ओशो ।

प्रश्न: मैं एक युवती के प्रेम में हूं। आप प्रेम के गीत गाते हैं, तो मन को अच्छा लगता है। हालांकि मैं जानता हूं कि आप किसी और ही प्रेम के गीत गा रहे हैं। फिर भी मैं उसे अपना ही प्रेम समझ कर प्रसन्न हो लेता हूं। मैं आपके भी प्रेम में हूं। अब मैं क्या करूं? सब छोड़-छाड़ कर संन्यास में डूबूं? या फिर आप जैसा कहें! मेरी उम्र अभी केवल छब्बीस वर्ष ही है।


सुरेंद्र! मैं जो कहता हूं, उसको तो तुम ठीक वैसा का वैसा तब समझ पाओगे जब तुम ठीक उस चैतन्य की दशा को उपलब्ध हो जाओगे जहां मैं हूं। उसके पहले भूल-चूक स्वाभाविक है। मैं कहूंगा कुछ, तुम समझोगे कुछ। इसको बहुत बड़ी समस्या न बनाना। मैं पुकारूंगा पहाड़ों से, तुम सुनोगे अपनी घाटियों से! और पहाड़ से आती आवाज घाटियों तक पहुंचते-पहुंचते बहुत रूपांतरित हो जाती है। उसका बहुत अनुवाद हो जाता है। कई अनुवाद हो जाते हैं।

तुम प्रेम की शिक्षा लेते हो फिल्मों से

तो मैं जब प्रेम के गीत गाऊंगा तो स्वभावतः तुम जिसको प्रेम समझते हो…और तुम किसको प्रेम समझते हो? वह जो तुमने हिंदी फिल्मों में देखा है। तुम्हें और प्रेम का पता भी क्या है? और तो प्रेम की कहीं कोई शिक्षा मिलती नहीं। फिल्में देख आते हो, उन्हीं से तुम प्रेम की शिक्षा लेते हो। और मजा यह है कि फिल्मों में जो लोग प्रेम का अभिनय कर रहे हैं, उनको मैं भलीभांति जानता हूं, उनमें से बहुत यहां आते हैं, उनको प्रेम का कोई पता नहीं है। वे सिर्फ प्रेम का अभिनय जानते हैं। उनकी जिंदगी में खुद भी प्रेम नहीं घट रहा है। उनकी जिंदगी में प्रेम बड़ा मुश्किल है।
यह जान कर तुम चकित होओगे, सारी दुनिया के अभिनेता और अभिनेत्रियां प्रेम के संबंध में बड़े असफल लोग हैं। पश्चिम की एक बहुत प्रसिद्ध अभिनेत्री मर्लिन मनरो ने आत्महत्या की, भरी जवानी में! और कारण? कितने प्रेमी उसे उपलब्ध थे! ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरों से लेकर अमरीका का राष्ट्रपति कैनेडी तक, सब उसके प्रेमी! तो भी वह प्रेम से वंचित थी। प्रेमियों की भीड़ से थोड़े ही प्रेम मिल जाता है। प्रेम तो एक आत्मीयता का अनुभव है, एक अंतरंगता का अनुभव है। प्रेम तो बड़ी कोमल घटना है। मनरो को हजारों प्रेमी थे, लाखों पत्र लिखने वाले थे। और फिर भी मरी, आत्महत्या कर ली। और कारण जो दे गई आत्महत्या का, वह यह था कि मेरे जीवन में प्रेम नहीं है, मैं प्रेम नहीं पा सकी, जीकर भी क्या करूं?

