सत्यदेव त्रिपाठी।

एक नवम्बर 2017… अचानक लहरतारा (वाराणसी) के बड़े पुल के पास की पतली गली में स्थित नन्दन-कानन सरीखे पावन घर में ब्रह्मानन्दजी पाण्डेय से मिलना अपार हर्ष व गहन विषाद का सबब बना।


 

उस दिन उनका 90वाँ जन्मदिन था। अपार हर्ष हुआ उनकी 90 साल की जीवंतता एवं असीम सक्रियता पर तथा गहन विषाद हुआ दुनिया के बीच उनकी स्थिति पर या कहें कि दुनिया के चलन पर।

कभी पाण्डेयजी ‘जनवादी लेखक संघ’ की वाराणसी इकाई के अध्यक्ष हुआ करते थे और एक-दो नहीं, बारह सालों तक रहे। हालांकि उन्हें देखने मात्र से उनकी सादगी व कर्तव्यनिष्ठा बख़ूबी जहिरा जाती है, पर यह बारह साल की लम्बी अवधि भी उनकी कर्मठता की प्रमाण स्वयं है, वरना अयोग्य या छल-छद्मी होते, तो उस पद पर इतने दिन न रह पाते।

न किसी का फोन, न आने के आसार

लेकिन उस दिन नेशनल स्तर के इतने बड़े ‘जलेस’ से जन्मदिवस पर न किसी का फोन, न किसी के आने के कोई आसार। अगर जन के प्रति प्रतिबद्ध और साहित्यिक संगठन का यह हाल है, तो कॉर्पोरेट जैसे अन्य क्षेत्रों में ऐसे अ-लगाव व उपेक्षादि का महौल तारी रहे, तो क्या बडी बात! (बाद में कहीं से पता लगा कि लोलार्क द्विवेदी (जो पुन: इन्हीं की प्रजाति के हैं) पहुँचने वाले थे)

लेकिन स्वयं पाण्डेयजी को इसकी पड़ी नहीं। लोग इन्हें पूछें, न पूछें, इनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं– गोया इन्हें इसका ख्याल भी नहीं। और सच कहें, तो वहाँ इसकी चर्चा भी न हुई। हम न जाते, तो पता नहीं, उन्हें अपना जन्मदिन भी याद आता या नहीं!

सबकी ख़बर

और ख़ास उल्लेख्य यह कि पाण्डेयजी प्राय: सबकी ख़बर रखते हैं। बात निकलने पर तमाम जनवादियों को याद किया। सबके बारे में बताया, जिससे मालूम हुआ कि लोग इनका पता लगायें, न लगायें, पाण्डेयजी सामने से पता लगाते होंगे। ‘जनवादियों’ की ही नहीं, बल्कि ‘अपनी सीमित सही परिधि में जो भी आये– परिजन-प्रियजन…’ सबकी ख़बर सच्चे ‘जनवाद’ को आज भी सार्थक करते हुए।

यारो यारी छाँडिये, वै रहीम अब नाहिं

बहुत याद आये रहीम– ‘यारो यारी छाँडिये, वै रहीम अब नाहिं’। और बहुत चुभी भास के चारुदत्त की याद भी– ‘एत्ततु माम दहति नष्ट-धनाश्रयस्य, यत्सौहृदापि जना: शिथिली भवंति’– याने, “दुख देता है यह कि धन-आश्रय नष्ट हो जाने पर अपने लोग भी दूर हो गये हैं”। पाण्डेयजी रेलवे में क्लर्क थे और उसी रूप में रिटायर हुए… वरना चाहते, तो इस पद के प्रभाव से उस वक़्त अपनी विभागीय प्रोन्नति (प्रमोशन) भी करा सकते थे और शायद अच्छी नौकरी भी हासिल कर सकते थे। लेकिन वे तो ‘इदम् प्रजापतये, इदन्न मम’ वाले रहे और इस भारतीय संस्कृति के धरोहर के रूप में आज भी विद्यमान हैं।

