के. विक्रम राव ।
26 जनवरी 2021 : टीवी न्यूज स्क्रीन पर सुबह देखा कि लाल किले के प्राचीर के स्तंभ पर कटारवाली नारंगी—पीली पताका फहरा रही है। अचरज और आशंका हुई कि 75 वर्षों से लहराती तिरंगी ध्वजा कहा गुम हो गयी? इसे नेहरु ने 15 अगस्त 1947 को लगाया था। बदरंग झण्डे (बर्तानवी यूनियन जैक) को उतार कर।
मेरा दिमाग कौंधा कि कहीं खालिस्तान की राजधानी दिल्ली तो नहीं बन गयी? अब भारत की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा नोयडा हो गयी क्या? ख्याल मंडराने लगे कि इस ”किला मुबारक” में कोई दूसरा ईरानी लूटेरा नादिरशाह अफ्सार (किजिलबख्श) आ गया क्या? इन तरह—तरह की आशंकाओं के बीच पता चला कि दिल्ली सीमा पर अपना डेरा डाले कुछ लोग लालकिले पर चढ़ गये। दिल्ली पुलिस को अपना अमेरिकी मैस्सी फर्गूसन ट्रैक्टर चढ़ाकर खदेड़ दिया। वहां बने अवरोधों को ध्वस्त कर दिया? तब तक कई टीवी रिपोर्टरों और कैमरामैनों की कुटम्मस की बात पर्दे पर दिखी। अचरज तो हुआ कि यह सब हुआ कैसे? सुप्रीम कोर्ट के आग्रह पर दिल्ली पुलिस और ये किसान कहलाने वाली जमात में करार था कि वे तीन तयशुदा क्षेत्रों में ही जायेंगे। इनमें लालकिला इलाका और रिंग रोड नहीं था। गनीमत रही कि राजपथ तक ये प्रदर्शकारी नहीं पहुंच पाये वर्ना दुनिया समझती कि भारत में सिविल वार हो गया। फौज बुला ली गई है।
अब दिल्ली का आम निवासी जिद और अधिकार के साथ प्रश्न पूछेगा, उच्चतम न्यायालय और गृहमंत्रालय से, कि उसकी जनमाल को महफूज करना भारत सरकार का दायित्व है, तो कैसे यह कोताही हुई? ढाई महीने वह गतवर्ष शाहीनबाग के धरने के कारण पीड़ित रहा। अन्त में उच्चतम न्यायालय ने पल्ला झाड़ लिया, यह सुविचारित निर्देश देकर कि नागरिक के चलने—फिरने का मूलाधिकार निर्बाध होना चाहिये। तो आज फिर ऐसे अवरोध तथा आक्रमण कैसे सर्जाये गये?
किसान ! कौन है असली, कौन है नकली?
टीवी पर एक अन्य खबर मुम्बई से दिखायी गई। लाल झण्डा (संघर्ष का प्रतीक) लहराते हुए हजारों किसान 180 किलोमीटर का फासला पैदल तय कर मुम्बई के आजाद मैदान में रैली करने आये। पूरी तरह अहिंसक और शांतिमय। वे सब निर्धन, शोषित हलधर थे। शकल और लिबास से साफ दिख रहे थे कि वे सब धरती पुत्र हैं। उनके पास न दुपहिया वाहन था, न तिपहिया। इधर दिल्ली सीमा पर जमे और उधर आजाद मैदान में घास पर बैठे इन प्रदर्शनकारियों में गहरा अंतर दिखा। बड़ा दारुण तथा तीखा।
दिल्ली सरहद पर डटे कथित किसान पैन्ट—जर्किन, कोट पहने थे। उनके अमेरिकी ट्रैक्टर की कीमत बारह से पन्द्रह लाख रुपये की रही होगी। उनका आहार कई रपट के अनुसार पांच सितारा होटल जैसा था। गर्महवावाला एसी, रजाई, कम्बल अलग। एक अनुमान के अनुसार उनका कुल डीजल का खर्च करीब बावन करोड़ रुपये के आसपास होगा।
