‎किसानों ने सरकारी तंत्र को ‎विफल करने के ‎लिए अपनी तैयारी कर ली है। ‎‎दिल्ली कूच के आह्वान पर जहां भारी-भरकम बैरीकेड तोड़ने के ‎लिए मशीनों को साथ लेकर ‎किसान शंभू बॉडर पर पहुंचे हैं, वहीं ड्रोन को रोकने के ‎लिए ‎गुलेल व पतंग का इस्तेमाल कर रहे हैं।  दिल्ली कूच करने की घोषणा के तहत संयुक्त किसान मोर्चा (गैर राजनीतिक) नेता और सदस्य मंगलवार सुबह से ही शंभू और खनौरी बॉर्डर पर रणनीति बनाने में जुट गए। इसके तहत किसान कंक्रीट व भारी-भरकम बैरिकेड तोड़ने के लिए बख्तरबंद भारी मशीनरी लेकर किसान शंभू बॉर्डर पर पहुंचे हैं। इस दौरान एसएसपी पटियाला वरुण शर्मा भी मौके पर पहुंच गए हैं, उन्होंने पुलिस जवानों को संबोधित किया। इसके अलावा शूभू बॉर्डर पर आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए मेडीकल सहायता व इमरजेंसी बेड की व्यवस्था की गई है।

सरकार का प्रस्‍ताव ठुकराया

किसानों के ‘दिल्ली चलो’ आंदोलन को ठंडा करने के ‎लिए सरकार ने भले ही एमएसपी का ऑफर ‎दिया, ले‎‎किन ‎किसानों ने इसे ठुकरा ‎दिया है। केंद्र सरकार के प्रस्ताव को मानने से इनकार के बाद किसान बुधवार को फि‍र से दिल्ली जाने पर आमादा हैं। प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे किसानों द्वारा एमएसपी पर दालों, मक्का और कपास की खरीद के केंद्र के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। इसके कुछ घंटों बाद, किसान नेता सरवन सिंह पंढे़र ने केंद्र सरकार को चेतावनी दी है। उन्होंने कहा है कि ‘अब जो भी होगा उसके लिए वह जिम्मेदार होगी।’

क्‍यों नहीं मान रहे किसान?

उल्‍लेखनीय है कि तीन केंद्रीय मंत्रियों, पीयूष गोयल, अर्जुन मुंडा और नित्यानंद राय ने रविवार को चंडीगढ़ में चौथे दौर की वार्ता के दौरान किसानों को एक प्रस्ताव दिया था ‎जिसे इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। ‎किसानों का कहना है ‎कि सरकार ने हमें एक प्रस्ताव दिया है ताकि हम अपनी मूल मांगों से पीछे हट जाएं। ले‎किन अब जो भी होगा उसके लिए सरकार जिम्मेदार होगी।’ ‎किसान आंदोलन में भाग ले रहे किसान नेताओं ने सरकारी एजेंसियों द्वारा पांच साल तक ‘दाल, मक्का और कपास’ की खरीद एमएसपी पर किए जाने के केंद्र के प्रस्ताव को खारिज करते हुए कहा ‎कि यह किसानों के हित में नहीं है।

कहीं किसान आन्‍दोलन विपक्ष की उपज तो नहीं!

दूसरी ओर इस सब के बीच यह बड़ा प्रश्‍न खड़ा है कि आखिर अभी ये किसान आन्‍दोलन अचानक से हवा में कैसे उछला और इतनी भारी भरकम तैयारी के साथ किसान कैसे सड़कों पर उतर आए। इसके पीछे दरअसल जो वास्‍तविकता नजर आती है, वह यह है कि भारत अगले कुछ महीनों में दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव कराएगा। आने वाले हफ्तों में चुनाव की तारीख का भी ऐलान कर दिया जाएगा।  राजनीतिक पंडितों के मुताबिक, 2024 के आम चुनाव में एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बहुमत हासिल करता दिख रहा है। चूंकि लोगों का विश्वास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में अटूट है, इसलिए यह उम्मीद थी कि विपक्ष, विशेष रूप से कांग्रेस, आगामी आम चुनावों में एनडीए को नुकसान पहुंचाने के लिए एक परिदृश्य बनाने की कोशिश करेगी।

