सुप्रिया यादव।

मुम्बई रंग़-जगत में अभी 2018 में शुरू हुआ नाट्य समूह विभाव थियेट्रिकल सामाजिक सांस्कृतिक संस्था, पालघरअपने कार्यों से शहर के रंग़ जगत का ध्यान बड़ी तेज़ी से खींच रहा है। इसके पुरस्कर्त्ता हैं विवेक त्रिपाठी, जो हैं तो बनारस के, पर इस सदी के पहले दशक में मुम्बई विवि से थिएटर में स्नातक करके लगातार प्रमुख नाट्यकर्म लगे हैं। बस, ठीक से जीवन जी पाने के सहायक स्रोत के रूप में धारावाहिकों आदि में काम करते आ रहे है। ‘विभाव’ में इनके मुख्य सहयोगी हैं -कुंदन कुमार और गीता त्रिपाठी।

‘विभाव’ ने अपना पहला नाटक अपने जन्म-वर्ष (2018)में  किया था – ‘धुआं’, जो गुलज़ार साहब की कहानी पर आधारित था और पार्ले कोलेज वाले हॉल में हुआ उसका शो हमने देखा था। २०१९ में दूसरा नाटक भी आ गया –‘घर वापसी’, जिसे देखने की याद नहीं आ रही, लेकिन उसी वर्ष ‘हवनकुंड’ आया, जिसकी प्रयोगशीलता खूब भायी। परंतु उसी दौरान ‘कोरोना’ का संकट आ गया और सबकी तरह ‘विभाव’ की अपनी सहज गति भी धीमी पड़ी, लेकिन उस दौरान भी ऑनलाइन’ के ज़रिए ‘विभाव’ लोगों से जुड़ा रहा, उनका मनोरंजन करता रहा।

बंदी ख़त्म होने के बाद ‘विभाव’ ने मुंशी प्रेमचन्द जी की सुविख्यात कहानी ‘बड़े भाई साहब’ का मंचन किया, जो मेरे ख़याल से विवेक त्रिपाठी का पहले का भी किया हुआ था, जिसे एम॰ए॰ के दौरान अपने त्रिपाठी सर के आयोजनों एक से ज़्यादा बार देखा था। उसके बाद भी ‘विभाव’के नाम कई नाटकों के मंचन दर्ज़ हैं- ‘9thबी’, ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’, ‘पार्टनर’,‘चीफ़ की दावत’और अभी कुछ महीने पहले हुआ ‘एक रुका हुआ फ़ैसला’ के अलावा ‘अ फेयर अफेयर’ एवं ‘द सिडक्शन’। इस सूची को देखकर कहा ज़ा सकता है कि इस नये नाट्य समूह के काम की गति काफ़ी अच्छी है, क्योंकि इतने कम समय में में इतने नाटकों को कर पाना आसान नहीं है। ठीक है कि ये नाटक प्रायः छोटे-छोटे है, अधिकांश तो अनुवाद या फिर कहानियों के रूपांतर हैं, लेकिन नाटक करने की इच्छा, उसके लिए लगातार प्रयत्नों से यह साफ़ है कि आगे चलकर ‘विभाव’ हिंदी के कुछ अच्छे नाटक भी उठाएगा और अपनी सही और अपनी समझ व शैली से उन्हें सही अंजाम तक पहुँचाकर हिंदी रंग़-संसार को समृद्ध करेगा।