उनसे सीखोगे जो प्रेम नहीं कर पाए

इनसे तुम प्रेम सीखोगे। फिल्में तुम्हें प्रेम सिखा रही हैं। जहां प्रेम का कुछ भी नहीं है, जहां प्रेम का कोई अनुभव नहीं है। या तुम ऐसे कवियों के गीतों से प्रेम सीखते हो, जो प्रेम नहीं कर पाए और गीत गा-गा कर मन को समझा रहे हैं। जिनके जीवन में प्रेम तो नहीं घटा, तो किसी तरह गीत गा-गा कर सांत्वना ले रहे हैं। अक्सर ऐसा होता है, मनोवैज्ञानिक इस संबंध में राजी हैं, कि जो लोग बहुत ज्यादा प्रेम के गीत गाते हैं, ऐसे कवि, अक्सर वे ही लोग हैं जिनके जीवन में प्रेम नहीं घटता। प्रेम नहीं घटता तो उसकी कमी को कैसे पूरी करें? गीत गा-गा कर पूरी कर लेते हैं।
मैं प्रेम की बात करूंगा, तो मेरे प्रेम की बात कर रहा हूं। तुम प्रेम की बात समझोगे, तो तुम्हारे प्रेम की बात समझोगे।
फिर अभी तुम्हारी उम्र भी क्या? और इस उम्र में मैं यह भी न कहूंगा कि तुम किसी युवती के प्रेम में हो तो कुछ गलती में हो। न होते तो कुछ गलती होती; क्योंकि वह अस्वाभाविक होता। यह बिलकुल स्वाभाविक है। स्वभाव का मेरे मन में अति सम्मान है। प्रकृति मेरे लिए बस परमात्मा से एक कदम नीचे है–बस एक कदम। और प्रकृति के ही ऊपर सवार होकर कोई परमात्मा तक पहुंच सकता है, और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि प्रकृति सीढ़ी है, उसके मंदिर की सीढ़ी।

तो तुम्हारे जीवन में लक्ष्य खो जाएगा

तुम कहते हो: “मैं एक युवती के प्रेम में हूं। आप प्रेम के गीत गाते हैं, तो मन को अच्छा लगता है। हालांकि मैं जानता हूं कि आप किसी और ही प्रेम के गीत गा रहे हैं। फिर भी मैं उसे अपना ही प्रेम समझ कर प्रसन्न हो लेता हूं।’
ऐसा न करो! ऐसा धोखा न दो! तुम्हारा प्रेम भी मुझे स्वीकार है। मगर तुम, जिस प्रेम की मैं बात कर रहा हूं, उसको अपने प्रेम के साथ एक मत करो। ताकि तुम्हें विकास का अवसर रहे। एक तारा रहे आकाश में जगमगाता। तुम्हारा प्रेम मुझे अंगीकार है। तुम्हारा प्रेम सुंदर है, शुभ है। लेकिन प्रेम की अभी और भी ऊंचाइयां हैं, और भी मंजिलें हैं; प्रेम के अभी और भी निखार हैं। मेरे प्रेम को और तुम्हारे प्रेम को अगर तुमने एक ही कर लिया, तो तुम्हारे जीवन में लक्ष्य खो जाएगा। फिर गति न हो सकेगी, विकास न हो सकेगा। मैं तो तुम्हारे प्रेम को स्वीकार करता हूं–पहली सीढ़ी। मगर अभी मंदिर की बहुत सीढ़ियां हैं। और फिर मंदिर है, और मंदिर में विराजमान प्रेमरूपी परमात्मा है। वहां तक चलना है। तो वैसा धोखा अपने को मत देना। सांत्वना मत देना।

धोखा दे रहे हो तुम खुद को

आदमी अपने को धोखा देने में बहुत होशियार है। आदमी दूसरों को धोखा देने की बजाय अपने को धोखा देने में ज्यादा होशियार है। और कारण भी है। दूसरे को धोखा दोगे तो दूसरा बचने की कोशिश भी कर सकता है। अपने को ही धोखा दोगे, तब तो तुम बिलकुल असहाय हो गए, बचने को तो कोई है ही नहीं वहां। धोखा ही दे रहे हो तुम खुद को तो कौन बचे? किससे बचे?

