सत्यदेव त्रिपाठी।

बीसवीं शताब्दी के हिंदी के सबसे बड़े लेखक जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी, 1890- 14 जनवरी, 1937) के निधन के 84 साल बाद रज़ा फाउंडेशन की मदद से लेखक-आलोचक सत्यदेव त्रिपाठी ने उनके विषय में प्रकाशित सूचनाओं, शोध और उनकी कृतियों में बिखरे सूत्रों के आधार पर प्रसाद की जीवनी -‘अवसाद का आनंद’- लिखने का उद्यम किया है जो अब पूर्णता की ओर है। प्रस्तुत हैं इसके एक अध्याय ‘उसकी स्मृति पाथेय बनी’ के सम्पादित अंश…।


 

उक्त तीनों जन के उल्लेखों के आधार पर कहें, तो पहली बात यह कि प्रसादजी के जीवन में श्यामा का होना निर्विवाद है, जिसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि विनोदजी व रायजी के लेख प्रसादजी के पुत्र रत्नशंकरजी के ही सम्पादकत्व में छपे हैं, लेकिन उन्होंने कोई पादटिप्पणी नहीं दी है, जैसा कि उन तमाम तथ्यों पर देते रहे हैं, जो उन्हें सही नहीं लगे हैं। दूसरी बात कि उक्त तीनो-चारो मतों से स्पष्ट हो रहा है कि प्रसादजी के परिवार, आदि प्रकरणों की तरह श्यामा के साथ उनके सम्बन्ध की नियति भी पुराण बन गयी है।

जितने लोगों ने लिखे, सबके अलग-अलग संस्करण इसके प्रमाण हैं। लेकिन उसका गौनहारिन होना तय है, क्योंकि सभी इस तथ्य पर एकमत हैं। बाकी तो मैत्रेयी सिंह का उल्लेख बरायनाम भर है, जिसमें श्यामा के प्रसाद-मन्दिर के भीतर धड़ल्ले से आने-जाने व उन्हें सबके सामने भी छेड़ने भर का वास्ता बना है। उनके कहे में श्यामा का रंग गोरा था, लेकिन बाकी दोनों मित्रों ने साँवला ही बताया है। छूटते हुए श्यामा द्वारा गहने वापस करने या उसी थाती के भरोसे गृही होकर शेष जीवन बिताने की बात भी सबकी अलग-अलग है। विनोदजी उसे सुरूपा भी नहीं मानते– बस नाज़-ओ-अदा भर की हामी भरते हैं। ‘आवाज लड़ती थी’ में गायन को भी दाद नहीं ही मिलती। बड़ा चलता-सा विवरण उसके वेश्यापने का भी देते हैं कि प्रसाद के साथ वाले काल में ही उसका किसी और के यहाँ भी आना-जाना था। लेकिन रायजी उसकी सूरत-सीरत दोनो की तारीफ करते हैं। जाते हुए वह सारे गहने लौटाने को उद्यत थी, के प्रमाण के साथ उसे अर्थपरायणा न होकर प्रेमपरायणा बताते हुए उसके वफ़ादार प्रेमिका रूप को भी सामने लाते हैं। बस, अंत का पता कोई नहीं देता।

मैत्रेयी का तो अज्ञान है, लेकिन दोनो मित्रों को तो पता रहा होगा। सो, इसमें श्यामा के प्रति उपेक्षाभाव ही जाहिर होता है, जो विवाहेतर सम्बन्ध व फिर गौनहारिन जैसे तबके से होने के कारण ही हुआ होगा। और मूल बात यह कि ‘आँसू’ की प्रेरणा या उस कृति की अनाम वास्तविक नायिका अथवा ‘उसकी स्मृति’ में श्यामा के पाथेय होने, न होने की चर्चा तक दोनों में से कोई नहीं करता। इन मित्रों के लिए प्रसादजी के जीवन में श्यामा का होना एक घटनामात्र है।

इस दृष्टि से सिर्फ़ सीताराम चतुर्वेदी के यहाँ ही प्रसाद-श्यामा-प्रसंग की सही और आँसू-श्यामा की एक पूरी इकाई (यूनिट) बनती है, जिसमें कवि की प्रेयसी के रूप में ‘आँसू’ की प्रेरणा व नायिका के पद पर चौचक आसीन है श्यामा। वे अकस्मात मृत्यु में उसका अंत भी बताते हैं, जिससे वियोग का ठोस मामला भी बनता है। और इस तरह शायद पीठ पीछे चलती चर्चाओं का इसमें मुकम्मल नेतृत्व भी हुआ है। चतुर्वेदीजी ने ‘शशिमुख पर घूँघट डाले…’ में श्यामा की छबि का सन्धान किया है और ‘जो घनीभूत पीड़ा थी’…का परथोक दिया है। और ‘आँसू’ की काव्य-समाधि देकर श्यामा की स्मृति को अमर कर देने के रूप में सुन्दर समापन किया है। यह एक सम्पूर्ण एवं स्पष्ट विवेचन है, जिसे किसी और तर्क-प्रमाण की दरकार नहीं।

