#santoshtiwariडॉ. संतोष कुमार तिवारी।

जो सबसे प्राचीन रामकथा उपलब्ध है वह है महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखी गई रामायण।  वाल्मीकीय रामायण संस्कृत भाषा में है और अद्भुत है। तमाम विद्वानों ने अनेक भाषओं में राम कथा लिखी है। हिन्दी में सर्वाधिक लोकप्रिय है गोस्वामी तुलसीदास कृत श्री रामचरित मानस।

वाल्मीकीय रामायण के अयोध्या काण्ड के 100वें सर्ग अर्थात 100वें अध्याय में भगवान अपने छोटे भाई भरत से कुछ प्रश्न करते हैं। उन्हीं प्रश्नों के माध्यम से वे भरतजी को बत्ताते हैं कि राजा को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। जब भगवान राम वनवास यात्रा पर चित्रकूट में थे, तब भरतजी उनके पास पहुंचे और आग्रह किया कि आप वापस अयोध्या लौटें और राजपाठ संभालें। भगवान राम ने मना कर दिया और कहा कि वह चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके ही अयोध्या वापस लौटेंगे। परन्तु भगवान राम ने भरतजी से एक के बाद एक कई प्रश्न किए। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

क्या तुम इनका सम्मान करते हो?

कच्चिद् देवान् पितृन् भृत्यान् गुरून् पितृसमानपि।

वृद्धांश्च तात वैद्यांश्च ब्राह्मणांश्चाभिमन्यसे ॥ 13 ॥

‘तात! क्या तुम देवताओं, पितरों (दिवंगत पूर्वजों), भृत्यों (सेवकों), गुरुजनों, पिता के समान आदरणीय वृद्धों, वैद्यों और ब्राह्मणों का सम्मान करते हो? ॥ 13 ॥

(तात शब्द एक स्नेहमय सम्बोधन होता है जो भाई, बन्धु, इष्ट, मित्र, तथा छोटे के लिए व्यवहार में लाया  जाता हैं)

क्या तुमने ऐसे लोगों को मंत्री बनाया है?

कच्चिदात्मसमाः शूराः श्रुतवन्तो जितेन्द्रियाः।

कुलीनाश्चेङ्गितज्ञाश्च कृतास्ते तात मन्त्रिणः ॥ 15 ॥

‘तात! क्या तुमने अपने ही समान शूरवीर, शास्त्रज्ञ, जितेन्द्रिय, कुलीन तथा बाहरी चेष्टाओं से ही मन की बात समझ लेने वाले सुयोग्य व्यक्तियों को ही मन्त्री बनाया है? ॥ 15 ॥

(जितेन्द्रिय का मतलब होता है जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया हो, समवृत्ति वाला, शांत व्यक्ति हो।)

मन्त्रो विजयमूलं हि राज्ञां भवति राघव।

सुसंवृतो मन्त्रिधुरैरमात्यैः शास्त्रकोविदैः ॥ 16 ॥

‘रघुनन्दन ! अच्छी मन्त्रणा ही राजाओं की विजय का मूल कारण है। वह भी तभी सफल होती है, जब नीति शास्त्र में निपुण मन्त्रि शिरोमणि उसे सर्वथा गुप्त रखें ॥ 16 ॥

कच्चिन्निद्रावशं नैषि कच्चित् कालेऽवबुध्यसे।

कच्चिच्चापररात्रेषु चिन्तयस्यर्थनैपुणम् ॥ 17 ॥

‘भरत ! तुम असमय में ही निद्रा के वशीभूत तो नहीं होते? समय पर जाग जाते हो न? रात के पिछले पहर में अर्थ-सिद्धि के उपाय पर विचार करते हो न? ॥ 17 ॥

तुम्हारी गुप्त बातें दूसरों तक तो नहीं पहुँच जातीं हैं?

