डॉ॰ मधुबाला शुक्ल
मुंबई की अनौपचारिक सांस्कृतिक संस्था ‘बतरस’की मासिक बैठक शनिवार, १६ मार्च, २०२४ की शाम नगीन दास खांडवाला (एन.एल) महाविद्यालय, मालाड (पश्चिम) में सम्पन्न हुई। विषय था -‘सार्थक बनाम कमाऊ सिनेमा’।
इस विषय की शुरुआत के मूल में ‘बतरस कार्य समिति’ की युवा सदस्य शाइस्ता खान की वेदना रही…। उन्होंने रिलीज के समय ही ‘एनीमल’ फ़िल्म देखी और इतनी विदीर्ण हुईं कि रातों को ठीक से सो नहीं पायीं…और इस पीड़ा को सबसे पहले ‘बतरस’ के वरिष्ठ सदस्य और अपने ‘अंकल’ सत्यदेव त्रिपाठी से और फिर कुछ अन्य गाढ़े मित्रों से भी साझा करती रहीं – कि आख़िर एक स्त्री को प्रेम-सेक्स-सम्बंध के नाम पर इतना जलील किया जाना कैसे दिखाया जा सकता है– वह भी फ़िल्म जैसे सबसे प्रभावी व ताकतवर माध्यम पर…!! इसी से बतरसियों का विचार बना कि इस पर एक सामूहिक चर्चा रखी जाए…। संयोगन उन्हीं दिनों ‘सैम बहादुर’ फ़िल्म भी आयी, तो दोनोलेकर फ़िल्म विधा की सम्भावनाओं व कार्यों की तुलनात्मक चर्चा स्वत: होने लगी…इस तरह विषय तो बना– ‘सार्थक बनाम कमाऊ सिनेमा’ …पर कार्यक्रम होने में तीन महीने लग गये…। ख़ैर
प्रस्ताविक के रूप में शुरुआत शाइस्ता से ही हुई और उसने अपनी उक्त बात को विस्तार एवं संजीदगी से रखा…।
विषय पर चर्चा की शुरुआत धर्मेंद्र सिंह से हुई, जो ‘पंगेबाम’, ‘ब्लैकबोर्ड वर्सेस व्हाइट बोर्ड’, ‘सुगना-२’…आदि मेंदमदार अभिनय कर चुके हैं। उन्होंने कहा – भारतीय सिनेमा का इतिहास बहुत ही उज्जवल रहा है…। पहले की फिल्में सामाजिक सरोकारों से परिपूर्ण होती थीं– आज भी वैसी फिल्में बनती हैं, लेकिन वहीं ऐसी फ़िल्में भी बन रही हैं, जो सामाजिक विघटन को बढ़ावा देरही हैं। स्वतंत्र विचारों के नाम पर इनसे विध्वंस हो रहा है। ऐसे में लोगों को नैतिकताओँ और मर्यादाओँ की क़ीमत समझनी होगी और उसके अनुसार सिनेमा का एक प्रारूप तय करना होगा, ताकि आने वाली पीढ़ी गर्त में न जाए। उन्होंने कहा कि इस तकनीकी युग की पीढ़ी को मोबाइल ने पुस्तकों सेवंचित कर दिया है। उनकी दुनिया गूगल तक ही सीमित रह गई है। इसका खामियाजा भी समाज भुगत रहा है। सिनेमा का विद्रूप इसी तकनीकी युग की देन है। कमाऊ फिल्में समाज पर सांस्कृतिक आघात करती हैं। ऐसी फिल्मों से चोरी, हत्या,लूटपाट, बलात्कार जैसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिल रहा है। वर्तमान पीढ़ी इससे बच नहीं पा रही है। उनका मानना है कि सरकारी व्यवस्था को कमाऊ सिनेमा पर नियंत्रण के लिए हस्तक्षेप करना होगा, ताकि हम नये स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकें..। प्रौद्योगिकी की प्रगति ने फिल्म-उद्योग में क्रांति ला दी है। नेटफ्लिक्स, अमेज़न, प्राइम…आदि ने इस क्षेत्र को एक हद तक लोकतांत्रिक बनादिया है और प्रभावशाली कथाओं की पहुंच का विस्तार किया है। यकीन है कि सिनेमा में बदलाव होगा और गुणात्मक दौरफिर से आयेगा…।
