प्रदीप सिंह।
कहा गया है कि ’लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई।‘ लोकसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान हो, या किसी भी चुनाव का मतदान हो, उसमें जो घर बैठ जाते हैं, आराम फरमाते हैं, छुट्टी मनाते हैं, वोट देने के लिए नहीं जाते हैं- ऐसे लोग अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से विमुख हैं। उन्हें यह अंदाजा भी नहीं होता कि वे जो कर रहे हैं उसकी सजा कई पीढ़ियों को मिलेगी।
आप जिस सरकार को चुनना चाहते हैं, जिस पार्टी को वोट देना चाहते हैं, जिस नेता को वोट देना चाहते हैं- अगर आप वोट देने के लिए नहीं निकलते तो यह गलती नहीं, अपराध है। संविधान में, कानून में यह व्यवस्था होनी चाहिए कि ऐसे लोगों को इस अपराध की सजा मिले। बहस हो रही है कि कम मतदान किसके पक्ष में गया किसके खिलाफ गया। इससे कोई मतलब नहीं है किसी के पक्ष में गया हो किसी के खिलाफ गया हो। बात यह है कि मतदान में हिस्सा ना लेने का नतीजा क्या होता है? उसको मैं एक सच्ची घटना के जरिए आपको बताना चाहता हूं। वह गलती जो कुछ लोगों ने की थी, उसकी सजा कितने लोगों ने भुगती और कैसे भुगती।
जिक्र 1946 का है। बंटवारे के पहले का। सियालकोट का नाम आपने नाम सुना होगा। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का एक जिला है सियालकोट। लाहौर से उसकी दूरी है 135 किमी और जम्मू से सिर्फ 42 किमी है। गोपीनाथ बारदोली देश के नेता थे खासतौर से असम के बड़े नेताओं में थे। जब देश का बंटवारा हो रहा था उस समय वह चाहते थे कि सियालकोट भारत में रहे।
सियालकोट उस समय हिंदू बहुल या हिंदू बहुसंख्यक जनसंख्या वाला इलाका था। फिर भी तय हुआ कि इसका फैसला जनमत संग्रह से होगा। जनमत संग्रह की तारीख तय हो गई, वोट का तरीका तय हो गया। जब मतदान शुरू हुआ तो मुसलमान सुबह से उठकर लाइन में लग गए और सबसे पहले वोट देकर आए। लंबी लंबी लाइने लग गई। और हिंदुओं ने क्या किया? वे आराम से उठे, खाया पिया, आराम किया, उसके बाद दोपहर मतदान केंद्र करीब पहुंचे तो देखा कि बड़ी लंबी लंबी लाइनें लगी हैं। तो आधे लोग तो लंबी लाइनों को देखकर ही घर लौट गए कि बेकार है, इतनी देर तक कौन इंतजार करेगा। फिर कुछ लोग थे जो लाइनों को देखते रहे और इस इंतजार में थोड़ी देर खड़े रहे कि शायद यह लाइन छोटी हो जाए, भीड़ कम हो जाए, जल्दी वोट देने का मौका आ जाए तो वोट देकर जाएंगे। लेकिन वो भी थोड़ी देर बाद थक गए। या कहिए उनको अपने आराम की याद आ गई। वो भी लाइनें छोड़कर या लाइन में शामिल हुए बिना घर लौट गए, वोट नहीं दिया।
इस जनमत संग्रह का नतीजा आया। नतीजा यह आया कि 55 हजार मतों से यह प्रस्ताव पास हुआ कि सियालकोट को पाकिस्तान में शामिल किया जाए। सियालकोट भारत में शामिल होते होते पाकिस्तान में चला गया… मालूम है क्यों? एक लाख हिंदुओं ने वोट नहीं किया। उस समय सियालकोट में हिंदुओं की कुल आबादी थी 2 लाख 31 हजार। उसमें से एक लाख ने वोट नहीं दिया। 55 हजार से यह प्रस्ताव गिर गया। उसके बाद आपको याद होगा कि 1946 का 16 अगस्त का दिन। जब जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन की कॉल दी। उसका कहर सियालकोट में भी बरपा। हिंदू औरतों की इज्जत लूटी गई, हत्या की गई, बड़े पैमाने पर कत्लेआम हुआ और जो लोग आराम करने के लिए घर गए थे वे हमेशा के लिए आराम की नींद सुला दिए गए। 1941 के जनगणना के आंकड़ों के अनुसार सियालकोट में हिन्दू पापुलेशन 2 लाख 31 हजार थी। उसके दस साल बाद 1951 में जब फिर सेंसस जनगणना हुई तो उसके मुताबिक सियालकोट में हिंदुओं की आबादी केवल दस हजार बची। और 2017 की फिगर के अनुसार सियालकोट में हिंदुओं की आबादी सिर्फ 500 है। आज पता नहीं एक भी हिंदू वहां है या नहीं है।