कच्चिन्मन्त्रयसे नैकः कच्चिन्न बहुभिः सह।

कच्चित् ते मन्त्रितो मन्त्रो राष्ट्र न परिधावति ॥ 18 ॥

(कोई भी गुप्त मन्त्रणा दो से चार कानों तक ही गुप्त रहती है; छः कानों में जाते ही वह फूट जाती है, अतः मैं पूछता हूँ) तुम किसी गूढ़ विषय पर अकेले ही तो विचार नहीं करते? अथवा बहुत लोगों के साथ बैठकर तो मन्त्रणा नहीं करते? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम्हारी निश्चित की हुई गुप्त मन्त्रणा फूटकर शत्रु के राज्य तक फैल जाती हो? ॥ 18 ॥

कच्चिदर्थे विनिश्चित्य लघुमूलं महोदयम्।

क्षिप्रमारभसे कर्म न दीर्घयसि राघव ॥ 19 ॥

‘रघुनन्दन ! जिसका साधन बहुत छोटा और फल बहुत बड़ा हो, ऐसे कार्य का निश्चय करने के बाद तुम उसे शीघ्र प्रारम्भ कर देते हो न? उसमें विलम्ब तो नहीं करते? ॥ 19 ॥

कच्चिन्नु सुकृतान्येव कृतरूपाणि वा पुनः।

विदुस्ते सर्वकार्याणि न कर्तव्यानि पार्थिवाः ॥ 20 ॥

‘तुम्हारे सब कार्य पूर्ण हो जाने पर अथवा पूरे होने के समीप पहुँचने पर ही दूसरे राजाओं को ज्ञात होते हैं न? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम्हारे भावी कार्यक्रम को वे पहले ही जान लेते हों? ॥ 20 ॥

कच्चिन्न तर्कैर्युत्क्तया वा ये चाप्यपरिकीर्तिताः ।

त्वया वा तव वामात्यैर्बुध्यते तात मन्त्रितम् ॥ 21 ॥

‘तात! तुम्हारे निश्चित किए हुए विचारों को तुम्हारे या मन्त्रियों के प्रकट न करने पर भी दूसरे लोग तर्क और युक्तियों के द्वारा जान तो नहीं लेते हैं? (तथा तुमको और तुम्हारे मंत्रियों को दूसरों के गुप्त विचारों का पता लगता रहता है न?) ।। 21 ।।

तुम मूर्खों का तो साथ नहीं करते?

सैकड़ों मूर्खों से एक ज्ञानी भला

कश्चित् सहस्त्रैर्मूर्खाणामेकमिच्छसि पण्डितम्।

पण्डितो ह्यर्थकृच्छ्रेषु कुर्यान्निःश्रेयसं महत् ॥ 22 ॥

‘क्या तुम सहस्त्रों मूर्खों के बदले एक पण्डित को ही अपने पास रखने की इच्छा रखते हो? क्योंकि विद्वान् पुरुष ही अर्थसंकट के समय महान् कल्याण कर सकता है ॥ 22 ॥

सहस्राण्यपि मूर्खाणां यद्युपास्ते महीपतिः।

अथवाप्ययुतान्येव नास्ति तेषु सहायता ॥ 23 ॥

‘यदि राजा हजार या दस हजार मूर्खों को अपने पास रख ले तो भी उनसे अवसर पर कोई अच्छी सहायता नहीं मिलती ॥ 23 ॥

एकोऽप्यमात्यो मेधावी शूरो दक्षो विचक्षणः।

राजानं राजपुत्रं वा प्रापयेन्महतीं श्रियम् ॥ 24 ॥

‘यदि एक मन्त्री भी मेधावी, शूरवीर, चतुर एवं नीतिज्ञ हो तो वह राजा या राजकुमार को बहुत बड़ी सम्पत्तिकी प्राप्ति करा सकता है ॥ 24 ॥

कच्चिन्मुख्या महत्स्वेव मध्यमेषु च मध्यमाः।

जघन्याश्च जघन्येषु भृत्यास्ते तात योजिताः ॥ 25 ॥

‘तात! तुमने प्रधान व्यक्तियों को प्रधान, मध्यम श्रेणी के मनुष्यों को मध्यम और छोटी श्रेणी के लोगों को छोटे ही कामोंमें नियुक्त किया है न? ॥ 25 ॥

तुम्हारे मंत्री घूसखोर तो नहीं हैं?