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी एवं सिने अभिनेता विजय कुमार के अनुसार फिल्मों में विषय वस्तु दोयम दर्जे पर चली गयी है। कोई भी फिल्म सोच समझ कर नहीं बनाई जाती। अभिनेता में भी ग़लत दृश्य करने से इनकार करने की हिम्मत होनी चाहिए। लेकिन आज किसी भी अभिनेता में इतनी शक्ति नहीं कि वह किसी वीभत्स किरदार को करने से मना करदे। वह तो इस जुगत में लगा रहता है कि उसे सिर्फ काम मिल जाए। अभिनेता को तो पढ़नेके लिए पूरी पटकथा तक नहीं दी जाती। दूसरी बात कि ‘एनिमल’ जैसी फ़िल्में न बनें, इसके लिए समाजको मिलकर एक अनुष्ठान करना होगा। सिनेमा, समाज को प्रतिबिंब और प्रभावक दोनों रूपों में प्रभावित-प्रेरित करता है और संस्कृति को आकार देता है। इसमें बातचीत को बढ़ावा देने, धारणाओं को चुनौती देने और भावनाओं को जगाने की अद्वितीय क्षमता होती है, तभी तो अमिताभ बच्चन, आमिर खान, नसीरुद्दीन शाह, जैसे प्रतिष्ठित अभिनेता सांस्कृतिक प्रतीक बन गए हैं, जोअपनी बहादुरी, लचीलेपन और नैतिक मूल्यों से दर्शकों को प्रेरित कर रहे हैं।
फ़िल्म-निर्माण में प्रकाश झा और महेश माँज़रेकर के साथ रहने वाले तथा रामधारी सिंह ‘दिनकर’ लिखित कहानी ‘लागी लगन’ के अलाव ‘कस्तूरी’, ‘जिंदगी है गाड़ी’ जैसी फ़िल्मों के लेखक-निर्देशक तथा भोजपुरी फिल्मों को साहित्य से जोड़ने वाले अंजनी कुमार ने कहा–‘आपने फिल्मबनाने में पैसा लगाया है, तो अवश्य चाहेंगे कि आपका लगा हुआ पैसा वापस आए। साहित्य में व्यक्तिगत तौर पर एक सार्थक कार्य हो सकता है, सिनेमा में नहीं। सिनेमा में सार्थक और कमाऊ दोनों ही परिदृश्य को साथ लेकर आगे बढ़ना होता है। यदि सामाजिक सरोकार नहीं है, तो सिनेमा महान हो नहीं सकता। हर युग मेंराम-रावण, कृष्ण-कंस जैसे लोग विद्यमान रहे हैं। एक कमाऊ फिल्म देखने लोग इसलिए भी जाते हैं कि उसकी बड़ी कमाई का राज जान सकें। यदि एक लेखक, निर्देशक, निर्माता कमाऊ फिल्म नहीं दे पाता, तो वह फिल्म उद्योग में फेल समझा जाता है। अंजनीजी ने ‘कश्मीर फाइल्स’ और ‘केरल फाइल्स’ को यथार्थ पर आधारित मानते हुए कहा कि ये कहीं न कहीं अलगाववाद, विषमता की भावना समाजमें फैला रही हैं। दूसरी ओर उन्होंने विमल राय व यश चोपड़ा जैसे निर्माताओं एवं ‘दंगल’ व ‘तारे ज़मीन पर’ जैसी फिल्मों की जानिब से कहा कि सिनेमा अपनी शुरुआत से ही मनोरंजन और अभिव्यक्ति का एक शक्तिशाली माध्यम रहा है, जिसका समाज पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है, उसे परिवर्तन की प्रेरणा और संस्कृति को गहरे तरीकों से आकार मिला है। सो, कमाऊ एवं यथार्थ के मिश्रण से ही फिल्म बनानी होगी।