परिणामस्वरूप, किसान संगइन जो लगभग 16 महीने से दिल्ली की सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे और अंततः मोदी सरकार द्वारा तीन कृषि कानूनों को वापस लेने के बाद अपना आंदोलन बंद कर दिया था, उन्होंने दो साल बाद एक बार फिर से अपना आंदोलन शुरू कर दिया है। उन्हीं किसान गठबंधनों ने अब अपनी तथाकथित शेष मांगों पर दबाव बनाने के लिए एक और “दिल्ली चलो” मार्च का आह्वान किया है।

विरोध प्रदर्शन के असली इरादे का खुलासा

महत्वपूर्ण बात यह है कि ये तथाकथित प्रदर्शनकारी किसान बहुत जल्द बेनकाब भी हो रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, 14 फरवरी को किसान नेता जगजीत सिंह दल्लेवाल ने किसानों के विरोध प्रदर्शन के असली इरादे का खुलासा किया। रिपोर्ट के मुताबिक, उन्हें कथित तौर पर यह कहते हुए सुना गया कि राम मंदिर के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ा और इसे नीचे लाना होगा। यूट्यूब चैनल से बात करते हुए दल्लेवाल ने पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प का हवाला दिया और दावा किया कि यह पीएम मोदी और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकाल के उनके हुए पतन का संकेत है। अत: यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यह आंदोलन राजनीतिक मकसद से आयोजित किया गया है। इसका किसानों के हित से कोई लेना-देना नहीं है।’

इस विरोध प्रदर्शन में पहले दिन से लगातार हिंसा की भी खबरें आ रही हैं. 13 फरवरी को पंजाब-हरियाणा बॉर्डर पर किसान, पुलिस और मीडियाकर्मियों समेत करीब 60 लोग घायल हो गए थे।  प्रदर्शनकारी किसानों की ओर से पथराव किया गयाइसके चलते हरियाणा पुलिस ने शंभू बॉर्डर पर प्रदर्शनकारी किसानों को हिरासत में ले लिया। प्रदर्शनकारी किसानों ने एक पुल को भी क्षतिग्रस्त कर दिया और दिल्ली तक उनके मार्च को रोकने के लिए लगाए गए बैरिकेड्स को जबरन हटाने की कोशिश की।

प्रशासन के साथ आम लोगों के लिए भी बड़ी चुनौती बना किसान आंदोलन

पहले के प्रदर्शन की तरह इस बार भी किसानों का विरोध प्रदर्शन न सिर्फ प्रशासन बल्कि आम लोगों के लिए भी बड़ी चुनौती बन गया है।  किसानों के आंदोलन ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में यात्रियों का दैनिक जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है। एनसीआर में कड़े प्रतिबंधों की घोषणा की गई है। इसके परिणामस्वरूप दिल्ली-एनसीआर क्षेत्रों के आसपास के यात्रियों को भारी ट्रैफिक जाम से जूझना पड़ रहा है। पुलिस अधिकारियों ने किसानों को राजधानी में मार्च करने से रोकने के लिए टिकरी, सिंघू और गाज़ीपुर सीमाओं पर बैरिकेड की कई परतें लगा दी हैं। साथ ही राजधानी के ट्रैफिक मूवमेंट पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है।

