सुरेंद्र किशोर।
आपातकाल की घोषणा (25 जून 1975) के साथ ही संजय गांधी यह चाहते थे कि तमाम हाईकोर्ट अगले दिन बंद कर दिए जाएं। अखबारों की बिजली काट दी जाए।
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय इस राय के नहीं थे। हालांकि देश में आपातकाल लगाने की सलाह सिद्धार्थ शंकर राय ने ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दी थी। श्रीमती गांधी की लोक सभा सदस्यता बचाने का यही एक उपाय उन्हें नजर आया थ। आपातकाल की घोषणा के संबंध में रेडियो पर पढ़ने के लिए प्रधानमंत्री का जो भाषण तैयार हुआ था, उसे डी.के. बरूआ और सिद्धार्थ शंकर राय के साथ मिलकर इंदिरा गांधी ने तैयार किया था। बरूआ ने नारा दिया था- ‘‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा।’’
आपातकाल की भीषण ज्यादतियों की, जिसका शिकार इन पंक्तियों का लेखक भी हुआ था, जांच के लिए मोरारजी देसाई के नेतृत्ववाली जनता पार्टी सरकार ने 1977 में शाह आयोग का गठन किया था। आयोग ने 1978 में जो अपनी रपट तैयार की थी, उसमें उस समय की राजनीतिक व प्रशासनिक हलचलों का विवरण इन शब्दों में दिया गया, “भाषण तैयार करने के बाद जब श्री राय कमरे से बाहर आ रहे थे तो वे केंद्रीय गृह राज्य मंत्री श्री ओम मेहता से यह सुनकर आश्चर्यचकित हो गये कि अगले दिन उच्च न्यायालयों को बंद करने तथा सभी समाचार पत्रों को बिजली की सप्लाई बंद करने के आदेश दे दिए गए हैं। ऐसा आदेश संजय की सलाह पर दिया गया था।’’
आज जब यह कहा जा रहा है कि देश की स्थिति आपातकाल के ठीक पहले जैसी ही हो रही है और जारी चुनाव के बाद संविधान बदल दिया जाएगा, तो एक बार फिर उस काले आपातकाल की कहानी दुहरा लेना मौजूं होगा। याद रहे कि सन 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक निर्णय से सख्त नाराज थीं जिसके तहत रायबरेली से उनके लोकसभा चुनाव को रद्द कर दिया गया था। इंदिरा गांधी पर चुनाव में सत्ता के दुरुपयोग का आरोप साबित हो गया था।
शाह आयोग की रपट की चर्चा कर ली जाए। गृह राज्यमंत्री ओम मेहता की बात पर सिद्धार्थ शंकर राय को इसलिए आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्होंने इंदिरा गांधी से कहा था कि आपातस्थिति में भी जब तक नियम नहीं बनाये जाते हैं, तब तक कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है।
श्री राय ने शाह आयोग को बताया कि वहां उपस्थित व्यक्तियों से उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालयों को बंद करना तथा समाचार पत्रों की बिजली काटना बिलकुल संभव नहीं है।
वे वहां रुके रहे क्योंकि वे श्रीमती गांधी को अपनी प्रतिक्रिया बताना चाहते थे। उन्होंने कहा कि मैं यहां से हटने के लिए तैयार नहीं हूं जब तक कि श्रीमती गांधी मुझसे मिल नहीं लेतीं। क्योंकि जो कुछ भी हो रहा था, वह बहुत महत्वपूर्ण था। श्रीमती गांधी को लौटने में देर हुई और जब वे वहां इंतजार कर रहे थे तो श्री संजय गांधी बहुत ही उत्तेजित और क्रोधित अवस्था में उनसे मिले और अत्यंत ही बदतमीजी और गुस्ताखी से कहा कि वे (श्री राय) यह नहीं जानते कि देश पर शासन कैसे किया जाता है।
सिद्धार्थ शंकर राय ने गुस्सा न करके संजय गांधी को समझाया कि उनको अपने काम से काम रखना चाहिए और जो उनका क्षेत्र नहीं है, उसमें टांग नहीं अड़ानी चाहिए। (हालांकि वे नहीं माने। पूरे आपातकाल में संजय गांधी संविधानेत्तर सत्ता के केंद्र बन कर ज्यादतियां करते रहे।) बाद में श्रीमती गांधी आईं और श्री राय ने उनसे कहा कि ऐसा नहीं होना चाहिए। श्रीमती गांधी ने भी कहा कि हाईकोर्ट बंद नहीं होना चाहिए और अखबारों की बिजली नहीं कटनी चाहिए। यह और बात है कि संजय गांधी के प्रभाव में काम कर रहे हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसी लाल ने अपने राज्य के अखबार की बिजली कटवा दी।
इमरजेंसी के अत्याचारों की कहानियां अनंत हैं। पर एक महत्वपूर्ण बात कहनी जरूरी है। वह यह कि इंदिरा सरकार ने तब बोलने-लिखने का अधिकार कौन कहे, लोगों के जीने तक का अधिकार भी छीन लिया था। यह बात केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को साफ-साफ बता दी थी। भयभीत सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार के इस कदम को स्वीकार कर लिया था। पूरे देश को जेलखाने में परिणत कर दिया गया था।
ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ था क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की संसद की सदस्यता को भ्रष्टाचरण के आरोप में रद कर दिया था। जिस दल ने खुद 1975-77 में संविधान की धज्जियां उड़ाईं, उसे यह आंशका हो रही है कि कहीं मोदी सरकार भी वैसा ही कुछ कर न दे। यह भय स्वाभाविक है। क्योंकि भीषण भ्रष्टाचार और देश तोड़क जेहादी गतिविधियों की समस्याओं से भारत की रक्षा के लिए इस चुनाव के बाद मोदी सरकार को कुछ बड़े और अभूतपूर्व कदम तो उठाने ही पड़ेंगे। चाहे उन कदमों के बुलडोजर के नीचे जो भी आ जाए ! कोई भी ईमानदार व देशभक्त सरकार देश को धर्मशाला बनते नहीं देख सकती।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)