दुश्मनों को भी कोई इतने धोखे नहीं देता, जितना आदमी अपने को दे लेता है। आखिर दुश्मन तो सावधान होता है। दुश्मन अपनी सुरक्षा करता है। तुम तो बिलकुल असुरक्षित हो। और अगर तुम खुद ही धोखा देने को तैयार हो, अगर तुम खुद ही अपनी जेब से पैसे चुरा रहे हो, तो कौन रोक सकेगा? कैसे रोक सकेगा?
और यह चलता है। बड़ी तरकीब से चलता है। हम अपनी जीवन-अवस्था को सर्वांग सुंदर मान लेते हैं। फिर कुछ करने को नहीं बचता।

तुम्हारा प्रेम बीज, मेरा सुवास

तुम जैसे हो, नैसर्गिक हो। मगर निसर्ग के भी और आयाम हैं। बीज नैसर्गिक है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि बीज अब बीज ही रह जाए। बीज को वृक्ष भी होना है। वृक्ष भी नैसर्गिक है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वृक्ष वृक्ष ही रह जाए। वृक्ष को अभी फूल भी खिलाने हैं। फूल भी नैसर्गिक हैं। मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि फूल फूल ही रह जाएं। फूल को सुगंध बन कर आकाश में उड़ना भी है। जब तक बीज, कंकड़-पत्थर जैसा दिखाई पड़ने वाला बीज, अदृश्य सुवास बन कर आकाश में न उड़ने लगे, तब तक तृप्त मत होना, तब तक सांत्वना मत खोजना।
तुम्हारा प्रेम बीज की तरह है। मेरा प्रेम, जिसकी मैं चर्चा कर रहा हूं, सुवास की तरह है। तुम्हारे बीज से ही आएगी वह सुवास, इसलिए तुम्हारे बीज का निषेध नहीं है, विरोध नहीं है; अंगीकार है, स्वीकार है, स्वागत है। लेकिन उस पर समाप्ति भी नहीं है।

मेरे साथ दो भूलें हो सकती हैं। एक तो भूल यह कि तुम समझ लो कि तुम्हारा प्रेम ही बस अंत। कुछ लोग ऐसी भूल करेंगे, कर रहे हैं। और दूसरी भूल कि मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, उसमें तुम्हारे प्रेम को कोई जगह ही नहीं है; तुम्हारे प्रेम के विपरीत है मेरा प्रेम। वैसी भूल भी सदियों से होती रही है। वैसी भी भूल कुछ लोग कर रहे हैं।
मैं जो कह रहा हूं, वह दोनों से भिन्न बात है। तुम्हारा प्रेम मेरे प्रेम में समाहित है। तुम्हारा प्रेम मेरे प्रेम में एक अंग है। लेकिन तुम्हारा प्रेम और मेरा प्रेम एक ही नहीं है।

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मेरा संन्यास पलायन का नहीं

ऐसा समझो कि एक वर्तुल खींचो तुम बड़ा और उसमें एक छोटा वर्तुल खींचो। तुम्हारा प्रेम छोटे वर्तुल की भांति है। छोटा वर्तुल बड़े वर्तुल में है, लेकिन बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल में नहीं है। ऐसी बात तुम्हें स्पष्ट रहे, तो भूल नहीं होगी, चूक नहीं होगी।

और कभी भी निंदा मत करना इस बात की। मेरे प्रेम में पड़े हो, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम जिसके प्रेम में हो, उसे छोड़-छाड़ कर संन्यासी हो जाओ। मेरा संन्यास छोड़ने, भागने, पलायन का संन्यास नहीं है। और अगर तुम्हारे हृदय में किसी युवती के प्रति प्रेम है, तो बुरा नहीं है कुछ, होना ही चाहिए। परमात्मा ने ऐसा चाहा है, इसलिए हो रहा है। यह तुम्हारा कोई कृत्य नहीं है। यह तुम्हारी प्रकृति की सहज अभिव्यक्ति है।

