सत्यदेव त्रिपाठी ।
सुबह 8 बजे अपने घर से निकलने के बाद से रात को 8 बजे वापस घर पहुँचने तक उसकी ज़ुबान से ‘हाँ मम्मी, हाँ ऑण्टी, हाँ दीदी’ के अलावा और कोई शब्द तब तक नहीं निकलता, जब तक उससे कुछ पूछा न जाये। ‘हाँ’ और ‘सम्बोधनों’ वाले इन दोनो शब्दों में छिपा अपनी जिन्दगी का माहात्म्य वह बख़ूबी समझ गयी है। मालकिन यदि बेटे के साथ है, तो उसकी भी मम्मी है और युवा है, तो दीदी और इससे अलग है, तो ‘जिसमें मिला दो, लगे उस जैसा’ वाला ‘ऑण्टी’ है। और वह जान गयी है कि ‘हाँ-हाँ’ कहके और जो कहा गया, उसे करके ही वह काम पर रह पायेगी और अपना तथा परिवार का जीवन चला पायेगी।
कुर्बुर पुजारी जाति की महादेवी
अब तक तो आप समझ ही गये होंगे कि ‘घरकाम’ (घर-घर जाकर चौका-बर्तन, झाडू-पोंछा, नाश्ता-खाना बनाना आदि) करती है वह। वैसे तो यह काम करने वालियों के नाम नहीं होते। मुम्बई में वे ‘बाई’ (मराठी में ‘औरत’ का पर्याय) होती हैं और उत्तर भारत में ‘दाई’। पर इसका नाम है – महादेवी और इस शब्द का ही माहात्म्य है कि शहरे मुंबई में महादेवी के अलावा दूसरा नाम कोई बना भी न पाया। हाँ, हिन्दी के पुरबिया इलाके का शहर होता, तो इसे ‘महदेइया’ बनते देर न लगती। महाराष्ट्र के दक्षिण-पश्चिमी सीमांत पर कर्नाटक के रायचुर जिले से 15-20 किमी दूर ‘चागोदी’ गाँव की रहने वाली कुर्बुर पुजारी (ब्राह्मण की श्रेणी वाली, जिनका ऐसा काम करना हमारे लिए अकल्पनीय है) जाति की महादेवी शादी के बाद अपने पति मालेशंकर के साथ मुम्बई आ गयी थी।
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पीना और पत्नी को पीटना
जुहू स्कीम के सामने नेहरू नगर की झोपडपट्टी में रहती थी। लेकिन 7-8 सालों पहले जब पहली बार काम माँगने और फिर करने के लिए हमारी कोठी (बिल्डिंग) में उसका आना-जाना हुआ, तो उसकी दूसरी बेटी पेट में थी। लेकिन हर दूसरे चौथे दिन कभी माथे पर, कभी मुँह पर, कभी हाथ या पाँव पर गहरे घाव के निशान होते– सूजन होती, फटा-फूटा होता। बहुत पूछने पर पता लगा कि हाशिए के लोगों का वही सनातन कारनामा– पीना और पत्नी को पीटना। फिर उसी से घर व बाहर तक के काम लेना, अपना व बच्चों का पेट भरना और ऐसी बेरहमी से पीटना भी। लेकिन कुछ भी कहो, हमारे लाख समझाने-उकसाने के बावजूद विरोध व बचाव का उपाय न करने और सब सह लेने में भी यह ‘महादेवी’ ही ठहरी।
उसे शक़ था
गज़ब तो तब हुआ, जब एक दिन वह पता करने यहाँ आ गया कि असल में सब मिलाकर वह कितना पैसा पाती है, क्योंकि उसे शक़ था कि महादेवी पैसा छिपाती है और ऐसा करके वह उसके हक़ की ऐश न करने देने का ज़ुर्म करती है। किंतु उस दिन उसका काल ही पेरे था, जो आया। सभी लोग जमके एक सुर से पिल पडे उसके ऊपर… तुम होते कौन हो पूछ्ने वाले? तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ी यहाँ आने की? तुम उसी की कमाई का पीते हो और उसे ही रोज़ पीटते हो! हम अभी पुलिस बुलाते हैं और तुम्हें जेल भेजवाते है आदि-आदि। उसकी तो सिट्टी-पिट्टी गुम। खिसकने लगा चुपचाप, लेकिन तब तक यह चेतावनी भी सुनाई पड़ी उसे कि अब कभी मारा, वह घायल दिखी, तो हम पुलिस लेके सीधे तुम्हारे घर आ धमकेंगे और थाने में बन्द करा देंगे। असर तो पड़ा। मार-पीट बन्द हुई। लेकिन यह दबाव उसे गवारा न हुआ और वह इसे लेकर गाँव चला गया।