अमात्यानुपधातीतान् पितृपैतामहाशुचीन्।

श्रेष्ठाञ्छ्रेष्ठेषु कच्चित् त्वं नियोजयसि कर्मसु ॥ 26 ॥

‘जो घूस न लेते हों अथवा निश्छल हों, बाप-दादों के समय से ही काम करते आ रहे हों तथा बाहर-भीतर से पवित्र एवं श्रेष्ठ हों, ऐसे मंत्रियों को ही तुम उत्तम कार्यों में नियुक्त करते हो न? ॥ 26 ॥

कच्चिन्नोग्रेण दण्डेन भृशमुद्वेजिताः प्रजाः।

राष्ट्रे तवावजानन्ति मन्त्रिणः कैकयीसुत ॥ 27 ॥

‘कैकेयी कुमार! तुम्हारे राज्य की प्रजा कठोर दण्ड से अत्यन्त उद्विग्न होकर तुम्हारे मन्त्रियों का तिरस्कार तो नहीं करती? ॥ 27 ॥

तुम्हारा सेनापति कैसा है?

कच्चिद् धृष्टश्च शूरश्च धृतिमान् मतिमान्छुचिः।

कुलीनश्चानुरक्तश्च दक्षः सेनापतिः कृतः ॥ 30 ॥

‘क्या तुमने सदा संतुष्ट रहनेवाले, शूर-वीर, धैर्यवान्, बुद्धिमान्, पवित्र, कुलीन एवं अपनेमें अनुराग रखने वाले, रणकर्मदक्ष पुरुष को ही सेनापति बनाया है? ॥ 30 ॥

बलवन्तश्च कच्चित् ते मुख्या युद्धविशारदाः।

दृष्टापदाना विक्रान्तास्त्वया सत्कृत्य मानिताः ॥ 31 ॥

‘तुम्हारे प्रधान-प्रधान योद्धा (सेनापति) बलवान्, युद्ध- कुशल और पराक्रमी तो हैं न? क्या तुमने उनके शौर्यकी परीक्षा कर ली है? तथा क्या वे तुम्हारे द्वारा सत्कारपूर्वक सम्मान पाते रहते हैं? ॥ 31 ॥

तुम अपने सैनिकों को वेतन देने में देरी तो नहीं करते?

कच्चिद् बलस्य भक्तं च वेतनं च यथोचितम्।

सम्प्राप्तकालं दातव्यं ददासि न विलम्बसे ॥ 32 ॥

‘सैनिकों को देने के लिए नियत किया हुआ समुचित वेतन और भत्ता तुम समय पर दे देते हो न? देने में विलम्ब तो नहीं करते? ॥ 32 ॥

कालातिक्रमणे ह्येव भक्तवेतनयोर्भूताः।

भर्तुरप्यतिकुप्यन्ति सोऽनर्थः सुमहान् कृतः ॥ 33 ॥

‘यदि समय बिताकर भत्ता और वेतन दिये जाते हैं तो सैनिक अपने स्वामी पर भी अत्यन्त कुपित हो जाते हैं और इसके कारण बड़ा भारी अनर्थ घटित हो जाता है ॥ 33 ॥

कच्चित् सर्वेऽनुरक्तास्त्वां कुलपुत्राः प्रधानतः।

कञ्चित् प्राणांस्तवार्थेषु संत्यजन्ति समाहिताः ॥ 34 ॥

‘क्या उत्तम कुल में उत्पन्न मन्त्री आदि समस्त प्रधान अधिकारी तुमसे प्रेम रखते हैं? क्या वे तुम्हारे लिये एकचित्त होकर अपने प्राणोंका त्याग करनेके लिये उद्यत रहते हैं? ॥ 34 ॥

तुमने राजदूत कैसे लोगों को बनाया है?