ठीक है। परमात्मा से जब मिलना हो कभी; हश्र के दिन, कयामत के दिन तो कह देना: इंसाफ! न्याय करो! तुमने ही तो सुंदर लोग पैदा किए थे। सुंदर स्त्री, सुंदर पुरुष, सुंदर फूल, सुंदर पक्षी, सुंदर चांदत्तारे, तुमने ही तो सौंदर्य पैदा किया था। और मेरे भीतर निगाह पैदा की थी, सौंदर्य को देखने की दृष्टि पैदा की थी। अब अगर मेरी निगाह सौंदर्य के प्रेम में पड़ गई और बंध गई, तो कसूर किसका है? इंसाफ चाहिए! अगर वासना पाप है, तो भी देने वाला तू है। तू मुझे कैसे दंड देगा? क्योंकि तूने ही तो वासना दी। तूने ही सौंदर्य बनाया, तूने ही निगाह दी और तूने ही प्रेम में पड़ने की क्षमता दी।
घबड़ाओ मत! तुम्हारा प्रेम कोई पाप नहीं है। इसलिए छोड़ने का कोई सवाल नहीं है। हां, तुम्हारा प्रेम अंत भी नहीं है। तुम्हारे प्रेम से अभी बहुत ऊंचे जाना है। तुम्हारे प्रेम को अभी बहुत ऊंचे जाना है। कीचड़ से कमल तक की यात्रा करनी है तुम्हारे प्रेम को।

परमात्मा को याद करोगे, प्रेयसी याद आएगी

तुम मुझसे पूछ रहे हो: “अब मैं क्या करूं? सब छोड़-छाड़ कर संन्यास में डूबूं? या फिर जैसा आप कहें!’
तुम अगर अभी संन्यास में डूब भी जाओ सब छोड़-छाड़ कर, तो डूब न सकोगे। संन्यास के लिए एक परिपक्वता चाहिए। उम्र का ही सवाल नहीं है। क्योंकि शंकराचार्य नौ वर्ष की उम्र में संन्यासी हो गए। लेकिन जन्मों-जन्मों की परिपक्वता पीछे होगी। बुद्ध उनतीस साल के थे, तब सब छोड़-छाड़ कर जंगल चले गए। जन्मों-जन्मों की परिपक्वता होगी। लेकिन साधारणतः जल्दी की कोई जरूरत नहीं है। अभी तुम संन्यास भी ले लोगे, तुम परमात्मा की भी याद करोगे, तो भी परमात्मा की याद में तुम्हारी प्रेयसी की याद झलक-झलक जाएगी। तुम प्रार्थना करोगे, लेकिन प्रार्थना में कहीं तुम्हारा हृदय, जो प्यासा रह गया है प्रेम का, वह रोएगा।

बड़ी भोर चुनने आती हो फूल श्वेत परिधान में/ पारिजात दालान में।
मिटता नहीं अंधेरा पूरा/ पूरा हो पाता न उजेला/ बीच रात के और सुबह के/ जो होती हो ऐसी बेला/ दिन शुभ जाता तुम्हें देख कर पहले पहल विहान में/ पारिजात दालान में।
ठीक देहरी पर हो वय की/ भीतर खड़ी न बाहर आई/ अभी अभी कैशोर्य गया है/ आई नहीं मगर तरुणाई/ परिचय नहीं हुआ है अब तक रूप और अभिमान में/ पारिजात दालान में।
नीरांजन सा दिप दिप करता/ कर्पूरी कौमार्य तुम्हारा/ प्यार और पूजा दोनों के/ ठीक बीच वह भाव हमारा/ मैं ईश्वर का ध्यान लगाता, तुम आती हो ध्यान में/ पारिजात दालान में।
अभी तुमसे कहूं, सुरेंद्र, छोड़-छाड़ कर सब आ जाओ, तो ऐसी अड़चन होगी- मैं ईश्वर का ध्यान लगाता, तुम आती हो ध्यान में/ पारिजात दालान में।

