सौवीं जयंती पर विशेष
आपका अखबार ब्यूरो।
अपने आंचलिक परिवेश और मिट्टी से जुड़े महान साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु (4 मार्च 1921- 11 अप्रैल 1977) को हमारे बीच से गए 43 वर्ष हो गए हैं। बिहार के अररिया जिले में फॉरबिसगंज के पास औराही हिंगना गाँव में रेणु का जन्म हुआ। उस समय यह पूर्णिया जिले में था। अपनी कहानियों और उपन्यासों में उन्होंने आंचलिक जीवन के हर धुन, हर गंध, हर लय, हर ताल, हर सुर, हर सुंदरता और हर कुरूपता को शब्दों में बांधने में जैसी सफलता पाई वह आज के सभी लेखकों के लिए मील का पत्थर है। इनके पहले उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली थी जिसके लिए उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
भाषा-शैली में ऐसा जादुई असर जो पाठकों को अपने साथ बांध कर रखता है और अपने वेग के साथ बहा ले जाता है। रेणु ऐसे अद्भुत किस्सागो थे जिनकी रचनाएं पढ़ते हुए पाठक को कहानी सुनने जैसा आनंद मिलता। खासकर ग्राम्य जीवन के लोकगीतों का कथा साहित्य में उन्होंने अत्यंत सर्जनात्मक प्रयोग किया। कई जाने माने लेखकों, पत्रकारों ने रेणु को याद किया जिसके संपादित अंश यहां प्रस्तुत हैं।
एक थे रेणु
ध्रुव गुप्त
साहित्यकार, पटना।
स्वर्गीय फणीश्वर नाथ रेणु को हिंदी कहानी में देशज समाज की स्थापना का श्रेय प्राप्त है। उनके दो उपन्यासों – ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’ और उनकी दर्जनों कहानियों के पात्रों की जीवंतता, सरलता, निश्छलता और सहज अनुराग हिंदी कथा साहित्य में संभवत: पहली बार घटित हुआ था। हिंदी कहानी में पहली बार लगा कि शब्दों से सिनेमा की तरह दृश्यों को जीवंत भी किया जा सकता है और संगीत की सृष्टि भी की जा सकती है। रेणु ने लोकगीत, ढोल-खंजड़ी, लोकनृत्य, लोकनाटक, लोक विश्वास और किंवदंतियों के सहारे बिहार के कोशी अंचल की जो संगीतमय और जीती-जागती तस्वीर खींची है, उससे गुजरना एक बिल्कुल अलग और असाधारण अनुभव है। उनकी तुलना अक्सर कथासम्राट प्रेमचंद से की जाती है।
प्रेमचंद से आगे के कथाकार
एक अर्थ में रेणु प्रेमचंद से आगे के कथाकार हैं। प्रेमचंद में गांव का यथार्थ है, रेणु में गांव का संगीत। प्रेमचंद को पढ़ने के बाद हैरानी होती है कि इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी किसान अपने गांव और अपने खेत से बंधा कैसे रह जाता है। रेणु का कथा-संसार यह रहस्य खोलता है कि जीवन से मरण तक गांव के घर-घर से उठते संगीत और मानवीय संवेदनाओं की वह नाजुक डोर है जो लोगों में अपनी मिट्टी और रिश्तों के प्रति असीम राग पैदा करती है।
‘तीसरी कसम’ हिंदी सिनेमा का मीलस्तंभ
उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित गीतकार शैलेंद्र द्वारा निर्मित, बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित और राज कपूर-वहीदा रहमान द्वारा अभिनीत फिल्म ‘तीसरी कसम’ को हिंदी सिनेमा का मीलस्तंभ माना जाता है। रेणु की जयंती पर उनकी स्मृतियों को नमन!
मैला आंचल हिन्दी के दस शीर्ष कृतियों में शुमार
वीरेंद्र यादव
साहित्यकार, लखनऊ।
रेणु के बारे में कहा जाता है और साहित्य आलोचना के दिग्गज तक यह लिखते-बोलते रहे हैं कि वे प्रेमचंद की परंपरा के रचनाकार हैं। गांव और ग्रामीण समाज की धड़कन- अनुगूँज उनकी कहानियों एवं उपन्यास (मैला आंचल) में मिलती है। मैला आंचल की लोकप्रियता जन-स्वीकार्यता हिन्दी के दस शीर्ष कृतियों में शुमार की जाती है। चाहे चयनकार किसी भी खेमा का साहित्यसेवी हो।
प्रेमचंद की परंपरा का अपमान
वाजिब सवाल है। प्रेमचंद की परंपरा का वाहक लेखक क्यों सम्मान वंचित हुआ जिसका वह हकदार था। पुरस्कार नहीं मिलना क्या उस परंपरा का अपमान नहीं है?
साहित्य की दुनिया और उसके जीवधारी हिन्दुस्तानी समाज की वास्तविक सच्चाई और उसकी व्याधि जात-पात से पुरी तरह मुक्त हैं? यह सवाल कई मौकों पर उठाया जाता रहा है।
कुछ एक साल पहले हिन्दी में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखकों की सूची (जाति समेत) किसी ने प्रकाशित की। हंगाम उठ खड़ा हुआ। संयोग से अधिसंख्य पुरस्कार प्राप्त ब्राह्मण-वैश्य बताये गये! कुछ सिंह बंधु, कायस्थ भी पुरस्कार सूची की शोभा बढ़ा रहे थे!
निसंदेह इनमें अधिसंख्य का लेखन संरचनागत और गंभीरता के मामले में साहित्य संसार में जुग्नूओं की भांति जगमगाता रहा है, लेकिन कुछ लेखकों के कृतित्व योगदान पर सवाल भी उठाये गये।
विलंबित ध्यानाकर्षण
रेणु-भिखारी ठाकुर दोनों हाशिये के समाज से आते हैं। संयोग है कि उनके नहीं रहने पर उनके रचनात्मक योगदान को केंद्र में लाने का प्रयास किया गया! विलंबित ध्यानाकर्षण के लिये नत माथा सृजन करने वाले शील-संकोची गुनाहगार नहीं हैं! नमन।