इतने कार्यों व अनुभवों के बाद पहली बार ‘विभाव’ ने यह नाट्योत्सव’ आयोजित किया है, जो करना हर नाटक वाले का सपना होता है। यह उत्सव 16 से 18 फ़रवरी, 2024 के दौरान मुम्बई के ‘क्रीएटिव अड्डा’ (आराम नगर, सातबंगला-वरसोवा)में सम्पन्न हुआ। इसमें चार नाटकों के साथ एक सांगीतिक कार्यक्रम भी प्रस्तुत हुआ। असल में ‘उत्सव’ की शुरुआत इसी रंगारंग सांगीतिक आयोजन से हुई, जिसने पूरे ‘उत्सव’ को ही गुलजार कर दिया। इसे ‘टहनियां’रंग़ समूह की तरफ से योगी और उनकेदल के रोहन, सर्जन सोनीआदि ने अपने साथी-सहयोगियों के साथ मिलकर किया, जिसमें गीत-संगीत के साथ कुणाल ने अपने लिखे नाटक ‘इमरोज’ के एक अंश का पाठ किया और रोहिताश्व ने स्वरचित कविताएँ सुनायीं।

इसके बाद उसी शाम ‘उत्सव’ का पहला नाटक भी खेला गया – ‘अ फ़ेयर अफ़ेयर’।अफ़ेयर (विवाह पूर्व के सम्बंध) को समाज में फ़ेयर (अच्छा) नहीं माना जाता – तभी तो वह छुप-छुपा के होता है। लेकिन यहाँ वह अफ़ेयर भी फ़ेयर हो गया है। सामाजिक मान्यता को स्वीकार करते हुए शादी के सूत्र में बंध जाता है। समाज में प्रेम से विवाह की पहले कड़ी मनाही थी, लेकिन जैसे-जैसे समाज की गाँठे खुलती गयीं, यह होने लगा। और इस समूची प्रक्रिया को ‘फ़ेयर अफ़ेयर’ जैसे परस्पर विरोधी शब्द-जोड़े में बांध देना लेखक समीर गरुड़ का एक बड़ा कौशल सिद्ध होता है। मूलतः अंग्रेजी में लिखे इस नाटक का हिंदी रूपांतर ‘विभाव’ समूह के सदस्यों ने मिलकर किया है, फिर भी इसमें मुख्य रूप से कुशाल, गरिमा, सुशांत और अर्चना सक्रिय थे, जिन्हें इसका मुख्य श्रेय मिलना ही चाहिए।  कुल मिलाकर यह नाटक पति पत्नी के रिश्तों में प्यार-मुहब्बत के साथ-साथ नोंक-झोंक को मिलाकर उन रिश्तों को मजबूती प्रदान करने का संदेश देता है। इसका कुशल निर्देशन विवेक त्रिपाठी ने किया है और इसके मुख्य पात्रों की भूमिकाओं कुंदन कुमार, गरिमा मेहरोत्रा,गिरीश त्रिवेदी और ऐश्वर्या अनन्त ने बिलकुल सही निर्वाह करके प्रस्तुति को रोचक व दर्शनीय बना दिया है। देखकर निस्संदेह लगता है कि आगे के शोज़ में यह निस्संदेह और निखरेगा।

उत्सव के दूसरे दिन 17 फ़रवरी को दो नाटकों का मंचन किया गया। पहला तो पुनः ‘टहनियां’नाट्य समूह का रहा, जिसका नाम था –‘गड़बड़ गंज की रामलीला’। यह लिखा गया है – आयुष, रोहन और योगी के सम्मिलित प्रयत्नो से और निर्देशन किया है आयुष शर्मा एवं रोहन शर्मा ने। यह मूल रूप से हास्य नाटक है, जिसकी कहानी नाटक के नाम के अनुरूप रामलीला की डोर से जुड़ी हुई है। रामलीला जब बन ही रही है गड़बड़गंज में, तो बन पाएगी कैसे? फिर नाटक की गवाही में उसके कलाकार भी काफ़ी अतरंगी क़िस्म के हैंसो, इन सबसे हास्य की स्थितियाँ तो बनती हैं। फिर उसी में एक प्रेम-प्रसंग भी उठ खड़ा होता है, जिससे नयी टकराहटें खड़ी हो जाती हैं और बनते-बनते भी फिर से बिगड़ना सिद्ध होता है। लेकिन बिगड़ना ही इसका मूल तत्त्व है, जिनसे बात बनती है – याने बिगड़ना ही बनना है, कुल मिलाकर हास्य तत्व ही मूल नाटक है। लेकिन प्रच्छन्न रूप से ढोंगी बाबाओं पर भी व्यंग्य किया गया है। कुल मिलाकर नाटक टाइम पास रूप में दर्शनीय भी बन पड़ता है।