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जल्दी की जरूरत नहीं। और प्रेयसी परमात्मा के विपरीत नहीं है। प्रेयसी से द्वार जाता है परमात्मा तक। खूब प्रेम करो। प्रेम को परिशुद्ध करो–घृणा से, क्रोध से, ईष्या से, वैमनस्य से। क्रोध को सब तरह से शुद्ध करो, तो करुणा बन जाए। और काम को सब तरह से शुद्ध करो, तो राम बन जाए। और तुम अगर अपने प्रेम को, जिसे तुम अभी प्रेम कहते हो, शुद्ध करते चले जाओ, तो एक न एक दिन, जिसे मैं प्रेम कहता हूं, वह प्रेम बन जाएगा। न तो कहीं छोड़ो, न कहीं भागो। परमात्मा जो अवसर दे, उसका उपयोग करो।

इसी प्रेम से तुम्हें समझ आएगी

भागो मत! बजाओ बांसुरी! कि बजाओ सितार! कि ले लो अलगोजा! गीत गाओ! जीवन के, जीवन के आनंद के! प्रेम करो! जी भर कर प्रेम करो! क्योंकि इसी प्रेम से परिपक्वता आएगी। इसी प्रेम से तुम्हें समझ आएगी कि एक और भी प्रेम है जो इसके पार है। इसी प्रेम को कर-कर के दिखाई पड़ेगा कि यह प्रेम तो क्षणभंगुर है। पानी के बबूले जैसा–अभी बना, अभी मिटा। इसी प्रेम से स्वाद लगेगा उस प्रेम का जो शाश्वत है। यही प्रेम धीरे-धीरे तुम्हें एक दिन परमात्मा की देहरी तक ले आएगा। निश्चित ले आता है। ऐसा ही बुद्धों का सदा का अनुभव है।

डरो मत! भयभीत न होओ! जीवन के किसी भी अनुभव से कभी भयभीत मत होना। क्योंकि जो भी भयभीत हो जाता है, वह पक नहीं पाता, वह समृद्ध नहीं हो पाता। जीवन के सब रंग भोगो। जीवन के सब ढंग जीओ। जीवन के सारे आयाम तुम्हारे परिचित होने चाहिए। बुरा भी जानो, भला भी जानो। रातें भी और दिन भी। बहार भी और पतझार भी। ऐसे ही पतझार और बहारों के बीच चुनौतियों को झेलते-झेलते एक दिन तुम्हारे भीतर उस प्रेम का आविर्भाव होगा, जिसे परमात्म-प्रेम कहें।

और यही तो कठिनाई है कि इतने थपेड़े झेलने को लोग राजी नहीं। तो फिर वह परम अनुभूति भी हाथ नहीं आती। प्रेम-पंथ ऐसो कठिन! क्या कठिनाई है? यही कि तूफान झेलने पड़ते हैं, आंधियां झेलनी पड़ती हैं, अंधड़ झेलने पड़ते हैं। खड्डों में गिरना पड़ता है। बहुत-बहुत बार भूल-चूकें करनी होती हैं। बहुत-बहुत बार पछताना होता है। सारे पश्चात्ताप, भूलें, भ्रांतियां, इन सबकी अग्नि में गुजर कर ही तुम्हारा सोना कुंदन बनेगा। आज इतना ही।
(‘प्रेम पंथ ऐसो कठिन’ प्रवचनमाला के तेरहवें प्रवचन के सम्पादित अंश। यह प्रवचन ओशो ने 8 अप्रैल सन् 1979 को ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क, पूना में दिया था)


जब कोई उपाय न बचे तभी अंतिम घड़ी में इसे खोलकर पढ़ना, उससे पहले नहीं