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शान से जीते रहे

भरी नवचा जवानी में एकमात्र बेटा अकाल काल-कवलित हो गया। तब पाण्डेयजी ने बहू और दो पोतों को क्लर्क की मामूली पेंशन के सहारे पालने का व्रत लिया, तो द्विवेदीजी के ‘कुटज’ की तरह ही ‘किसी  के द्वार पर मदद के लिए न गये, किसी अफसर की जीहुजूरी नहीं की, ग्रहों की ख़ुशामद में न लगे, खीसें नहीं निपोरीं, बगलें नहीं झाँकी, कोई सामने आया, तो भय के मारे अधमरे नहीं नहीं हुए- शान से जीते रहे…’ और यही एकमात्र इच्छा करते रहे कि इनकी परवरिश भर जी लें, जिसे क़ुदरत ने सुना ही नहीं, भरपूर नवाजा भी। वह चुनमुनवां परिवार आज के समय में हसरत की बात है।

इसी संजीवनी से पुष्ट वे स्वयं हाथ-पाँव व शरीर से आज भी इतने स्वस्थ हैं कि दैनन्दिन के काम स्वयं कर लेने के साथ ही घर के सामने के लगभग 20 फिट के गलियारे में सैकड़ों चक्कर लगा लेते हैं रोज़। और स्मृति इतनी टनाटन कि मेरा नाम सुनते ही बता दिया कि मुझसे कब और कहाँ भेंट हुई थी, जबकि उनसे तीन दशक छोटी मेरी स्मृति कह रही थी कि पहली बार मिल रहा हूँ उनसे। डायरी से नम्बर खोजकर फोन के जरिये नियमित जुड़े रहते हैं अपने इच्छित जग से।

छपने-छपाने की इच्छा से विरक्ति

आदरणीय ब्रह्मानन्दजी के दो काव्यस्ंग्रह प्रकाशित हैं – ‘शब्द होने के लिए’ और ‘अविभाजित आकाश’। उस समय इन पर त्रिलोचनजी और शमशेर बहादुर सिंह जैसे रचनाकारों और शिवकुमार मिश्र जैसे आलोचकों ने टिप्पणियां लिखी हैं, जिनसे पाण्डेयजी की सर्जनात्मक इयत्ता का पता लगता है। इनके अलावा निबन्ध व सामयिक विषयों पर गम्भीर टिप्पणियां भी लिखते रहे। और यह सब आज भी करते हैं – उनकी सद्य: लिखी कविताओं और टिप्पणियों की डायरी देखी हमने, जो बहुत ज़हीन और ज्वलंत भी हैं। छपें, तो आज के समय के लेखन को आईना दिखा दें, पर छपने-छपाने की इच्छा से पाण्डेयजी की उतनी विरक्ति भी, जो मूलत: ‘स्वांत: सुखाय’ तो है ही, पर बहू-बच्चों के बीच अकेलेदम जीने की सक्षमता को साधने के गौण उत्पादन के रूप में यह और भी उपयोगी सिद्ध हो रही है।

इस तरह हमें विश्वास है कि दुनिया की तरह काल भी शतायु के पहले तो उन्हें छू न सकेगा। फिर भी ‘जीवेम शरद: शतम’ कह ही आये हम…

यह अलभ्य अवसर मुझे उस सुबह औचक ही घर आकर और अपने स्कूटर से ले-आ जाकर दे दिया- बिना किसी लोभ-लाभ की इच्छा से साहित्यकारों के ख़ाँटी खोजी-ख़बरी भाई वाचस्पतिजी ने। उन्होंने भाभी शकुंतलाजी की तरफ से वस्त्र-द्रव्य भेंट करके उन्हें जन्मदिन का मूर्त्त अहसास भी कराया। भाई वाचस्पति, तुम ऐसे इकले हो इस दुनिया में, जो पन्ने से बाहर कर दिये गये ब्रह्मानन्द्जी जैसे मुखपृष्ठ को हाशिये पर तो ला देते हो– बाकी तो पृष्ठों पर आसीन लोग जानें -तुम एक बज़्म में मर्दुमशनास बैठे हो!


भौजी के ‘घाट’ पर एक दोपहर…