श्रीश्री रविशंकर । 
आलोचना का असर मन पर क्या होता है। 
कैसा लगता है जब कोई तुम पर दोषारोपण करता है? सामान्यत: जब कोई तुमको दोष देता है तुम बोझिल और खिन्न महसूस करते हो या दुखी हो जाते हो। तुम आहत होते हो क्योंकि तुम आरोपों का प्रतिरोध करते हो। बाहरी तौर पर तुम विरोध न भी करो परंतु अन्दर कहीं जब तुम प्रतिरोध करते हो तो तुम्हें पीड़ा होती है। जब तुम्हें कोई दोष देता है तो साधरणतया तुम उलटकर उनको दोष देते हो या अपने भीतर एक दीवार खड़ी कर लेते हो।

एक आरोप तुमसे तुम्हारे कुछ बुरे कर्म ले लेता है। यदि तुम इसको समझो और कोई प्रतिरोध न खड़ा करते हुए इस बारे में खुशी महसूस करो तो तुम्हारा कर्म तिरोहित हो जायेगा। बाहरी तौर पर तुम विरोध कर सकते हो पर भीतर ही भीतर प्रतिरोध मत करो बल्कि खुश हो जाओ, “आहा, बहुत खूब, कोई है जो मुझ पर आरोप लगाकर मेरे कुछ बुरे कर्म ले रहा है।” और इस तरह तुरंत ही तुम हल्का महसूस करने लगोगे।
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आलोचना का स्वागत करो

धैर्य और विश्वास ही आरोपों से निपटने का रास्ता है। यह विश्वास कि सत्य की हमेशा विजय होगी और स्थिति बेहतर हो जायेगी। तुम चाहे कोई भी काम करो, कोई न कोई ऐसा होगा जो तुम्हारी गलती निकालेगा। जोश और उत्साह खोये बिना अपना काम करते रहो। एक प्रबुद्ध व्यक्ति अपने स्वभाव के अनुसार अच्छा कर्म करता रहेगा। उसका रवैया किसी की प्रशंसा अथवा आलोचना से प्रभावित नही होगा।
अपनी आत्मा के उत्थान के लिये और मन को आलोचना की प्रवृत्ति से बचाने के लिये आवश्यकता है कि तुम अपनी संगति को आंको। सोहबत का असर तुम्हें ऊपर उठा सकता है या नीचे गिरा सकता है। वह संगत जो तुम्हें शक, आरोपों, शिकायतों, क्रोध व लालसाओं की तरफ घसीटे, कुसंगत है। और वह जो तुम्हें आनंद, उत्साह, सेवा, प्रेम, विश्वास और ज्ञान की दिशा में आकर्षित करे, सुसंगत है।
एक अज्ञानी कहता है, “मुझे दोष मत दो क्योंकि इससे मुझे चोट पँहुचती है।” एक प्रबुद्ध व्यक्ति कहता है,”मुझे दोष मत दो क्योंकि इससे तुम्हें चोट पँहुचेगी।” यह बेहद खूबसूरत बात है। कोई तुम्हें दोषारोपण न करने की चेतावनी देता है क्योंकि इससे वे आहत होंगे और बदले की भावना से ग्रस्त होकर वह तुम्हें नुकसान पहुंचायेंगे। वहीं दूसरी तरफ, एक प्रबुद्ध व्यक्ति करुणा के कारण आलोचना न करने के लिये कहता है। रौब जमाने और दोषारोपण करने की प्रवृत्ति सम्बन्धों को नष्ट करती है। अत: तुम्हें पता होना चाहिये कि दूसरों की गलतियाँ निकालने या उन पर आरोप लगाने की बजाय कैसे दूसरों की प्रश़ंसा करें और एक परिस्थिति को बेहतर बनायें। तुम्हारी प्रतिबद्धता दूसरों को ऊपर उठाने के प्रति होना चाहिये। तभी तुम किसी के लिये भी सही व्यक्ति हो। तुम्हें सभी का प्रेम मिलेगा जब तुम उन्हें जानबूझकर आहत नहीं करोगे।

आलोचना और परिपक्वता

तुम यहाँ दोषारोपण या आलोचना करने के लिए नहीं हो। आलोचना दो किस्म के लोगों की तरफ से आ सकती है। जब उनमें संकीर्ण मनोवृत्ति होती है तो वे अपने अज्ञानवश आलोचना करते हैं। या फिर वे सचमुच तुम्हारे अन्दर कुछ अच्छा उभारना चाहते हैं। यदि आलोचना तुम्हारे अन्दर बदलाव लाने के प्ररिप्रेक्ष्य से आ रही है, तो तुम उन्हें उनकी करूणा के लिए धन्यवाद दो। तुम अपने में सुधार ला सकते हो क्योंकि उनकी आलोचना तुम्हें अपनी भूल का अहसास दिलाती है। यदि आलोचना तुम्हें नीचा दिखाने के परिप्रेक्ष्य से आ रही है, करूणामय बनो और उन्हे हँसी में टाल दो। दोनों स्थितियों में तुम्हे चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं।
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“निदंक नियरे राखिये आँगन कुटि छबाय, बिनु पानी बिनु साबुना निर्मल करे सुभाय।” भारत के महान संत कबीरदास ने कहा है कि जो तुम्हारी आलोचना करते हैं उन्हें अपने निकट रखो यह तुम्हारे घर, तुम्हारे मन को स्वच्छ रखेगा -साबुन और पानी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। यदि तुम्हारे आसपास सभी तुम्हारी प्रशंसा करते रहे तो वे तुम्हें तुम्हारी कमियाँ नहीं दिखायेंगे। वे लोग जो आलोचना करते हैं, प्रामाणिक हैं क्योंकि वे अपना दिल खोल कर सामने रख रहें हैं। आवश्यकता है कि तुम रचनात्मक समालोचना दे सको या स्वीकार कर सको। एक सुशिक्षित व्यक्ति न तो आलोचना से कतरायेगा न ही आलोचक से किनारा कर लेगा। तुम्हारी परिपक्वता का आकलन इस बात पर निर्भर करता है कि तुम आलोचना को कैसे सँभालते हो। आलोचना को स्वीकार करने की क्षमता तुम्हारे आत्मिक बल का मापदंड है।
(सौजन्य: दि आर्ट ऑफ़ लिविंग ब्यूरो ऑफ़ कम्युनिकेशन्स)