अगले वक्ता रहे – ‘सांचा’, ‘अपनापन’ जैसी कई फिल्मों के निर्देशक तथा डी डी किसान, दंगल टीवी, डी डी नेशनल के लिए सैकड़ों कड़ियाँ लिखने वाले एवं अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत – आलोकनाथ दीक्षित। इनके अनुसार समाज के लिए सिनेमा एक दर्पण केरूप में कार्य करता है, जो उसकी खुशियों, संघर्षों और जटिलताओं को दर्शाता है। दर्शकों की सहानुभूति और समझ को बढ़ावा देता है। इसलिए हिंसा तथा अपराध की घटनाओं पर आधारित फिल्मों में अपराध करने के तौर तरीकों को बहुत विस्तार एवं हिंसा केनए तरीकों को आकर्षक और मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करने में सावधानी बरती जानी चाहिए। वर्तमान में गिनती की कुछ फिल्मों को छोड़कर सभी फिल्मों में अश्लीलता के सिवायन अच्छी पटकथा होती है, न ही रोचकता। ऐसी फिल्मों को परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता है। जिस फिल्म(एनीमल) की चर्चा हेतु हम सब यहाँ एकत्रित हुए हैं, वह फ़िल्म कहीं दूर-दूर तक फिल्म इतिहास मेंशामिल ही नहीं है। एक फिल्म को सफल और असफल बनाना दर्शकों पर भी निर्भर होता है। पहले भी समानांतर एवं व्यासायिक सिनेमा चलता था, वह चलते रहना चाहिए। मध्यम मार्ग की ज़रूरत नहीं। आजीवन समानांतर सिनेमा बनाने वाले श्याम बेनेगल का उदाहरण देते हुए दीक्षित जी ने बताया कि पहले सरकार ऐसी कलात्मक फिल्में बनाने के लिए पुरस्कृत करती थी, आर्थिक सहायता देती थी। वह अब समाप्त हो गया है, तो वैसी कलात्मक फिल्में बननी बहुत कम हो गयी हैं, जोसमाज में चेतना भी पैदा करती थीं। ऐसे में ‘रंग देबसंती’; ‘लगे रहो मुन्नाभाई’, ‘अ वेडनेसडे’; ‘भाग मिल्खा भाग’ ‘तारे जमीं पर’जैसी फिल्में आदर्श कही जा सकती हैं। ऐसी सभी फिल्मों को मनोरंजन कर में सरकार सेरियायत मिलना चाहिए। क्योंकि इस तरह की छूट सिनेमा बनाने वालों को सार्थक फिल्म बनाने के लिए प्रेरित करती है। फिल्मों के रीमेक के बजाय नए विषयों पर फिल्म बनानी चाहिए।
समाहार के रूप में ‘बतरस’ संस्था के संस्थापक एवं प्रसिद्ध समीक्षक प्रो॰ सत्यदेव त्रिपाठी ने कहा कि ‘एनीमल’ जैसे घृणित फिल्म आती है, तो इसके सामने जनतंत्र में बहुत से सवाल पूछने और कार्यवाही कराने के प्रावधान हैं… सेंसर बोर्ड क्या कर रहा है? सरकार की तरफ़ से उसकी ज़िम्मेदारी है। फिर दर्शक देख भले रहे, इतनी ख़राब लगने पर कोई बोर्ड से लिखित सवाल क्यों नहीं करता – कोई कोर्ट क्यों नहीं जाता? इतने नारी संगठन हैं, क्या कर रहे हैं? बिना संगठन के भी नारी समाज सामूहिक आवाज़ उठा सकता है – एक कॉलोनी की औरतें ही खड़ी हो जाएँ, तो क्या कुछ हो जाये…। याने इनमे से कोई या सब मिलकर ‘एनिमल’ जैसी फिल्मों का बनना रोकवा सकते हैं – कोशिश कर सकते है, पर कुछ नहीं हो रहा…। निर्माता-निर्देशक पैसे के लिए ऐसा कर रहे है, तो जो अभिनेता ऐसा घृणित कार्य करा रहा है, जो अभिनेत्री ऐसा कर रही है, वे भी तो कलाकार होने के पहले एक आदमी हैं। लेकिन निर्माता के लिए सौ करोड़ के कमाई की तरह रणवीर को भी अभिनेता की कमाई का रेकोर्ड पार करना है। यह पैसा और अमीरी का तबका ज्यादा निर्णायक है। मतलब यह कि हर तरफ़ कुएँ में भांग पड़ी है…। याने निर्देशक विजय वांगा मूल ज़िम्मेदार नहीं है। वह तो अपनी फ़िल्म को साफ़-सुथरी मानता है और सारे विवादों के लिए फ़िल्म जगत पे हुकूमत करने वालों को ज़िम्मेदार कहता है। इस तरह कहीं लोगों में एकता नहीं हैं। इससे भविष्य के भी रास्ते बंद हो रहे, जो खतरनाक है।
