प्रदीप सिंह।
उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटों को लेकर यह रहस्य बना हुआ है कि यहां से चुनाव कौन लड़ेगा। ये दोनों सीटें नेहरू गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी की प्रतिष्ठा से जुड़ी हुई हैं। जो खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा दोनों ने अमेठी और रायबरेली से चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है। हालांकि ये खबरें अपुष्ट हैं और किसी ने उनकी आधिकारिक रूप से पुष्टि नहीं की है।
यानी रायबरेली और अमेठी से गांधी परिवार का कोई सदस्य चुनाव नहीं लड़ेगा। रायबरेली से सोनिया गांधी पहले ही चुनाव लड़ने से मना कर चुकी हैं। राज्यसभा में जा चुकी हैं। अमेठी से राहुल गांधी पिछला चुनाव हार गए थे। इस बार फिर से वह वायनाड गए और वहां चुनाव संपन्न हो चुका है। उम्मीद की जा रही थी कि 26 अप्रैल को वायनाड में वोटिंग के बाद राहुल गांधी अमेठी से नॉमिनेशन करने के लिए आएंगे। अमेठी और रायबरेली दोनों सीटों के लिए नॉमिनेशन की आखिरी तारीख 3 मई है और जब हम यह बात कर रहे हैं तो 30 अप्रैल को बात कर रहे हैं। यानी मुश्किल से तीन दिन बचे हैं क्योंकि 3 मई को दोपहर 3 बजे तक ही नॉमिनेशन किया जा सकता है।
कांग्रेस की सेंट्रल इलेक्शन कमेटी की पिछली बैठक में कहा गया था कि इन दोनों सीटों का फैसला पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे पर छोड़ दिया गया है। इससे पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी का वो बयान आपको याद होगा कि मैं पार्टी का अनुशासित सिपाही हूं, पार्टी जो आदेश देगी वह करूंगा। अब कहा जा रहा है कि पार्टी चाहती है कि राहुल गांधी अमेठी से चुनाव लड़ें और प्रियंका वाड्रा रायबरेली से चुनाव लड़ें। लेकिन दोनों चुनाव लड़ने से मना कर रहे हैं। क्यों मना कर रहे हैं? कारण वही है, जिस वजह से सोनिया गांधी चुनाव मैदान में नहीं उतरीं… और वह है हार का डर।
अमेठी हारने के बाद गांधी परिवार के मन में हार का डर समा गया है। प्रियंका वाड्रा जिन्होंने 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में नारा दिया था- ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’। इस चुनाव के लिए उनका अघोषित नारा है- ‘लड़की हूं पर यूपी से नहीं लड़ सकती हूं।’ तो सवाल यह है कि क्यों नहीं लड़ना चाहती हैं। प्रियंका वाड्रा राजनीति में हैं, पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव हैं, उत्तर प्रदेश की प्रभारी रह चुकी हैं और पार्टी के फैसलों में अपने भाई और मां के साथ उनकी बड़ी भूमिका होती है। जो भी राजनीति में है वह चुनाव जरूर लड़ना चाहता है। लेकिन प्रियंका वाड्रा चुनाव क्यों नहीं लड़ना चाहती। उसका सिर्फ एक कारण है कि उनको डर है कि वह चुनाव हार जाएंगी। रायबरेली से अगर चुनाव लड़ेंगी तो भी चुनाव हार जाने का डर है। उनको लगता है कि उनकी चुनावी पारी की शुरुआत हार से नहीं होनी चाहिए।
उनको मालूम है कि उत्तर प्रदेश का माहौल क्या है? उत्तर प्रदेश में माहौल पूरी तरह से भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में है। भारतीय जनता पार्टी दावा कर रही है कि वह 80 में से 80 सीटें जीतेगी। आप मान कर चलिए कि भारतीय जनता पार्टी किसी भी सूरत में 75 से कम सीटें नहीं जीतने वाली। इससे ज्यादा ही जीतेगी। कहां तक यह संख्या जाएगी? क्या 80 तक जाएगी? यह कहना आज मुश्किल है लेकिन यह असंभव नहीं लगता है। सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा तीनों को अच्छी तरह से पता है कि अमेठी और रायबरेली उनके लिए सुरक्षित नहीं रह गया है।
कई तरह की चर्चाएं चल रही हैं। कांग्रेस पार्टी में चर्चा चल रही है कि राहुल गांधी अगर अमेठी से नामांकन करते हैं और प्रियंका वाड्रा रायबरेली से करती हैं… और दोनों हार गए तो उसका संदेश क्या जाएगा? हार से ज्यादा नुकसान होगा या ना लड़ने से ज्यादा नुकसान होगा- इसका आकलन किया जा रहा है। इसी आधार पर कहा जा रहा है कि ना लड़ना कम नुकसानदेह है। नुकसान दोनों में है। नहीं लड़ने से भी नुकसान है। नहीं लड़ने से नुकसान यह है कि पूरे देश में एक संदेश गया कि पार्टी का जो शीर्ष नेतृत्व है वो चुनाव के मैदान में उतरने से डर रहा है। जैसा आज गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि दोनों चुनाव मैदान से भाग गए हैं। अमेठी और रायबरेली छोड़कर भाग गए हैं। यह आजादी के बाद पहली बार होगा नेहरू गांधी परिवार का कोई सदस्य उत्तर प्रदेश की किसी लोकसभा सीट से चुनाव नहीं लड़ रहा होगा। राहुल गांधी का आपको पता है कि वह वायनाड से चुनाव लड़ रहे हैं। वहां पोलिंग हो चुकी है और ज्यादा संभावना है कि वह जीत जाएंगे। पिछली बार जैसा उनके लिए आसान जीत नहीं होगी, लेकिन जीत जाएंगे इसकी संभावना व्यक्त की जा रही है। हालांकि चुनाव के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
