व्योमेश चन्द्र जुगरान ।
तेजी से गलते उत्तराखंड के ग्लेशियरों के बारे में सूचनाएं बहुत सीमित हैं। जिस भागीरथी के पानी पर टिहरी बांध का भविष्य टिका है, उसका उद्गम गोमुख ग्लेशियर ही हर साल करीब 17 मीटर की दर से सिकुड़ रहा है।
पीछे जाने के साथ मलबा आगे धकेल देते हैं ग्लेशियर
वैज्ञानिकों का एक बड़ा तबका ग्लेशियरों के गलने की वजह ग्लोबल वार्मिंग को मान रहा है हालांकि इसका कोई सारगर्भित अध्ययन सामने नहीं है। ग्लेशियर पीछे जाने के साथ ही मलबे को आगे धकेल देते हैं। यह मलबा मिट्टी-गाद के अलावा बड़े-बड़े शिलाखंडों के रूप में जमा होता रहता है और क्लाउड ब्रस्ट अथवा भूस्खलन जैसी हलचलों के कारण नदी-घाटी और इसके आसपास की आबादी पर कहर बनकर टूट पड़ता है। ऋषिगंगा-धौली गंगा घाटी में मची यह तबाही इसी का नतीजा मानी जा रही है जिसकी पुष्टि इसरो के सैटेलाइट चित्रों से भी हुई है।
बाधों की भंडारण क्षमता का मामला
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में होने वाली कुल बारिश का आधा हिस्सा महज 15 दिन में बरस जाता है और 90 प्रतिशत नदियों का प्रवाह सिर्फ चार महीने रहता है। ऐसे में बाधों की भंडारण क्षमता को बनाए रखना कठिन है। एक अन्य आकलन के मुताबिक उत्तराखंड हिमालय में हर साल 1240 से 1580 मि.मी. तक बारिश होती है। इसमें 150 मि.मी. सर्दियों के तीन माह में होती है। दिसंबर से फरवरी के बीच बरसने वाला यह पानी ही मानसून से पहले नदियों का प्रवाह बनाए रखता है। लेकिन पिछले कुछ सालों से इसमें कमी आ रही है जो कि इस क्षेत्र में बांधों की उम्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इकोलॉजिस्ट भी इस बात को मानते हैं कि हिमालयी क्षेत्र की भौगोलिक संरचना में जरा भी हेरफेर इकोलॉजी के जटिल तंत्र पर गहरा असर डाल सकता है।
कैसे हो ग्लेशियरों को हो रहे नुकसान की भरपाई
हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों का पिघलना एक नैसर्गिक प्रक्रिया है जो सदियों से जारी है। चिन्ता का कारण इस प्रक्रिया का आवेग है जो बर्फ के पुनर्चक्रण पर दबाव बढ़ाता जा रहा है। जरूरी है कि जिस मात्रा में बर्फ गल रही है, उससे अधिक मात्रा में यह प्राप्त हो। बर्फ का पुनर्चक्रण ही ग्लेशियरों को हो रहे नुकसान की भरपाई कर सकता है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि मानवीय स्तर पर इसके लिए क्या तैयारियां और कार्रवाईयां की जाएं? प्राधिकरण और कानून तो पहले से हैं। समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश व निर्णयों की नजीरें भी हैं। 24 जुलाई 2010 को तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने पर्यावरण सबंधी सवालों के लिए स्वतंत्र नियामक गठित करने का भी ऐलान किया था। इससे पहले 3 नवंबर 2008 को गंगा बेसन प्राधिकरण भी बन चुका है। साथ ही गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जा चुका है। इतना ही नहीं, मार्च 2017 में उत्तराखंड का हाईकोर्ट गंगा-यमुना नदियों को जीवित इकाई का दर्जा दे चुका है, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगाई हुई है।
ठोस अध्ययन और डाटाबेस का अभाव
पर्यावरणविद और विशेषज्ञ भी स्वीकार करते हैं कि हमारे नीति-नियंताओं के पास योजनाओं की कमी नहीं है लेकिन इनसे जुड़े ठोस अध्ययन और डाटाबेस का अभाव लगातार बना हुआ है। जाने-माने पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट इसी डाटाबेस की जरूरत पर जोर देते रहे हैं। वह कहते हैं कि स्थानीय लोक परंपराओं और लोकसंस्कृति में हिमालय संरक्षण का विचार कूट-कूट कर भरा गया था। हिमालय की संवेदनशीलता के प्रति हम इतना सजग थे कि बुग्यालों सहित इसके अंतरंग हिस्सों में लाल जैसे चटक रंगों और तेज आवाजों तक की मनाही थी। इसके लिए हमारे बुजुर्गों ने ऊंचे पवर्तों और घाटियों में आछरी यानी परियों की परिकल्पना की थी जो लाल रंग पर रीझ कर व्यक्ति को हर ले जाती थीं। बांसुरी बादक जीतू बगड्वाल से जुड़ी लोकगाथा आज भी पहाड़ के घर-घर में सुनी जा सकती है जिसे आछरियां हर ले गई थीं।