उसी दिन याने 17 फरवरी को ही ‘विभाव थियेट्रिकल’का नाटक ‘द सिडक्शन’भे खेला गया, जो एंटोन चेखव की कहानी पर बना है और जिसका हिंदी रूपांतर रंजीत कपूर ने किया है। जैसा कि सिडक्शन शब्द से ही ज़ाहिर है कि यह नाटक एक ऐसे किरदार पर आधारित है, जो शादी-शुदा  महिलाओं को रिझाने में बड़ा माहिर है। किसी भी स्त्री को काम-सबन्ध के लिए अपने कौशल से लुभा कर तैयार कर लेता है। नाटक में मज़ेदार यह है कि डोरे डालने का माध्यम उस स्त्री के पति को ही बनाया गया है, जो दर्शक को ज्यादा खींचता है और इस प्रक्रिया में मंचन मज़ेदार हो जाता है। फुसलाने वाला सफल भी होता है, लेकिन चेखव जैसे बड़े लेखक से न यह उम्मीद बनती, न नाटक में ऐसा होता कि यह क़ुकार्य सफल हो। और तब साहित्य की उस सरनाम प्रक्रिया का सहारा लिया जाता है, जिसे हिंदी में ‘हृदय-परिवर्तन’ कहते हैं। सफल होने के बाद उसका मन बदल जाता है। स्त्री का उपभोग न करके वापस चला जाता है और खुद भी शादी कर लेता है। इस प्रकार यह कहानी आदर्शवादी ठहरती है। और इसी मुक़ाम को पाकर कहानी की तरह प्रस्तुति भी सफल हो जाती है। इस तरह इस नकारात्मक शब्द को भी एक सार्थक परिणति देकर महान चेखव महाशय लेखक होने साथ ही प्रस्तुति के भी नायक हो जाते हैं।

इसका निर्देशन विवेक त्रिपाठी और कुंदन कुमार ने मिलकर किया है, जिसमें मंच-सज्जावेश-भूषाआदि किसी भी रंग़-साधन का बहुत गाढ़ा उपयोग नहीं हुआ है। याने प्रस्तुति सादी व सीधी है। कहानी ही अंत में सबको साध देती है। यही हाल अभिनय का भी होता है। निराधार बातें और बातें चलानी अच्छा तो न था, लेकिन होता है क्या, की जिज्ञासा दर्शक को बांधकर बिठाये रहती है। मुख्य भूमिका में कुंदन कुमार, अर्चना सिंह  और वरुण थे, जिनके काम में मेहनत खूब दिखती है, लेकिन फिर वही कि बात बनती है कहानी से ही।

नाट्योत्सव के तीसरे दिन नाटक शुरू होने से पहले ‘विभाव’ संस्था ने छोटा-सा औपचारिक आयोजन किया। इसमें ‘विभाव’ वालों के उन साथियों का स्वागत किया गया, जो पर्दा माध्यम में सराहनीय कार्य कर रहे हैं, जिनमें ‘पंचायत फेम’ दुर्गेश कुमार, अशोक पाठकऔर बुल्लू कुमार शामिल थे। इस अवसर के लिए ‘विभाव’ के प्रमुख सदस्य विवेक त्रिपाठी ने अपने शिक्षक गुरु और प्रसिद्ध नाट्य समीक्षक प्रो॰ सत्यदेव त्रिपाठी को बतौर प्रमुख अतिथि आमंत्रित किया था। सबसे पहले त्रिपाठी जी के स्वागत के बाद उन्हीं के हाथों से उन कलाकरों को अंगवस्त्र-नारियल व पुष्पगुच्छ देकर सम्मानित किया गया, जिसकी प्रीतिमयता दर्शकों की तालियों में उजागर हुई।

