चैतन्य भट्ट।
भाजपा ने लोकसभा चुनावी प्रचार का औपचारिक शंखनाद कर दिया है। पिछले गुरुवार भाजपा द्वारा जारी प्रचार गीत के बोल हैं : सपने नहीं हकीकत बुनते हैं, इसीलिए तो सब मोदी को चुनते हैं। स्पष्ट है, अगला चुनाव मोदी की के चेहरे पर ही लड़ा जाने वाला है। अनौपचारिक अभियान तो अयोध्या प्राण प्रतिष्ठा समारोह के साथ पहले ही शुरू हो गया था। वैसे भी मोदी शाह जोड़ी ने भाजपा को हर वक्त चुनावी मोड में रहने वाली ताकतवर चुनाव मशीनरी में बदल दिया है।
बुनियादी रणनीति से कोसों दूर विपक्षी गठबंधन
जहां तक विपक्षी गठबंधन इंडिया का प्रश्न है, वह सीट शेयरिंग जैसी बुनियादी रणनीति से भी कोसों दूर है। मोदी के खिलाफ चुनावी चेहरा भी तय नहीं है? नया राजनीतिक घटनाक्रम संकेत दे रहा है कि गठबंधन बिखरने लगा है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की एकतरफा चुनावी हार ने कांग्रेस के इस गठबंधन की धुरी बनने के प्रयासों पर पानी फेर दिया है और दूसरे दल उसे आंखें दिखाने लगे हैं।
बंगाल में ममता कह चुकी हैं कि वह गठबंधन में हैं मगर कांग्रेस, माकपा को एक भी सीट नहीं देंगी। वे जानती हैं कि पिछले बंगाल विधानसभा चुनाव में साफ हो चुकी ये पार्टियां उनका खेल बिगाड़ने की स्थिति में नहीं है। 2021 में मोदी का सफलतापूर्वक मुकाबला करने वाली ममता माकपा के ताकतवर जमीनी पार्टी नेटवर्क को हथिया चुकी हैं और शायद यह मानती हैं कि लगातार पराजयों से निराश कांग्रेस का परंपरागत मतदाता भाजपा विरोधी विकल्प के रूप में उनकी तरफ ही आएगा।
राजनीति का तापमान भांप कर येन-केन- प्रकारेण सत्ता में बने रहने की अद्भुत प्रतिभा वाले नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी हो गई चर्चा तो ये भी थी कि भाजपा ने उन्हें एनडीए का हिस्सा बनाने के बदले बिहार विधानसभा को भंग करने की शर्त रखी थी ताकि वहां लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हो सकें। मगर विधानसभा की अवधि में लगभग दो साल शेष हैं और नीतीश बाबू इसमें शायद राजी नहीं थे तब एन डी ए ने आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर अभी समझोता करना ही बेहतर समझा ।
भाजपा का इस बार 400 पार का लक्ष्य
भाजपा इस बार 400 पार नारे के साथ मैदान में है। पिछले चुनावों की बात करें तो जम्मू-कश्मीर से लेकर झारखंड और राजस्थान से लेकर बिहार तक के मुख्यतः हिंदी भाषी इलाकों में उसे 245 में से 183 और पश्चिमी राज्यों गुजरात और महाराष्ट्र में 74 में से 49 सीटें मिली थीं। असम बंगाल और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में उसे 63 में से 32 सीटों और उड़ीसा समेत शेष दक्षिण भारत राज्यों में 152 में से 38 सीटें मिली थीं। पंजाब,बिहार, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में वह विभिन्न दलों के साथ चुनावी गठबंधनों में थी। 400 पार के आंकड़े के लिए उसे उत्तर और पश्चिम भारत में तमाम सीटें जीतने के साथ साथ पूर्व और दक्षिण भारत से 100 सीटें जीतना होंगी।
दक्षिण भारत की 152 सीटों में से भाजपा के पास कर्नाटक और तेलंगाना मिलाकर 29 सीटें हैं, जहां अब कांग्रेस काबिज है। मोदी यक़ीनन अच्छे वक्ता हैं मगर भाषाई समस्या दक्षिण भारत में उनकी भाषण कला के आड़े आती है। बिहार की घनघोर जातिवादी राजनीति में राष्ट्रीय जनता दल दम रखता है। बंगाल में पिछले विधानसभा चुनाव में चले ममता बैनर्जी के जादू की चमक इतनी फीकी नहीं पड़ी है कि भाजपा सूपड़ा साफ़ करने का सोच सके। असम समेत अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में एंटी इंकंबेंसी और मणिपुर हिंसा जैसी समस्याएं सामने हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी अब भी प्रासंगिक हैं। इन हालातों में 400 पार का चमत्कार वर्तमान में तो संभव नहीं दिखता।
विपक्ष के पास कोई चेहरा नहीं
भाजपा यह चुनाव निश्चित तौर पर मोदी के चेहरे पर लड़ रही है। विपक्ष के लिए जरूरी है कि वह भी इस चेहरे का विकल्प लेकर मतदाताओं के पास जाए। ममता और केजरीवाल ने इंडिया गंठबंधन से मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाए जाने की बात कही थी। बात यक़ीनन पते की थी। खड़गे दलित हैं, गरीब किसान परिवार से हैं, बेहद वरिष्ठ राजनीतिज्ञ हैं और बेदाग छवि रखते हैं। अच्छे वक्ता हैं और हिंदी पर उनकी पकड़ जानदार है। भारत में पिछले 25 वर्षों से कोई दक्षिण भारतीय प्रधानमंत्री नहीं बना है इसलिए उनके नाम पर समूचा दक्षिण भारत एक हो सकता है। मगर यह पेशकश अन्य पार्टियों को छोड़िए, खुद कांग्रेस को रास नहीं आई है।
भाजपा के लिए ये हैं बड़ी चुनौतियां
भाजपा के दस वर्षीय शासन में हुई प्रगति में जहां करोड़पतियों की संख्या में रिकार्ड तोड़ बढ़त हुई है। वहीं सरकार को देश के 80 करोड लोगों को लगभग मुफ्त अनाज देने की जरूरत महसूस हो रही है। संपन्नता का यह असमानुपातिक वितरण बताता है कि सबका साथ सबका विकास के नारे के बावजूद विकास अभी भी बहुत हद तक आमजन तक पहुंचाने की आवश्यकता है। आईएमएफ के अनुसार भारत का सकल कर्ज सकल राष्ट्रीय उत्पाद से आगे निकल जाना वित्तीय अनुशासन के लिए खतरनाक संकेत है। महंगाई कम होने का नाम नहीं ले रही। मजबूरन रिजर्व बैंक को विकास प्रभावित होने की कीमत पर भी ब्याज दरें बढ़ाना पड़ रही हैं। वैश्विक उथल-पुथल अंतरराष्ट्रीय कारोबार पर गहरा असर डाल रही है। इसलिए चुनाव के बाद जनता को कड़े वित्तीय अनुशासन से उपजने वाली कठिन परिस्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए।(एएमएपी)