फिलहाल उनके ठाट—बाट देखकर लगा कि एक सदी के अंतराल में गांधीजी के चम्पारणवाले नील—खेतिहरों के समय से अब भारतीय कृषक लाख गुना सम्पन्न हो गया है। इन सबको देखकर शायद बापू अपनी पोशाक सुधार लेते। गुलाम भारत के दौरान उन्होंने विजयवाड़ा (आंध्र) के एक अधनंगे किसान को देखकर अपनी पोशाक फकीर जैसी बना ली थी। लंदन—शिक्षित बैरिस्टर, जिसके पिता करमचंद गांधी पोरबन्दर रियासत के धनी दीवान थे, ने तब संकल्प लिया कि वे भी कोहनी तक कुर्ता और नाभि से घुटने तक की धोती पहनेंगे। अपना कपड़ा खुद कातेंगे।
दिल्ली में किसानों का ट्रैक्टर तांडव, लालकिले में घुसे तिरंगे की जगह धर्म विशेष का झंडा लगाया
सारा मजा तो इन्हीं ने उठाया
दिल्ली सीमावाले इन समृद्धों को ऐसे तंग परिधान पहनने की आवश्यकता कभी नहीं उपजी होगी। उनको कृषि आय पर कर की माफी, खर्चे भी असीम बिना टैक्स के। बिजली भी रियायती दर जिसका सारा मजा तो इन्हीं ने उठाया। फार्म हाउस में करीब पचास एसी लगवाये। बिल फ्री है क्योंकि वे सब कृषिव्यय में शामिल है। वे नगदी फसल उगाते है। धान और गेहूं (कनक) खास है जो पानी ज्यादा सोखते हैं।
जब शरद पवार सरदार मनमोहन सिंह की काबीना में कृषि मंत्री थे तो उन्होंने कई बार पंजाब तथा हरियाणा के किसानों से लिखित आग्रह किया था कि कि दलहन, तिलहन, बाजरा आदि भी उगायें। वे नहीं माने।
दिल्ली सीमा पर डटे इन वैभवशाली ट्रैक्टरजीवियों के दीदार मात्र से यकीन हो जाता है कि उनकी समता विदर्भ, मराठवाडा, तेलंगाना, बुंदलेखण्ड, सौराष्ट्र आदि के किसानों से कई सदियों तक नहीं की जा सकती है। इन सूखाग्रस्त इलाकों से खबर आती रहती हैं कि आत्महत्या करना उनका प्रारब्ध है। बैंकऋण माफी के बावजूद उनका परिवार रात को चूल्हा नहीं जला पाता है। इसीलिये पैरों में छाले पड़ने के बाद भी वह 180 किलोमीटर पैदल चलकर मुंबई जाता है अपनी गरीबी से निजात पाने की कामना से। यूरिया का अभाव, जलस्तर घटने से उचित सिंचाई सुविधा न मिलना, ऊपर से बिचौलिये, सूदखोर महाजनों, अढ़तियों का सहज शिकार वह बनता हैं।
उनके दिन भी बहुरेंगे?
तो एक गणराज्य में ऐसी असमान दोतरफा कृषि नीति मोदी सरकार खत्म क्यों नहीं करती? सिर्फ इसीलिये कि वे लोग दूर विंध्याचल के उस पार हैं? दिल्ली घेर नहीं सकते? लालकिले पर कब्जा नहीं कर सकते? संसद भवन आने तक रेल का भाड़ा तक नहीं होता? मगर उनके दिन भी बहुरेंगे। इंकलाब उनका हथियार होगा। सोवियत रुस में भी किसानों के दो वर्ग थे : एक आम खेतिहर (रुसी भाषा में) ”मौजिक” और दूसरा ”कुलक” (सम्पन्न, बड़ी जमीन का मालिक)। समाजवादी क्रान्ति पर व्लादिमीर लेनिन ने कुलक का खात्मा कर दिया। इन हल की मूंठ और माटी से सने अधनंगे वंचित अन्नदाताओं को मुक्ति अब भारतीय लेनिन दिलवायेगा।
इन शोषित किसानों को प्रतीक्षा रहेगी एक अवतार पुरुष सहजानन्द सरस्वती की। वे अखिल भारतीय किसान संघ (1936) के संस्थापक थे। बिहार के अकाल—पीड़ित खेतिहरों के मसीहा रहे। गेरुआधारी थे। उसी दिन ये असली किसान होंगे कामयाब।
(लेखक की फेसबुक वाल से साभार)