राहुल गांधी वायनाड नहीं छोड़ना चाहते। उनको लगता है कि अमेठी की तुलना में वायनाड उनके लिए ज्यादा सुरक्षित सीट है। उनके करीबी लोगों का कहना है कि मान लीजिए अमेठी से भी लड़ते हैं और जीत जाते हैं तो उनको एक सीट छोड़नी पड़ेगी। वह अगर अमेठी छोड़ेंगे तो उसका भी गलत संदेश जाएगा और वह वायनाड छोड़ना नहीं चाहते। उनको मालूम है कि लोकसभा में पहुंचने के लिए देश में जो 543 सीटें हैं उनमें से सिर्फ एक सीट केरल की वायनाड है जो उनके लिए सुरक्षित है। बाकी 542 सीटों में से कोई ऐसी सीट नहीं है जहां राहुल गांधी चुनाव लड़ने में अपने को सुरक्षित महसूस कर सकते हों।
प्रियंका वाड्रा पहले ही चुनाव से भाग रही हैं। प्रियंका वाड्रा की चुनावी शख्सियत क्या है? हैसियत क्या है? उनकी अपील क्या है? इसका पता चला 2019 में जब उनको आधे से ज्यादा उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया था जिसमें रायबरेली और अमेठी भी थी। रायबरेली में सोनिया गांधी का वोट परसेंटेज 2014 की तुलना में 2019 में 30% घट गया और राहुल गांधी अमेठी से चुनाव हार गए। प्रियंका वाड्रा के प्रभार में यह रिजल्ट आया।
2022 विधानसभा चुनाव में उनको उत्तर प्रदेश का पूरी तरह से प्रभार दे दिया गया। ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ उनको लगा कि एक नारा देने से चुनाव में जीत हासिल हो सकती है। उसके लिए संगठन की जरूरत नहीं है, उसके लिए उनके परिवार का नाम ही काफी है। अगर गांधी परिवार का कोई चुनाव मैदान में उतरा है तो वह जीत ही लेकर आएगा। इस गलतफहमी में वह 2022 के विधानसभा चुनाव में उतरी। उनको लगा कि अगर वह कांग्रेस पार्टी को सत्ता में नहीं ला पाई तो कम से कम विधानसभा में एक बड़ी पार्टी बनाने में सफल होंगी। नतीजा क्या आया? उत्तर प्रदेश में कुल 403 विधानसभा की सीटें हैं। कांग्रेस को सिर्फ दो सीटें मिली। 403 में केवल दो सीटें कांग्रेस पार्टी को मिली यह राजनीतिक कमाई है प्रियंका वाड्रा की।
दोनों भाई-बहनों में संघर्ष की बात काफी समय से चल रही है। यह कहा जा रहा है कि सोनिया गांधी राहुल गांधी को पसंद करती हैं। वह चाहती हैं उनके राजनीतिक वारिस राहुल गांधी बनें। प्रियंका वाड्रा पर उनको भरोसा नहीं है। मुझे लगता है कि सोनिया गांधी की अपने बेटे और बेटी के बारे में
राजनीतिक समझ दूसरे लोगों की तुलना में ज्यादा सही है। 2019 का चुनाव हारने के बाद जब राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया तो कांग्रेस के बहुत से लोगों को लग रहा था कि अब प्रियंका वाड्रा को पार्टी की कमान संभालना चाहिए। तब सबसे पहले राहुल गांधी ने प्रियंका का पत्ता काटा। उन्होंने कहा कि मेरे बाद गांधी परिवार का कोई भी सदस्य पार्टी का अध्यक्ष नहीं होगा। हालांकि इसके दो-तीन दिन बाद ही सोनिया गांधी कार्यकारी अध्यक्ष बन गई। वह 2 साल से ज्यादा समय तक कार्यकारी अध्यक्ष रहीं। उसके बाद मल्लिकार्जुन खरगे अध्यक्ष चुने गए।
आज भी अध्यक्ष भले ही मल्लिकार्जुन खरगे हों लेकिन फैसले गांधी परिवार के ये तीन सदस्य ही लेते हैं… और इनके बारे में फैसला लेने की तो हैसियत भी नहीं है मल्लिकार्जुन खरगे की। इसलिए यह कहा गया कि रायबरेली, अमेठी का फैसला कि राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा लड़ेंगे या नहीं- यह मल्लिकार्जुन खरगे पर छोड़ दिया गया है। इससे बड़ा मजाक और कोई नहीं हो सकता था। जाहिर है कि उनको फैसला लेना नहीं था। दरअसल इन दोनों को अपना फैसला कन्वे करना था मल्लिकार्जुन खरगे को जो औपचारिक रूप से अभी तक नहीं हुआ है। जैसे ही इनकी ओर से औपचारिक रूप से यह फैसला कन्वे किया जाएगा, मल्लिकार्जुन खरगे घोषणा कर देंगे। राजनीति में जो नेता जोखिम उठाने को तैयार नहीं होता उसके आगे बढ़ने की कोई संभावना नहीं होती। इसलिए मानकर चलिए कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी के आगे बढ़ने की सारी संभावनाएं दिन पर दिन खत्म होती जा रही हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)