कञ्चिजानपदो विद्वान् दक्षिणः प्रतिभानवान्।

यथोक्तवादी दूतस्ते कृतो भरत पण्डितः ॥ 35 ॥

‘भरत ! तुमने जिसे राजदूत के पद पर नियुक्त किया है,वह पुरुष अपने ही देश का निवासी, विद्वान्, कुशल, प्रतिभाशाली और जैसा कहा जाय, वैसी ही बात दूसरे के सामने कहनेवाला और सदसद्विवेकयुक्त है न? ॥ 35 ॥

कच्चिद् व्यपास्तानहितान् प्रतियातांश्च सर्वदा।

दुर्बलाननवशाय वर्तसे रिपुसूदन ॥ 37 ॥

तुम अपने पिछले शत्रुओं को दुर्बल तो नहीं समझते हो?

‘शत्रुसूदन ! जिन शत्रुओं को तुमने राज्य से निकाल दिया है, वे यदि फिर लौटकर आते हैं तो तुम उन्हें दुर्बल समझ कर उनकी उपेक्षा तो नहीं करते? ॥ 37 ॥

तुम कभी नास्तिक ब्राह्मणों का संग तो नहीं करते हो?

कञ्चिन्न लोकायतिकान् ब्राह्मणांस्तात सेवसे।

अनर्थकुशला ह्येते बालाः पण्डितमानिनः ॥ 38 ॥

‘तात ! तुम कभी नास्तिक ब्राह्मणों का संग तो नहीं करते हो? क्योंकि वे बुद्धि को परमार्थ की ओर से विचलित करने में कुशल होते हैं तथा वास्तव में अज्ञानी होते हुए भी अपने को बहुत बड़ा पण्डित मानते हैं॥ 38 ॥

धर्मशास्त्रेषु मुख्येषु विद्यमानेषु दुर्बुधाः।

बुद्धिमान्वीक्षिकीं प्राप्य निरर्थे प्रवद‌न्ति ते ॥ 39 ॥

‘उनका ज्ञान वेद के विरुद्ध होने के कारण दूषित होता है और वे प्रमाणभूत प्रधान-प्रधान धर्मशास्त्रों के होते हुए भी तार्किक बुद्धि का आश्रय लेकर व्यर्थ बकवास किया करते हैं। ॥ 39 ॥

कृषि और गोरक्षा करने वाले वैश्य तो तुम्हें प्रिय हैं न?

कश्चित् ते दयिताः सर्वे कृषिगोरक्षजीविनः।

वार्तायां संथितस्तात लोकोऽयं सुखमेधते ॥ 47 ॥

‘तात ! कृषि और गोरक्षा से आजीविका चलाने वाले सभी वैश्य तुम्हारे प्रीतिपात्र (प्रिय) हैं न? क्योंकि कृषि और व्यापार आदि- में संलग्न रहने पर ही यह लोक सुखी एवं उन्नतिशील होता है ॥ 47 ॥

तेषां गुप्तिपरीहारैः कञ्चित् ते भरणं कृतम्।

रक्ष्या हि राज्ञा धर्मेण सर्वे विषयवासिनः ॥ 48 ॥

‘उन वैश्यों को इष्ट की प्राप्ति करा कर और उनके अनिष्ट का निवारण करके तुम उन सब लोगों का भरण-पोषण तो करते हो न? क्योंकि राजा को अपने राज्य में निवास करने वाले सब लोगों का धर्मानुसार पालन करना चाहिए ।। 48 ॥

कञ्चिद् दर्शयसे नित्यं मानुषाणां विभूषितम्।

उत्थायोत्थाय पूर्वाले राजपुत्र महापथे॥ 51 ॥

तुम रोजाना नगरवासियों की सुनते तो हो न?