नई शक्ल लेते जा रहे खतरे
आधुनिकता के शोर में पुरानी परंपराएं नष्ट होती जा रही हैं और हिमालय के संरक्षण की अवधारणा व्यतिक्रम का शिकार हो रही है। श्री भट्ट बताते हैं कि बादल फटने के लिए करीब 100 मि.मी. बारिश एकसाथ चाहिए लेकिन लद्दाख में अगस्त 2010 में 45 से 50 मि.मी. पर ही बादल फट गया। जाहिर है खतरे नई शक्ल लेते जा रहे हैं। सबसे पहले हिमालय के संरक्षण को नियोजन का केंद्र बिन्दु बनाना होगा और वहां के ग्लेशियरों, झीलों, तालाबों की निगरानी के साथ-साथ जैव विविधता, परंपरा और प्रकृति के साथ तालमेल वाली वास्तुकला एवं निर्माण कला अपनानी होगी। श्री भट्ट के मुताबिक गंगा के बेसिन का सांगोपांग अध्ययन जरूरी है। पूरे देश में 63 प्रतिशत नदी बेसिन में अकेले 26 प्रतिशत गंगा बेसिन है जिसके आसपास 41 प्रतिशत आबादी बसती है।
कुकुरमुत्तों की तरह उग रही पनबिजली परियोजनाएं
पर्यावरण हितैषी शुरू से ही हिमालयी क्षेत्र में बांधों और अन्य निर्माणों को गंभीर खतरे के रूप में देखते आए हैं। जवाब में सरकारों के नजरिये में किसी गुणात्मक परिवर्तन के संकेत नहीं दिखे हैं। नतीजतन विकास और पर्यावरण के अंतर्संबंध की समझ विकसित होने की बजाय विवादित होती चली गई। अनेक बार अदालतों को बीच में आना पड़ा। 13 अगस्त 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने ‘अलकनंदा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट बनाम अनुज जोशी व अन्य’ के केस में अपना निर्णय सुनाते हुए उत्तराखंड में अलकनंदा व भागीरथी बेसिन में प्रस्तावित 24 परियोजनाओं पर रोक लगा दी थी। जस्टिस के. एस. राधाकृष्णन और जस्टिस दीपक मिश्रा ने अपने फैसले में उत्तराखंड के मौजूदा सूरत-ए-हाल के लिए जलविद्युत परियोजनाओं को जिम्मेदार ठहराया था जो कि अदालत के ही शब्दों मे ‘बगैर किसी ठोस अध्ययन के आनन-फानन मंजूर की जा रही हैं।’ सुप्रीम कोर्ट ने तब कहा था कि हम उत्तराखंड में कुकुरमुत्तों की तरह उग रही पनबिजली परियोजनाओं और उनके नदीजल संभरण क्षेत्र पर पड़ने वाले प्रभाव से चिंतित हैं।
क्यों तबाह हो गए ऋषिगंगा और तपोवन प्रोजेक्ट
अदालत के सम्मुख केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा कराए गए दो अध्ययन भी पेश किए गए थे जिनका सार था कि गंगा नदी के मौलिक स्वरूप यानी भागीरथी और अलकनंदा की तो हिफाजत हो ही, इनकी सहायक नदियों जैसे बाल गंगा, ऋषि गंगा, असी गंगा, धौली गंगा, बिरही गंगा और भ्यूंडार गंगा को भी बचाने के लिए पर्यावरण सुरक्षा के गंभीर उपाय किए जाएं। आकलन था कि इन तमाम बांध परियोजनाओं से भागीरथी पर 81 और अलकनंदा पर 65 प्रतिशत असर पड़ना तय है। ऐसी परियोजनाओं के भी खतरे गिनाए गए जिनके बीच आपसी दूरी कम है और जो नदी के प्रवाह के लिए बहुत कम जगह छोड़ रही हैं। ताजा उदाहरण ऋषिगंगा और तपोवन प्रोजेक्ट हैं जो इस आपदा में तबाह हो गए।
समिति बनी, रिपोर्ट आई, पर अमल नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में इसी कड़ी में राज्य सरकार, वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट, केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण, केंद्रीय जल आयोग और अन्य विशेषज्ञ संस्थाओं के प्रतिनिधियों की एक समिति बनाने के निर्देश दिए थे। इस समिति ने अप्रैल 2014 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में धौलीगंगा घाटी में प्रस्तावित परियोजनाओं पर रोक लगाने की मांग की थी। लेकिन हर बार की तरह यह रिपोर्ट भी आई-गई हो गई। तपोवन में धौली गंगा पर निर्माणाधीन 520 मेगावाट के पावर प्रोजेक्ट में हुई जन-धन की तबाही से साफ है कि ऐसी रिपोर्टों पर अमल नहीं हुआ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
उत्तराखंड में ग्लेशियर फटने से तबाही, डेढ़ सौ से ज्यादा लापता