सत्यदेव त्रिपाठी।

बीसवीं शताब्दी के हिंदी के सबसे बड़े लेखक जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी, 1890- 14 जनवरी, 1937) के निधन के 84 साल बाद रज़ा फाउंडेशन की मदद से लेखक-आलोचक सत्यदेव त्रिपाठी ने उनके विषय में प्रकाशित सूचनाओं, शोध और उनकी कृतियों में बिखरे सूत्रों के आधार पर प्रसाद की जीवनी -‘अवसाद का आनंद’- लिखने का उद्यम किया है जो अब पूर्णता की ओर है। प्रस्तुत हैं इसके एक अध्याय ‘उसकी स्मृति पाथेय बनी’ के सम्पादित अंश…


 

प्रसादजी युवावस्था से ही दृढ़ प्रकृति के पुरुष थे। वे भावावेश में किसी के कब्जे में फँसना नहीं चाहते थे।

व्यासजी के पूछने पर भी ‘आँसू’ की प्रेरणा के ‘रहस्य को उन्होंने नहीं खोला’ (वही-145)। इस प्रसंग का पटाक्षेप व्यासजी यूँ करते हैं– ‘जिन दिनों प्रसादजी वासना की दुर्बल रेखाओं पर भटक रहे थे, जन्मे पुत्र के मरने का विशेष प्रभाव पड़ा। फिर कभी उस ओर उनका ध्यान न गया।’

श्यामा की बावत सबसे विस्तार से उसी राय कृष्णदास ने लिखा है, जिन्होंने ‘आँसू’ की रचना के दौरान कवि के सुखमय जीवन की हामी भरते किसी दुखद जीवन-प्रसंग से इनकार किया है। उन्होंने प्रसाद कालीन समय के समाज में नाचने गाने वाली स्त्रियों, जो अधिकतर वेश्याएं हुआ करती थीं, को अपने यहाँ रखैल की तरह रखने की अमीराना (सामंती) प्रवृत्तियों के चलनों का करीने से विश्लेषण भी किया गया है। ऐसा करते हुए उन्होंने पहले इस प्रसंग पर लिखने की अपनी अधिकृत स्थिति स्पष्ट की है–

“1909 ईस्वी से प्रसादजी के अवसान तक मैंने उन्हें निकट से निकट तक निरखा है। उनके अंतस् में पैठा हूँ। उनकी समूची गतिविधि से अवगत रहा हूँ। उनके हृदय का कोना-कोना मेरे लिए उन्मुक्त रहा है। इसी बूते पर लगभग 1910 से 14 तक का जो समय उनके विलासी जीवन का अथ से इतिश्री है, उसका यथार्थ चित्र उरेहना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ”।

(प्रसाद जी के घर पर लेखक और छात्र)

फिर मूल बात पर आते हैं–

“बनारस की एक बिरादरी का पेशा है– ‘संगीत–गीतं-वाद्यं तथा नृत्यं त्रीभि: संगीतमुच्यते’। उन परिवारों में कुछ ऐसी युवतियां भी होती थीं, जो संगीत-प्रवीण होकर केवल भले घरों में अपनी कला प्रस्तुत करती थीं। जब किसी बड़े घर में कोई शुभ कार्य या उत्सव होता, तब उस मांगलिक वातावरण को अंत:पुर में मुखरित होने के लिए वे बुलायी जातीं। कभी-कभी तो ऐसे अवसरों पर प्रमुदित महिला-मण्डली सारी रात जागी रहती., उसे ‘रतजगा’(‘आज तेरी महफ़िल में रतजगा है’) कहा जाता।

इसी प्रकार के किसी समारोह में प्रसादजी के घर में एक रूपसी युवती का प्रवेश हुआ। उसकी कला एवं अदा ऐसी लुभावनी थी कि वह अक्सर बुलायी जाने लगी। उसका नाम था श्यामा। ऐसे अवसर भी आये, जब प्रसादजी की निग़ाह उस पर पड़ी और उसकी रसभरी आयत आँखों ने उन्हें आकृष्ट कर लिया। भगवान ने उसे सूरत के साथ सीरत भी दी थी। वह निस्सन्देह प्रेम-परायणा थी, अर्थपरायणा नाम मात्र ही। प्रसादजी के भवन के सामने ही एक विस्तीर्ण कच्चा चबूतरा था, उसके बीच में ही एक छोटी-सी सुबुक बँगलिया। रंग-बिरंगे सुन्दर-सुन्दर फूलपत्तियों वाले गमलों से वहाँ बहुत रमणीयता रहती। उसी में उसे वास मिला। उन दिनों अधिकांश कुलांगनाओं की मनोवृत्ति यह थी कि यदि उन्हें पति का पूर्ण प्रेम प्राप्त होता, तो उनमें पति की रक्षिता के प्रति सौतिया डाह नहीं होता। उनके पति-प्रेम में आराध्य भाव भी होता। ऐसे सम्बन्ध के प्रति उनका दृष्टिकोण यह होता कि यदि हमारे प्रति आराध्य का अनुराग अक्षुण्ण है, तो उनकी मौज में हमें सुख है। यही अनुकूल परिस्थिति प्रसादजी के अंत:पुर में थी। उनकी प्रेमिका के लिए उनकी जनानी ड्योढ़ी का द्वार सदैव उन्मुक्त रहा। प्रसादजी जब हवा खाने गाड़ी पर निकलते, तब कभी-कभी मर्दानी पोशाक में उसे भी संग लिये रहते। एक दिन मेरे यहाँ फाटक तक आकर न जाने क्यों सकुच गये– उलटे पाँव लौट गये। कई दिन बाद खुले। प्रसादजी का जीवन एक खुली किताब थी।

(प्रसाद परिसर में उनका शिव मंदिर)

इस जीवन में वे ढाई-तीन वर्ष रमे रहे। उभय पक्ष से कभी कोई बेवफाई नहीं हुई। प्रसादजी स्वयमेव एक दिन निवृत्त-वर्ष हो गये। जब उपरत हुए, तब सदा के लिए उपरत हुए। कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, न ही मन में कोई वासना या पछतावा रहा। उनके जीवन की यही विशेषता थी। ‘जीवन-समुद्र थिर हो’ गया, तो सदा के लिए हो गया। श्यामा अपने सारे आभूषण उन्हें सौंपने लगी, तो उन्होंने बिना किसी रुखाई के दृढ़तापूर्वक ना कर दिया। झंझटों से वे दूर रहा करते। इसके बाद एक दिन मैंने उनसे पूछा कि उसका कुछ पता-ठिकाना है? उन्होंने तटस्थ भाव से कहा – ‘सुना, मर गयी’। किंतु कई बरस बीत जाने पर वह अकस्मात प्रकट हुई। ‘अरे तुम’…? प्रसादजी ने उसे देखकर निस्संग भाव से साश्चर्य पूछा। बरसों से जिसको वे मृत समझते थे, उसे अचानक देखकर उनका चकित होना स्वाभाविक था। फिर वह अन्दर चली गयी। (वाङमय-174-75)।

इसके बाद उसका क्या हुआ, का पता कृष्णदासजी की कहानी नहीं देती। यानी दासजी का सरोकार श्यामा से नहीं, सिर्फ प्रसादजी के साथ उसके लस्तगे तक था।


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