‘राजकुमार ! क्या तुम प्रतिदिन पूर्वाह्नकाल में वस्त्राभूषणों से विभूषित हो प्रधान सड़क पर जा-जाकर नगरवासी मनुष्यों को दर्शन देते हो? ॥ 51 ॥

कच्चिद् दुर्गाणि सर्वाणि धनधान्यायुधोदकैः।

यन्त्रैश्च प्रतिपूर्णानि तथा शिल्पिधनुर्धरैः ॥ 53 ॥

‘क्या तुम्हारे सभी दुर्ग (किले) धन-धान्य, अस्त्र- शस्त्र, जल, यन्त्र (मशीन), शिल्पी तथा धनुर्धर सैनिकों से भरे-पूरे रहते हैं? ॥ 53 ॥

तुम्हारा धन कुपात्रों के हाथों में तो नहीं चला जाता?

आयस्ते विपुलः कञ्चित् कच्चिदल्पतरो व्ययः।

अपात्रेषु न ते कच्चित् कोषो गच्छति राघव ॥ 54 ॥

‘रघुनन्दन! क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय बहुत कम है? तुम्हारे खजाने का धन अपात्रों के हाथ में तो नहीं चला जाता? ॥ 54 ॥

देवतार्थे च पित्रर्थे ब्राह्मणाभ्यागतेषु च।

योधेषु मित्रवर्गेषु कच्चिद् गच्छति ते व्ययः ॥ 55 ॥

‘देवता, पितर, ब्राह्मण, अभ्यागत (मेहमान), योद्धा तथा मित्रों के लिए ही तो तुम्हारा धन खर्च होता है न? ॥ 55 ।।

कच्चिदार्योऽपि शुद्धात्मा क्षारितश्चापकर्मणा।

अदृष्टः शास्त्रकुशलैर्न लोभाद् बध्यते शुचिः ॥ 56 ॥

तुम्हारे राज्य में कोई निर्दोष तो दण्डित नहीं हो जाता?

‘कभी ऐसा तो नहीं होता कि कोई मनुष्य किसी श्रेष्ठ, निर्दोष और शुद्धात्मा पुरुष पर भी दोष लगा दे तथा शास्त्र ज्ञान में कुशल विद्वानों द्वारा उसके विषय में विचार कराए बिना ही लोभवश उसे आर्थिक दण्ड दे दिया जाता हो? ॥ 56 ॥

कोई अपराधी घूस लेकर छोड़ तो नहीं दिया जाता?

गृहीतश्चैव पृष्टश्च काले दृष्टः सकारणः।

कच्चिन्न मुच्यते चोरो धनलोभान्नरर्षभ ॥ 57 ॥

‘नरश्रेष्ठ ! जो चोरी में पकड़ा गया हो, जिसे किसी ने चोरी करते समय देखा हो, पूछताछ से भी जिसके चोर होने का प्रमाण मिल गया हो तथा जिसके विरुद्ध (चोरी का माल बरामद होना आदि) और भी बहुत से कारण (सबूत) हों, ऐसे चोर को भी तुम्हारे राज्य में धन के लालच से छोड़ तो नहीं दिया जाता है? ॥ 57 ॥

व्यसने कच्चिदाढ्यस्य दुर्बलस्य च राघव।

अर्थ विरागाः पश्यन्ति तवामात्या बहुश्रुताः ॥ 58 ॥

‘रघुकुलभूषण ! यदि धनी और गरीब  में कोई विवाद छिड़ा हो और वह राज्य के न्यायालय में  निर्णय के लिए आया हो तो तुम्हारे बहुज्ञ (अच्छे जानकर) मन्त्री धन आदि के लोभ को छोड़ कर उस मामले पर विचार करते हैं न? ॥ 58 ॥