इसके बाद शुरू हुआ उस शाम का – और उत्सव का आख़िरी एवं सबसे अच्छा नाटक –‘एक रुका हुआ फ़ैसला’। इस नाटक के निर्देशक विवेक त्रिपाठी ने कुछ दिन पहले इसे अपनी एक कार्यशाला के बाद उन प्रशिक्षार्थियों के लिए किया और १२ पात्रों को सम्पादित करसके आठ कर दिया था। हम उस शो में मौजूद थे, जब नाटक ख़त्म होने के बाद विवेकजी के आग्रह पर हम सबके ग़ुरु त्रिपाठीजी ने कहा था – ‘अब से लगभग ७५ साल पहले लिखा गया  ‘टवेलव ऐंग्री यंग मैन’ नामक यह अमेरिकन नाटक क़त्ल जैसे सस्पेन्स विषय पर आधारित होकर भी क्लासिक हो गया है। हमारे यहाँ रंजीत कपूर ने इसे किया और ऐसा किया कि उन्हीं के नाम से यह मशहूर है। लेकिन विवेक, तुमने भी नाटक की सही नब्ज (नेक) पकड़ ली है। बस, अभ्यास से माँजो इसे। बारह से आठ का सम्पादन भी सही बैठ गया है। ‘मेन’ के बदले ‘वीमेन’ कलाकारों को लेना भी बहुत सही जम रहा है। इसलिए कोशिश करके जुटा सको, तो मूल की तरह १२ कर लो’।

और इस बार विवेकजी ने दस कर लिये। इस बार भी शो के बाद अनौपचारिक बातचीत में सर ने कहा –‘असीम सुधार हुआ है। आगे बढ़ोयह तुम्हारी पहचान वाला नाटक (सिग्नेचर वर्क) सिद्ध हो सकता है। खूब माँजो और जहां भी नाट्योत्सव होते हों, प्रस्ताव भेजो। इसमें वह सम्भावना है कि रंजीतजी के बाद विवेक के नाम से भी जाना जा सकता है इसे’। त्रिपाठी सर के अनुसार इस नाटक में मुजरिम लड़का सचमुच कातिल है या नहीं, की कथा के ज़रिए मनुष्य-स्वभाव का एक शाश्वत सत्य स्थापित किया गया है कि हर आदमी किसी भी मुद्दे को अपनी स्थिति और मानसिकता से ही देखता है और वह कहावत सच होती है कि ‘तटस्थ तो सिर्फ़ मशीन होती है’।

नाटक में जो पात्र पूर्वग्रह से मुक्त हुआ रखा गया है, वह भी उन शेष लोगों के पूर्वग्रहों को खोलने के लिए ही होता है। इससे वह सूत्र सिद्ध होता है –‘यह दुनिया दृष्टिगत सत्य है – वस्तुगत कुछ होता नहीं’!! उसे इस नाटक का नायक कहा जा सकता है, जिसे इस बार कुंदन ने निभाया और पात्रत्व को पाने की सही राह पर बहुत दूर तक पहुँच गया हैमंज़िल उसे मिलेगी!

ख़ुदा करे, सर की बात सच हो!!

नाटक के अन्य कलाकर थे – ऐश्वर्या अनन्त, आर्यन, अरिजित, जेली, रागेश्वरी, सरगम,अभिषेक और अर्चना!!

‘विभाव’वालों ने कहा कि यह समूह रंगकर्म के प्रति प्रतिबद्ध है और ऐसे ही लगातार अपने नाटकों और उत्सवों सेलोगों केमनोरंजन और जनजागरण का काम करता रहेगा।

ख़ुदा करे, यह भी सच हो – हमारी अनंत शुभकामनाएँ इनके साथ हैं।