से कटी हुई, बेसिर-पैर की बातें करके करना कैसा है? वह छवि हम जैसे मुरीदों से ही बनी है। इसमें हिन्दू-मुस्लिम सभी हैं। फिर वह किसी एक का प्रवक्ता कैसे हो सकता है! ऐसा करने से दशकों से हमारे मन में बनी-बसी वह छवि टूटेगी, तब क्या होगा, कैसा होगा!