यानि मिथ्याभिशस्तानां पतन्त्यश्रूणि राघव।

तानि पुत्रपशून् घ्नन्ति प्रीत्यर्थमनुशासतः ॥ 59 ॥

 

‘रघुनन्दन ! निरपराध होने पर भी जिन्हें मिथ्या दोष लगाकर दण्ड दिया जाता है, उन

मनुष्यों की आँखों से जो आँसू गिरते हैं, वे पक्षपातपूर्ण राजा के पुत्र और पशुओं का नाश कर

हैं॥ 59 ॥

तुम वृद्धों, वैद्यों को धन दान तो करते हो न?

कच्चिद् वृद्धांश्च बालांश्च वैद्यान् मुख्यांश्च राघव।

दानेन मनसा वाचा त्रिभिरेतैर्बुभूषसे ॥ 60 ॥

‘राघव ! क्या तुम वृद्ध पुरुषों, बालकों और प्रधान-प्रधान वैद्यों का आन्तरिक अनुराग, मधुर वचन और धन-दान – इन तीनों के द्वारा सम्मान करते हो? ॥ 60 ॥

कच्चिद् गुरूंश्च वृद्धांश्च तापसान् देवतातिथीन्।

चैत्यांश्च सर्वान् सिद्धार्थान् ब्राह्मणांश्च नमस्यसि ॥ 61 ॥

‘गुरुजनों, वृद्धों, तपस्वियों, देवताओं, अतिथियों, चैत्य वृक्षों और समस्त पूर्णकाम ब्राह्मणों को नमस्कार करते हो न? ॥ 61 ॥

(चैत्य का मतलब होता है गाँव का वह बड़ा पेड़ जिसके नीचे ग्राम देवता की वेदी, देवालय या चबूतरा हो)

कच्चिदर्थेन वा धर्ममर्थ धर्मेण वा पुनः।

उभौ वा प्रीतिलोभेन कामेन न विबाधसे ॥ 62 ॥

‘तुम अर्थ के द्वारा धर्म को अथवा धर्म के द्वारा अर्थ को हानि तो नहीं पहुँचाते? अथवा आसक्ति और लोभ रूप काम के द्वारा धर्म और अर्थ दोनों में बाधा तो नहीं आने देते? ॥ 62 ॥

तुम्हारा टाइम मनेजमेंट तो सही रहता है न?

कञ्चिदर्थ च कामं च धर्म च जयतां वर।

विभज्य काले कालक्ष सर्वान् वरद सेवसे ॥ 63 ॥

‘विजयी वीरों में श्रेष्ठ, समयोचित कर्तव्य के ज्ञाता तथा दूसरों को वर देने में समर्थ भरत! क्या तुम समय का विभाग करके धर्म, अर्थ और काम का योग्य समय में सेवन करते हो? ।। 63 ॥

शास्त्रों के जानकार तुम्हारा कल्याण तो चाहते हैं न?

कच्चित् ते ब्राह्मणाः शर्म सर्वशास्त्रार्थकोविदाः।

आशंसन्ते महाप्राज्ञ पौरजानपदैः सह ॥ 64 ॥

‘महाप्राज्ञ! सम्पूर्ण शास्त्रों के अर्थ को जानने वाले ब्राह्मण पुरवासी और जनपद वासी तथा अन्य मनुष्य तुम्हारे कल्याण की कामना करते हैं न? ॥ 64 ॥

तुम इन-इन दोषों से बचे तो रहते हो न?

