#pramodjoshiप्रमोद जोशी

कांग्रेस ने जैसे ही अमेठी और रायबरेली से अपने उम्मीदवारों का ऐलान किया, अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए जिनके उत्तरों पर विचार करने से पार्टी और उसके नेतृत्व की मानसिकता का पता चलेगा। मुख्य प्रश्न यह है कि राहुल गांधी ने अमेठी का साथ क्यों छोड़ा और रायबरेली की ओर क्यों रुख किया? इसका एक संभावित उत्तर यह हो सकता है कि उन्होंने रायबरेली की धरोहर को बचाने की जिम्मेदारी को प्राथमिकता दी हो। हालांकि यह भी माना जा सकता है कि अमेठी में अपनी जीत को लेकर उनमें आत्मविश्वास की कमी थी और उन्हें डर था कि हार से राजनीतिक हानि हो सकती है। सबसे बड़ी हानि निर्णय को देर तक लटकाने से हुई है। एक ऐसी पार्टी की क्या दशा होगी जहां महत्वपूर्ण निर्णयों पर ना सिर्फ देरी होती है बल्कि अस्पष्टता भी बनी रहती है?

राहुल, प्रियंका और वरुण गांधी, इन तीनों के नामों पर दोनों सीटों को लेकर विमर्श चल रहा था। प्रियंका और वरुण के उम्मीदवार न बन पाने के पीछे के राजनीतिक अर्थ भी विचारणीय हैं। यह प्रश्न भी है कि यदि वरुण चुनाव लड़ते, तो किस दल के टिकट पर, कांग्रेस के या भाजपा के? अभी तो यह सवाल बिना जवाब का ही रहेगा। वरुण गांधी अगर खुद अपने इरादे जगजाहिर करते हैं, तब शायद स्थिति अलग हो।

भले ही अमेठी के कांग्रेसी समर्थक यह विश्वास व्यक्त कर रहे थे कि राहुल गांधी की विजय निश्चित है, लेकिन राहुल गांधी ने 2019 के चुनावी संग्राम से पूर्व ही अपनी हार स्वीकार कर ली थी। उनका दो स्थानों से चुनाव में उतरने का निर्णय इस बात की ओर संकेत करता है कि उनको अमेठी में पराजय की आशंका थी। फिर भी, उन पर लगा भगोड़ा होने का दाग आसानी से धुलने वाला नहीं है।

रायबरेली से भी उनकी राह सुगम नहीं होगी। सोनिया गांधी ने जहाँ रायबरेली से लगातार चार बार विजयी होकर जीत की हैट्रिक लगाई थी, वहां उनके मत प्रतिशत में भी कमी आती जा रही थी। 2004 में उन्हें इस इलाके से 80.49 प्रतिशत वोट मिले, जो 2009 में 72.23, 2014 में 63.80 और 2019 में 55 प्रतिशत रह गए। 2019 में लोकसभा सीट जीतने के बावजूद 2022 के विधानसभा चुनाव में रायबरेली और अमेठी में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा।

इसका मतलब है कि संगठन से स्तर पर भी पार्टी में गिरावट है। ऐसे में फिर से लड़ने में जोखिम थे, पर उनके मैदान छोड़ने पर प्रतिष्ठा को जो ठेस लगी है, वह भी कम नहीं है। रायबरेली से पलायन का मतलब है कांग्रेस के दुर्ग का पतन। कांग्रेस यदि नेहरू-गांधी परिवार है, तो हिंदी क्षेत्र से उसके पलायन का मतलब है, उसकी पहचान मिट जाना। शायद इसीलिए रायबरेली से राहुल को उतारा गया है।

संभव है कि वे इसबार रायबरेली से जीत जाएं, पर इसे निश्चित विजय मत मानिए। अलबत्ता वे जीते, तो लगता है कि वायनाड की सीट को छोड़ देंगे। परिवार की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए रायबरेली से जुड़े रहना जरूरी होगा। उससे भी ज्यादा उत्तर भारत से जुड़े रहने के लिए प्रतीक रूप में भी इस सीट से विजय जरूरी है। इसीलिए बीजेपी उन्हें यहाँ से हराने के लिए अपने सभी साधनों को लगा देगी। उन्होंने यहाँ से दिनेश प्रताप सिंह को उतारा है, जिन्होंने 2019 के चुनाव में सोनिया गांधी को मिले 5,34,918 के मुकाबले 3,67,740 वोट हासिल किए थे। यानी जीत का मार्जिन 1.69 लाख रह गया, जो 2014 में 3.52 लाख था।

2019 के चुनाव में सपा और बसपा दोनों ने सोनिया गांधी का समर्थन किया था। इसबार के रायबरेली के चुनाव परिणाम का असर केरल में 2026 के विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेगा। 2019 में वायनाड से राहुल गांधी के खड़े होने की वजह से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को जबर्दस्त सफलता मिली, पर 2021 के विधानसभा सभा चुनाव में वाममोर्चा की विजय से रोटेशन की परंपरा टूट गई। यदि राहुल गांधी वायनाड से विजयी होकर भी वहां से पीछे हटते हैं, तो इसके परिणाम संभावित रूप से नकारात्मक भी हो सकते हैं।

(लेखक ’हिंदुस्तान’ नई दिल्ली के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं)