आखिरकार नामांकन के आखिरी दिन अमेठी और रायबरेली का सस्पेंस कांग्रेस की ओर से खत्म कर दिया गया। 3 मई अमेठी, रायबरेली के लिए नामांकन का आखिरी दिन था। सुबह 7:00 बजे घोषणा की गई कि अमेठी से केएल शर्मा चुनाव लड़ेंगे जो रायबरेली और अमेठी से गांधी परिवार के मैनेजर थे। जब परिवार के लोग चुनाव लड़ते थे चुनाव प्रबंधन का काम वह देखते थे। वह कोई जन नेता नहीं है। वह कभी जनप्रतिनिधि नहीं रहे। पहली बार चुनाव लड़ने जा रहे हैं। उनकी सारी योग्यता सिर्फ यह है कि गांधी परिवार के वफादार हैं। तो गांधी परिवार और कांग्रेस में वफादारी का जो यह सिस्टम है वह अभी तक खत्म नहीं हुआ है।कांग्रेस खत्म होने जा रही है लेकिन वफादारी का यह सिलसिला चल रहा है। अगर राहुल गांधी नहीं भी लड़ रहे थे तो भी अमेठी जैसी प्रतिष्ठित सीट को कांग्रेस को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बनाना चाहिए था। हालांकि राहुल गांधी का यहाँ से ना लड़ना बहुत बड़ा संदेश देता है। आज प्रधानमंत्री ने पश्चिम बंगाल में बर्दवान की रैली में चुटकी लेकर हंसते हुए जो कहा उन्हें इतना मजा लेते हुए आपने शायद ही कभी देखा हो। उन्होंने कहा “मैंने तो पार्लियामेंट में कहा था कि यह जो नामदार हैं यह चुनाव मैदान छोड़कर भागेंगे। आप देखिए सोनिया गांधी रायबरेली छोड़कर भाग गईं राजस्थान। वहां से राज्यसभा में गई। राहुल गांधी अमेठी छोड़कर भाग गए।” फिर अगली लाइन जो उन्होंने जोड़ी “डरो मत, भागो मत”। आपको याद दिला दें उसका संदर्भ राहुल गांधी से था। अपनी भारत जोड़ो यात्रा, रैलियों और बातचीत में अपनी पार्टी के लोगों, समर्थकों से वह बार बार कहते थे- “डरो मत, डरने की जरूरत नहीं है।” राहुल गांधी तो खुद ही डर गए। अगर आपमें अमेठी से स्मृति का मुकाबला करने की हिम्मत नहीं है तो आप राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी से मुकाबला करने की सोच भी कैसे सकते हैं।अमेठी और रायबरेली का चुनाव कांग्रेस के लिए पूरी तरह से फंसा हुआ था। एक तो पूरे परिवार की प्रतिष्ठा इन दो सीटों से जुड़ी हुई है। यहां से ना लड़ने का मतलब अलग था। जब केरल में वायनाड का चुनाव चल रहा था तो मैंने कहा था कि 26 अप्रैल को वायनाड में वोटिंग है। उसके बाद राहुल गांधी की उम्मीदवारी की घोषणा होगी। मुझे लगा था कि अमेठी से लड़ेंगे। हारें या जीतें कम से कम लड़ने का माद्दा तो दिखाएंगे। उस समय लगा था कि वह अमेठी छोड़कर भागेंगे नहीं। भाजपा को यह मुद्दा नहीं देंगे कि वह अमेठी में हार के डर से भाग गए। स्मृति ईरानी से तीसरी बार मुकाबला करने की उनकी हिम्मत नहीं है। लेकिन राहुल गांधी ने वही किया।
सवाल यह है कि अगर उनको अमेठी से नहीं लड़ना था, रायबरेली से लड़ना था, तो वायनाड का चुनाव खत्म होने के बाद ही घोषणा हो सकती थी। आखिरी दिन तक घोषणा को रोक कर रखने को कांग्रेस पार्टी अपनी बहुत बड़ी स्ट्रेटेजी बता रही है। कह रही है राहुल गांधी शतरंज के बहुत माहिर खिलाड़ी हैं और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को परेशान कर दिया है। बिल्कुल सही बात है। अगर अपने पैर पर अपने आप कुल्हाड़ी मारने को स्ट्रेटेजी कहते हैं तो यह मास्टर स्ट्रेटेजी है। इसका असर क्या हुआ है? रायबरेली और अमेठी दोनों जगह कांग्रेस के कार्यकर्ता निराश हो गए। कांग्रेस के कार्यकर्ता उम्मीद कर रहे थे कि रायबरेली से प्रियंका वाड्रा चुनाव लड़ेंगी। प्रियंका वाडरा के बारे में कांग्रेस की ओर से जो तर्क दिए जा रहे हैं वे हारी हुई मानसिकता का प्रदर्शन करते हैं और उस भाव को प्रकट करते हैं। प्रियंका वाड्रा के बारे में कहा जा रहा है कि उनको देश भर में चुनाव प्रचार करना है इसलिए उन्हें एक सीट तक सीमित नहीं रखना चाहते। सवाल है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो प्रचार कर नहीं रहे हैं। वह तो देश में कहीं जा नहीं रहे। वह अपनी सीट में सीमित हो गए हैं। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह तो चुनाव प्रचार कर नहीं रहे हैं। वह अपनी सीट तक सीमित हो गए हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता जो चुनाव प्रचार कर रहे हैं उनमें से ज्यादातर लोग चुनाव भी लड़ रहे हैं।
दरअसल हार का डर आदमी से ऐसे काम करवाता है जो अतार्किक होते हैं। उसके बचाव में जो तर्क दिए जाते हैं उनका कोई आधार नहीं होता। अब आप जरा अमेठी और रायबरेली का चुनावी गणित समझिए। एक जमाना था यह परिवार का गढ़ माना जाता था। इस किले को 2019 में स्मृति ईरानी ने ध्वस्त कर दिया। किसी कांग्रेसी को सपने में भी यह उम्मीद नहीं थी कि राहुल गांधी अमेठी से चुनाव हार जाएंगे। राहुल गांधी को मतदान खत्म होते ही लग गया कि वह हार रहे हैं। बल्कि बीच में ही लग गया था लेकिन उसको जाहिर नहीं किया। मतदान होते ही वह नॉमिनेशन करने सीधे वायनाड गए। 2019 में उत्तर प्रदेश के अमेठी, रायबरेली में चुनाव पहले हुआ था, वायनाड (केरल) में बाद में। राहुल गाँधी वायनाड से जीत गए, अमेठी से हार गए। राहुल गांधी को 2019 में भी मालूम था कि वो अमेठी से हार रहे हैं। राहुल गाँधी और उनकी पार्टी दावा कर रहे हैं कि वायनाड से जीत पक्की है। तो आपको लोकसभा में तो एक ही सीट से जाना है। अगर वायनाड से जीत पक्की है तो रायबरेली क्यों आए? इसका मतलब आप वायनाड को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। आपको डर है कि वायनाड में हार भी सकते हैं, जैसे 2019 में लगा था कि अमेठी हार भी सकते हैं। कांग्रेस पार्टी और खास तौर से गांधी परिवार का यह डर पहली बार देखने को मिल रहा है।
जो राजनीति में रुचि रखते हैं, समझ रखते हैं, उन सबके लिए बड़े अचरज की बात है कि यह परिवार चुनाव लड़ने से डरने लगा है। हार जीत की बात बाद में आती है। हर पार्टी का नेता कभी चुनाव जीतता है कभी हारता है। लेकिन जो अपने को नेता कहलाता है, चुनावी राजनीति में रुचि रखता है, वह कभी चुनाव हारने से डरता नहीं है। बड़े-बड़े नेता चुनाव हार चुके हैं, लेकिन हार के डर से चुनाव मैदान छोड़कर भागे नहीं। ऐसा करने वाले राहुल गांधी पहले नेता बने।
आप मानकर चलिए कि राहुल गांधी रायबरेली से आखिरी समय पर लड़ने को तैयार हुए हैं तो उसकी बहुत से वजहों में एक वजह यह भी है कि उनको वायनाड से हार का डर है। हार जाएंगे… यह मैं नहीं कह रहा हूं, लेकिन जीत ही जाएंगे यह भी नहीं कह रहा हूं। उनके लिए वायनाड में 2019 में जितना आसान मामला था, वैसा 2024 में नहीं है। उनके मन में शंका है। अमेठी से राहुल गांधी का और रायबरेली से सोनिया गांधी का भाग जाना… गांधी परिवार के लिए चुनाव का नतीजा आने से पहले यह बहुत बड़ी हार है। यह कांग्रेस के लिए संदेश है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। (विस्तार से जानने के लिए वीडियो देखें)
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)