महादेवी की दूसरी पारी
फिर कुछ अरसे बाद शुरू हुई महादेवी की दूसरी पारी, जब गाँव में रोजी-रोटी न चल पायी और फिर उसे वापस आना पड़ा। इस बार महादेवी कूपर अस्पताल के आगे ‘आकाश गंगा’ कॉलोनी के पास की झोपडपट्टी में रहने लगी, जहाँ पास ही उसका बड़ा भाई भी रहता है। मार-पीट की सुनकर भाई पहले भी आता था, लेकिन तब कुछ ख़ास फर्क़ न पडता था। वहाँ रहते हुए भी काम माँगने फिर महादेवी यहीं आयी। उसका काम और ईमान अच्छा है, सो फिर काम मिला। अब रोज़ आने-जाने में 5-6 किमी चलना भी पडता है। तन-बदन से भले गाढी साँवली है अपनी महादेवी, पर सफाई से रहती है। कृशकाय है, लेकिन चार-पाँच घरों में काम करते हुए रोज़ 12-13 घण्टे फिरहरी की तरह नाचती है– बैठने को कौन कहे, साँस भी कब लेती है, पता नहीं चलता। इसके अलावा सुबह-शाम अपने घर का भी पूरा काम करती ही है। और इसी कसब के भरोसे 12 से 13000 रुपये महीने कमा लेती है। और महीने के चार-छह दिनों की बेरोज़गारी के बावजूद चार-पाँच सौ रुपये रोज़ के हिसाब से इतना ही पति भी कमा लेता है– बडे भाई ने अपने बहनोई को भी इमारतें बनने के काम में रोजही पर मज़दूरी दिला दी है, जहाँ वह ख़ुद मुक़ादम (सुपर्वाइज़र) है।
गाढे दुर्दिन तो कुछ सँभले, पर दंश अभी बाकी
इस तरह अब महादेवी का घर चल पड़ा है, दिन फिर रहे हैं। अब वे दोनो देवर भी अपनी तरह से आत्मनिर्भर होकर अलग रहने चले गये हैं, जिन्हें इन सारी साँसतों के बीच अपने घर रखकर पालती-सँभालती रही महादेवी। लेकिन उनसे सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाये हुए है। अपने ससुर के गुजारे के लिए साल में अपने हिस्से का दस हजार रुपये गाँव भी भेजती है। अब इधर साल-माल से सातवीं में पढ़ती बड़ी बेटी सुबह का नाश्ता और अपने तथा छोटी बहन व छोटे भाई के स्कूल में खाने के डिब्बे तैयार कर देती है। तीनो ही सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। अब भाडे के झोपडे से अपना झोपड़ा खरीदने की सोच रही है। यहाँ की मँहगाई को देखते हुए पहले गाँव में घर बनवा लिया, ताकि जाने पर वहाँ शान से रह सके…।
लेकिन सब कुछ के बावजूद अब भी बोलती बहुत कम है– गोया गाढे दुर्दिन तो कुछ सँभले, पर दंश अभी बाकी हैं। तभी तो यह लिखने के दौरान पूरक जानकारियों के लिए एक-दो बातें जाननी चाहीं, तो डरकर उसने पूछ लिया– क्यों पूछ रहे अंकल, मैं काम ठीक नहीं करती क्या! लेकिन अपने तीखे अनुभवों एवं उससे मिली पीड़ा का निचोड भी बताया– ‘अंकल, अपने यहाँ तो मम्मी आते ही बोलती है- पहले नाश्ता-चाय कर लो, फिर काम करना। लेकिन बहुत सारी ऑण्टी लोग तो हमारे काम के ऊपर भी काम पे काम बताती रहती हैं और पानी को भी नहीं पूछतीं’। उस वक्त उसके चेहरे पर उभरी बेबसी व दयनीयता को देखकर बस, वही लगा कि ‘मैं लगा दूँ आग इस संसार को, हैं ‘लोग’ जिसमें इस तरह असमर्थ, कातर’!