किंतु ‘आँसू’ में कुछ और संकेत मौजूद है, जिनके साक्ष्य में कृति के माध्यम से थोड़ी और चर्चा की जा सकती है। ‘उसकी स्मृति’के सर्वनाम को ‘श्यामा’ की संज्ञा से जोड़ने के प्रमाण स्वरूप बड़ी बारीक काव्यात्मकता लिये हुए एक छंद बड़े खाँटी रूप में श्यामा को साकार करता है– चातक की चकित पुकारें, श्यामा-धुन सरल रसीली ; उसकी करुणार्द्र कथा की टुकड़ी आँसू से गीली।

इसके अतिरिक्त खींच-तानकर प्रयुक्त हुए श्यामा नाम के कुछ और संकेत भी मिलते हैं, जिनके लाक्षणिक अर्थ भी उस भाव को ध्वनित करते देखे जा सकते हैं–

सुख तृप्त हृदय कोने को ढँकती तम-श्यामल छाया, मधु स्वप्निल ताराओं की, जब चलती अभिनय माया

घन में सुन्दर बिजली सी, बिजली में चपल चमक सी, आँखों में काली पुतली, पुतली में श्याम झलक-सी

श्यामल अंचल धरणी का भर मुक्ता आँसू कन से, छूँछा बादल बन आया मैं प्रेम प्रभात गगन से

तुम स्पर्शहीन अनुभव-सी, नन्दन तमाल के तल से, जग छा दो श्याम-लता सी, तन्द्रा पल्लव विह्वल से

…और इन सबको मिलाकर ‘आँसू’ की ‘स्मृति’ में श्यामा की स्मृति का संधान असम्भव नहीं।

लेकिन फिर भी इसकी व्यावहारिक प्रामाणिकता सन्दिग्ध नहीं, तो विचारणीय अवश्य है। जैसे कि रायकृष्णदास तो प्रसादजी के बेहद घनिष्ठ थे। प्रसादजी भी उनके प्रेम-प्रकरण, आदि में राज़दार रहे (वाङमय 172-73 के आधार पर)। यानी यह मैत्री कृष्णार्जुन के ‘विक्रांतानि-रतानि च’ जैसी थी। विनोदजी की भी मित्रता कुछेक मनभेदों के बावजूद काफी गहरी थी। इन लोगों का ऐसा न कहना चतुर्वेदीजी के कहने के मुकाबले काफी मायने रखता है। गो कि यही मित्रता इस बात की भी संकेतक हो सकती है कि मित्रों ने असलियत को इरादतन बदलकर (ट्विस्ट करके) ‘आँसू’ के कवित्व व प्रसादजी के व्यक्तित्व को एक गरिमा देने का उपक्रम भी किया हो।

(प्रसाद जी के पौत्र आनंद शंकर प्रसाद के साथ लेखक और छात्र)

इस उपक्रम के तहत विनोदजी का मामला जरा उघड़ा हुआ है। जीवनी-लेखन को लेकर उनकी  कुछ प्राथमिक मान्यताएं रहीं, जिसमें वे पाश्चात्य देशों में लेखक के जीवन की साधारण से साधारण बातों की छान-बीन और उनके सम्पूर्ण जीवन का विवरण प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति के ख़ासे पक्ष में लगते हैं। कुछ का उन्होंने मुख़्तसर ही सही, खुला विवेचन किया भी है। वहाँ जीवनी-लेखन में कितने जीवनीकारों का अपना जीवन लग जाता है, जिसके लिए उन्हें पर्याप्त सम्मान व महत्त्व मिलता है। इस परिपाटी से मुतासिर होकर इसी प्रभाव में जब व्यासजी ने ‘देशदूत’ साप्ताहिक में गौनहारिन के साथ प्रसादजी के सम्बन्ध की बात लिख दी, तो लोगों की नाग़वार प्रतिक्रियाएं आने लगीं। इससे आहत व उद्वेलित होकर उन्होंने आँधी, घण्टी, चूड़ीवाली..। आदि निराश्रित भटकती प्रसादीय पात्राओं के जरिए प्रसादजी के अनुभूत सत्य की तस्दीक भी की (‘दिन-रात’- पृष्ठ 3-4 के आधार पर)।

लेकिन फिर शायद लोगों के नाग़वार लगने के असर में आकर वाङमय वाले लेख में आगे चलकर यह भी लिख दिया कि ‘आँसू’ व ‘कामायनी’ के रचयिता को केवल एक गौनहारिन और एक वेश्या से प्रेरणा मिली हो, यह सम्भव-सा नहीं दीखता’ (पृष्ठ 145)। इस स्वतोव्याघात से उनकी बात साफ न होके उलझ जाती है।

फिर व्यासजी व रायजी दोनो के विवेचनों में एक ऐसी बात है, जो बेहद सालने वाली है। दोनों में बिल्कुल साफ है कि श्यामा के जाने के बाद प्रसादजी के मन में उसके लिए कुछ बचा न था– यहाँ तक कि उसका क्या हुआ, की भी उन्हें परवाह न थी।


जयशंकर प्रसाद-1 : स्मृति की पीड़ा या पीड़ा की स्मृति!

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