नास्तिक्यमनृतं क्रोधं प्रमादं दीर्घसूत्रताम्।

अदर्शनं ज्ञानवतामालस्यं पञ्चवृत्तिताम् ॥ 65 ॥

एकचिन्तनमर्थानामनर्थशैश्च मन्त्रणम्।

निश्चितानामनारम्भं मन्त्रस्यापरिरक्षणम् ॥ 66 ॥

 

मङ्गलाद्यप्रयोगं च प्रत्युत्थानं च सर्वतः।

कच्चित् त्वं वर्जयस्येतान् राजशेषांश्चतुर्दश ॥ 67 ॥

‘नास्तिकता, असत्य-भाषण, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, ज्ञानी पुरुषों का संग न करना, आलस्य, नेत्र आदि पाँचों इन्द्रियों के वशीभूत होना, राजकार्यों के विषय में अकेले ही विचार करना, प्रयोजन को न समझने वाले विपरीतदर्शी मूर्खों से सलाह लेना, निश्चित किए हुए कार्यों को  शीघ्र प्रारम्भ न करना, गुप्त मन्त्रणा को सुरक्षित न रखकर प्रकट कर देना, मांगलिक आदि कार्यों का अनुष्ठान न करना तथा सब शत्रुओं पर एक ही साथ चढ़ाई कर देना – ये राजाके चौदह दोष हैं। तुम इन दोषों का सदा परित्याग करते हो न? ॥ 65-67 ॥

काम से उत्पन्न होने वाले ये दोष राजा के लिये त्याज्य हैं: शिकार खेलना, जुआ खेलना, दिन में सोना, दूसरों की निन्दा करना, स्त्री में आसक्त होना. मद्यपान, नाचना, गाना, बाजा बजाना और व्यर्थ घूमना। … ॥ 68-70 ।।

मन्त्रिभिस्त्वं यथोद्दिष्टं चतुर्भिस्त्रिभिरेव वा।

कच्चित् समस्तैर्व्यस्तैश्च मन्त्रं मन्त्रयसे बुध ॥71॥

‘विद्वन्! क्या तुम नीति शास्त्र की आज्ञा के अनुसार चार या तीन मन्त्रियों के साथ – सबको एकत्र करके अथवा सबसे अलग-अलग मिलकर सलाह करते हो? ॥71॥

तुम स्वादिष्ट भोजन अकेले ही तो नहीं खा जाते?

कच्चित् स्वादुकृतं भोज्यमेको नाश्नासि राघव।

कश्चिदाशंसमानेभ्यो मित्रेभ्यः सम्प्रयच्छसि ॥ 75 ॥

‘रघुनन्दन । तुम स्वादिष्ट अन्न अकेले ही तो नहीं खा जाते?  उसकी आशा रखने वाले मित्रों को भी देते हो न? ॥ 75 ॥

राजा तु धर्मेण हि पालयित्वा महीपतिर्दण्डधरः प्रजानाम् ।

अवाप्य कृत्स्नां वसुधां यथाव- दितश्च्युतः स्वर्गमुपैति विद्वान् ॥ 76 ॥

‘इस प्रकार धर्म के अनुसार चलने वाला विद्वान् राजा सभी प्रजाओं का पालन करके समूची पृथ्वी को यथावत् रूप से अपने अधिकार में कर लेता है तथा देहत्याग करने के पश्चात् स्वर्ग लोक में जाता है’ ॥ 76 ॥

अंत में …

इस लेख के प्रारम्भ में ही बताया गया कि राम कथाएँ बहुत से विद्वानों और भक्तों ने लिखी हैं।  परन्तु राजा के गुणों और अवगुणों को इतने विस्तार से अनेक रामायणों में नहीं लिखा गया है। वाल्मीकीय रामायण को दो खण्डों में पहली  बार गीता प्रेस ने हिन्दी अनुवाद सहित संवत् 2017 में प्रकाशित किया था। गीता प्रेस के लिए इसका संस्कृत से हिन्दी में भाषान्तर पाण्डेय पं. राम नारायणदत्त शास्त्री ‘राम’ दवारा किया गया था। उपर्युक्त लेख में काफी हद तक उसी भाषान्तर का प्रयोग किया गया है।

(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)