इस चर्चा में कवि एवं विचारक रमन मिश्र, सेवानिवृत अध्यापक शैलेश सिंह, सिनेएवं रंगकर्मी विवेक त्रिपाठी व कुंदन कुमार और लेखक, निर्देशकअनिल शर्मा जी…आदि की सक्रिय सहभागिता से आयोजन सार्थक हुआ।
यह महीना होली का था और ‘बतरस’ की परम्परा है होली मनाने की। सो, इस बार सम्मेलन का दूसरा सत्र भी हुआ…होली पर कविताएँ पढ़ी गयीं – होली गीत गाये गये…। इसमें कवि-विचारकरासबिहारी पांडेय जी ने होली पर लिखी, महाकवि निराला की कविता- ‘नयनों के डोरे लालगुलाल भरे, खेली होली! मली मुख-चुंबन-रोली, कली-सी कांटे की तोली। बनी रति की छविभोली’के साथमीराबाई का लिखा होली गीत- ‘फागुन के दिन चार होली खेल मना रे।। बिनकरताल पखावज बाजै अणहद की झणकार रे’गीत गाकर रंगोत्सव-कार्यक्रम का आग़ाजकिया। सेवानिवृत्त अध्यापक जवाहर निर्झर का भोजपुरी लोकगीत ‘अमवा की गछिया से बोलल कोइलियाफागुन दिन आए रे’ सुनाकर श्रोताओं का दिल जीत लिया। कवि एवं विचारक अनिल गौड़ जी के स्वरचित गीत- ‘ये फूल भी अच्छा लगा, वो फूल भीअच्छा लगा, मैं हूँ भ्रमर मैं क्या करूँ, किसको तजूं, किसको वरूं?’ और ‘गुन गुनकरता फागुन, गुन से अच्छे लगते, काहे सौ सौ अवगुन’ सुनाकर सभी श्रोताओं की तालियाँबटोरीं।रंगकर्मी और सिने अभिनेता कुंदन कुमार ने होली पर बिहार का लोकगीत- ‘पनिया लाले लालए गौरा हमरो के चाही’… सुनकर सारा कक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।पहले सत्र में सहभागी हो चुके सुप्रसिद्ध रंगकर्मी एवं सिने अभिनेता विजय कुमार जी ने पिहिक के सुनाया – ‘प्रीतम होरी मचाना होगा, वृंदावन के कुंज गली में आना होगा लिवाना होगा’…, तो श्रोताओं में असीम उछाह भर उठा।रंगकर्मी और कलाकार ओम कृष्णा ने छन्नू लाल मिश्र का गीत- ‘खेले मसाने में होरीदिगंबर – खेले मसाने में होरी।भूत पिशाच बटोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी’… सुनाकर श्रोताओं का ज़बरदस्त रंजन कराया। गीतकार विशू ने अपने मधुर कंठ से- ‘रंग-रंग-रंग-रंग बरसे बिरज सा, रंग-रंग-रंग-रंग बरसेअवध सा’ गाकर सभी को मोह लिया।
पूरे कार्यक्रम की परिकल्पना एवं रूपायन मीडियाकर्मी एवं लेखक तथा ‘बतरस’ के संस्थापकों में एक प्रमुख विजय पंडित जी ने बड़े मन से किया था…। उन्होने ही अतिथियों के परिचय सहित पूरे आयोजन का बड़ी गरिमा व कुशलतापूर्वक संचालन भी संपन्न किया।
अंत में बतरस समिति के सक्रिय सदस्य डॉ मधुबाला शुक्ल ने सभी लोगों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा- जब तक दर्शक ऐसी अश्लील-विकृत फ़िल्मों को देखने की अपनी मनोवृत्ति नहीं बदलेंगे, तब तक ऐसी फिल्में बनती रहेंगी, फ़िल्म वालों की कमाई होती रहेगी और समाज का सवेदनशील वर्ग इसी तरह विचलित होता रहेगा…।