सभी मांगों में एमएसपी चर्चा का मुख्‍य मुद्दा

अब यदि इस आंदोलन के दौरान किसानों की मांगों पर बात करें तो इन सभी मांगों में एमएसपी चर्चा का मुख्‍य मुद्दा बन गया है।  कई आर्थिक विशेषज्ञों ने सवाल उठाया है कि क्या किसी सरकार के लिए इस मांग को पूरा करना संभव है? आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि कृषि उपज का कुल मूल्य 40 लाख करोड़ रुपये (FY20) है। इसमें डेयरी, खेती, बागवानी, पशुधन और एमएसपी फसलों के उत्पाद शामिल हैं। कुल कृषि उपज का बाजार मूल्य 10 लाख करोड़ रुपये (FY20) है। इनमें 24 फसलें शामिल हैं जो एमएसपी के दायरे में शामिल हैं। FY20 के लिए, कुल एमएसपी खरीद 2.5 लाख करोड़ रुपये थी जो कुल कृषि उपज का 6.25 प्रतिशत है। यदि एमएसपी गारंटी कानून लाया जाता है, तो सरकार सालाना कम से कम 10 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च करेगी। 10 लाख करोड़ रुपये पिछले सात वित्तीय वर्षों में हमारे बुनियादी ढांचे पर किए गए वार्षिक औसत व्यय (67 लाख करोड़ रुपये, 2016 और 2023 के बीच) से भी अधिक है। इसलिए इस मांग को पूरा करना संभव नहीं है।

आज हकीकत यही है कि देश भर में चुनाव दर चुनाव हार रही कांग्रेस शुरू से ही किसान आंदोलन के नाम पर अपना वोट शेयर मजबूत करने की कोशिश करती रही है। 2020 में, भारत के उत्तरी भाग में, विशेषकर हरियाणा और पंजाब में किसानों का विरोध तेज हो गया, जब राहुल गांधी ने कृषि कानूनों के विरोध में 4 अक्टूबर से 6 अक्टूबर तक पूरे पंजाब में ट्रैक्टर रैलियों का नेतृत्व किया। इसके बाद, भारत विरोधी ताकतों ने इस विरोध को सरकार के खिलाफ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की।

किसान आंदोलन में कांग्रेस देख रही अपना राजनीतिक फायदा

अब इस बार फिर जब तथाकथित किसानों ने आंदोलन शुरू किया है तो कांग्रेस इसे अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। इस आंदोलन का समर्थन करते हुए, कांग्रेस पार्टी ने कहा कि वह विपक्ष के समर्थन के बाद फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी देने वाले कानून की उनकी प्रमुख मांग को पूरा करेगी। विडम्बना यह है कि यह वही कांग्रेस है जो पहले इस मांग पर सहमत नहीं थी। 2004-2006 के दौरान कई रिपोर्टों के माध्यम से, स्वामीनाथन समिति के राष्ट्रीय किसान आयोग ने एमएसपी पर अपनी सिफारिश की थी, जिसे तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने ‘प्रति-उत्पादकता’ का हवाला देते हुए सिफारिश को स्वीकार नहीं किया था।

2010 में, राज्यसभा में भारतीय जनता पार्टी के नेता प्रकाश जावड़ेकर ने यूपीए सरकार से पूछा था कि क्या वह किसानों को भुगतान की जाने वाली लाभकारी कीमतों की गणना के संबंध में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करेगी। जवाब में, तत्कालीन केंद्रीय कृषि, उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण राज्य मंत्री केवी थॉमस ने एक लिखित उत्तर में कहा था, “प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की सिफारिश की है।” (एमएसपी) उत्पादन की भारित औसत लागत से कम से कम 50 प्रतिशत या अधिक होनी चाहिए। जोकि केंद्र सरकार द्वारा दिया जाना संभव नहीं ।

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कांग्रेस की कथनी और करनी में फर्क

असल बात तो यह है कि सत्ता हासिल करने के लिए कांग्रेस अक्सर देश और उसके विकास से पहले परिवार को प्राथमिकता देने के वादे करती है। कांग्रेस की कथनी करनी उसके कर्मों से मेल नहीं खाती। इसके बड़े उदाहरण हिमाचल और कर्नाटक हैं, जहां पार्टी सत्ता में है। इन दोनों राज्यों में पार्टी बड़े-बड़े वादे करके सत्ता में आई, लेकिन वह लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल साबित हो रही है। इसी तरह से इस तथाकथित किसान आन्‍दोलन को लेकर भी यही दिखाई दे रहा है कि बाहर के लोगों और कुछ राजनीतिक दलों द्वारा समर्थित किसानों का विरोध आम चुनाव 2024 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी को रोकने की साजिश के अलावा और कुछ नहीं है। (एएमएपी)