उस दिन अगर सियालकोट के हिंदुओं ने वोट दिया होता तो सियालकोट हिंदुस्तान में होता। वहां जो हिंदू थे वे सब जिंदा होते। वोट ना देने का क्या असर हुआ यह आप इस बात से समझिए कि यह सोचकर हमारे एक वोट न देने से क्या होता है, क्या उसका नतीजा होता है उसका सबसे बड़ा उदाहरण है सियालकोट। असल में हिंदू समाज बड़ा आलसी समाज है। वो राष्ट्रीय मुद्दों पर उस तरह से कभी उत्तेजित नहीं होता, उस तरह की निष्ठा नहीं दिखाता। उसको लगता है कि हमारा व्यक्तिगत हित सधे उस काम में हमारी रुचि है। सबसे अफसोस की बात यह है कि हिंदू समाज का पढ़ा लिखा वर्ग ज्यादा आलसी है। मतदान की तुलना में छुट्टी मनाना, घर में आराम करना ज्यादा पसंद करता है। आप चुनाव दर चुनाव देखिए शहरी इलाकों खासतौर से बड़े शहरों में मतदान का प्रतिशत सबसे कम होता है। मेरा मानना है कि अगर जनतंत्र को किसी ने बचा कर रखा है तो ग्रामीणों ने बचा कर रखा है। ग्रामीण लोग, जो कम पढ़े लिखे हैं, जिनको नासमझ समझा जाता है- दरअसल इस देश में जनतंत्र के सबसे बड़े रक्षक वही लोग हैं। शहरी वोट देने जाएंगे नहीं और नरेंद्र मोदी से अपेक्षा करेंगे कि वह देश में क्रांति कर दे, सब कुछ बदल दे, लेकिन हमसे वोट देने के लिए ना कहे, हम वोट देने के लिए नहीं निकलेंगे।
कम से कम अतीत से, इतिहास से सबक सीखिए एक वोट ना देने से सियालकोट का क्या हुआ? सियालकोट के हिंदुओं का क्या हुआ? इससे अगर आप सबक नहीं ले सकते, आपको जमीनी हकीकत समझ में नहीं आती तो आप उसी उसी गति को प्राप्त करने के लिए अभिशप्त हैं जिस गति को सियालकोट के हिंदू प्राप्त हुए। अब सियालकोट पाकिस्तान का सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा कमाने वाला इलाका है। वहां सर्जिकल इंस्ट्रूमेंट बनते हैं, म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स की मैन्युफैक्चरिंग होती है। उसके अलावा स्पोर्ट्स गुड्स की मैन्युफैक्चरिंग होती है। वह पाकिस्तान का मैन्युफैक्चरिंग का बहुत बड़ा हब है। आप समझिए कि हमने क्या खोया, कितनी बड़ी कीमत चुकाई है।
आज का दौर हिंदू पुनर्जागरण का दौर है। सनातन धर्म की पुनर्स्थापना का दौर है। अगर आप नरेंद्र मोदी के खिलाफ हैं तो निकलकर उनके खिलाफ वोट दीजिए, लेकिन वोट दीजिए। अगर मोदी के पक्ष में हैं और उनके हाथ मजबूत करना चाहते हैं तो उनके पक्ष में वोट दीजिए। किसी को वोट दीजिए लेकिन वोट जरूर दीजिए।
दलों और प्रत्याशियों की छोड़िए, देश जरूर हताश और निराश है कि लोग वोट देने की अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है। जब-जब आपके मन में ख्याल आए कि एक वोट से क्या फर्क पड़ेगा, हम वोट नहीं देंगे तो क्या अंतर आ जाएगा, नतीजा तो तय है… तब-तब आप सियालकोट की घटना को याद कीजिए। सियालकोट के हिंदुओं ने अगर इस तरह से ना सोचा होता, अगर आराम की तलाश में घर न लौट गए होते, तो आज सियालकोट के हिंदू और उनकी आने वाली पीढ़ियां जिंदा होती और भारत का हिस्सा होतीं। उनका भविष्य क्या होता यह आप अच्छी तरह से समझ सकते हैं। उनकी उस एक गलती, एक अपराध की सजा कई पीढ़ियों ने भुगती। वोट देने से अच्छा है छुट्टी मनाना, घर में आराम-मौजमस्ती करना- इसका कितना बड़ा नुकसान पूरे देश, समाज और कौम को भुगतना पड़ता है, इस बात को और अगर किसी और से नहीं सीख सके तो अपने मुस्लिम भाइयों से सीखिए। जब भी विधानसभा, लोकसभा या कोई और स्थानीय निकाय के चुनाव का मतदान होता है- और इस पहले चरण के मतदान में भी- मुस्लिम बहुल इलाकों में मतदान का प्रतिशत सबसे ज्यादा होता है। उनको मालूम है कि वोट का अधिकार का मतलब क्या है। वोट के अधिकार की ताकत कितनी बड़ी है।
सियालकोट की घटना मैंने इसलिए बताई कि आप इतिहास की ओर जरा पलट कर देखें और इस बात को समझे कि एक गलती, अपराध की सजा कितनी बड़ी होती है। कितने लोगों को और कितने समय तक भुगतनी पड़ती है। आप कोशिश कीजिए कि यह नौबत दोबारा ना आए।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और आपका अख़बार के संपादक हैं)