सत्यदेव त्रिपाठी ।
देश के बड़े और अपने ढंग के अनूठे रंगकर्मी पद्मश्री बंसी कौल के जाने ठीक एक महीनवें दिन 5 मार्च से ‘संस्कार भारती’, काशी महानगर और ‘सनबीम शिक्षण समूह’, वाराणसी द्वारा भव्य सभागार ‘हारमोन’ में आयोजित ‘बंसी कौल नाट्योत्सव’ शायद उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप किया गया देश का पहला नाट्योत्सव है, वरना- आभासी (डिजिटल) माध्यम पर चर्चाएँ-बातें तो बहुत सारी हुई हैं। 

यहाँ की आयोजन-संस्कृति में ‘संस्कार- भारती’ के मनोरम ध्येय-गीत से शुरुआत व पूरे सभागार का खड़े होकर ‘वन्दे मातरम’ के सामूहिक गान से समापन तथा पूरा संचालन  विशुद्ध प्रांजल हिन्दी में देखना-सुनना बहुत प्रीतिकर लग रहा है। इसी के साथ ‘अंग-वस्त्रम्’ से सत्कार आदि के आचारों का भी विशुद्ध भारतीय परम्पराओं से पोषित होना ‘संस्कार-भारती’ की कार्य पद्धति है और हमारे देश में आज तथाकथित आधुनिकता व फ़ैशन के नाम पर हो रहे घोर सांस्कृतिक व भाषाई संक्रमण, बल्कि आक्रमण, के युग में यह सब नितांत प्रासंगिक व ज़रूरी है। हर दिन सभी पदाधिकारियों की नियमित व पूर्णकालिक उपस्थिति तथा पूरे जन-समुदाय से उनकी सहज समक्षता भी आज के घालमेल वाले संभ्रमित समय में अपवादस्वरूप होकर सांस्कृतिक प्रतिबद्धता की मिसाल बन रही है।

चार दिन, पांच नाटक

इस चार दिवसीय नाट्योत्सव में मंचित पाँच नाटकों की ‘रंगपंचमी’ से जहां शीर्ष रंगकर्मी बंसी कौल को रंगांजलि अर्पित की जा रही है, वहीं हर दिन नाटक के पहले आधे घंटे तक दिवंगत रंग-व्यक्तित्त्व  की जीवन व रंग-यात्रा की एक झलक भी प्रस्तुत की जा रही है, जो सुपरिचित रंग समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी के माध्यम से ‘संस्कार-भारती’ व ‘सनबीम शिक्षण समूह’ की तरफ़ से भावपूर्ण शब्दांजलि है। यह शब्द-यात्रा बंसी कौल व उनके कलाकर्म के तथ्यों व आँकड़ों की नहीं, वरन वक़्ता के साथ बंसी दा के दो दशकों के सम्बधों-संवादों-बहसों से बनी उनके कलामूल्यों एवं मानवीय मूल्यों की यात्रा है, जो हर किसी के लिए अनुकरणीय हो सकती है। 

दोनों नृत्य नाटिकाओं के विषय भी समान

नाट्योत्सव में आए नाटकों की अनायास ही ऐसी श्रेणी बनती है की दो प्रस्तुतियाँ नृत्य पर आधारित नृत्य-नाटिकाएँ हैं- ‘बुद्धम् शरणम् गच्छामि’ और ‘चंडालिका’। और यह चयन की योजना नहीं, संयोग ही है कि दोनो के विषय भी समान हैं। दोनो में स्त्री निम्न जाति की होती है, जिसे चांडाल कहा गया है। शोध का विषय है की चांडाल कोई विशिष्ट जाति है या गाली? मेरे अनुभव- संसार (ज्ञान नहीं) में यह विशेषण ज्यादा है, जातिवाचक संज्ञा कम। वैसे हीन जाति  का गाली बन जाना सहज सम्भव रहा है। यह गाली के रूप में अपेक्षाकृत कुछ शालीन है। परिवार के बच्चों को भी झिड़कने के लिए दी जाती है- मैंने नानी से बहुत सुना है, जो वह मुस्कान भरी नज़ाकत से देती थी।

‘बुद्धं शरणम् गच्छामि’ में चांडाल-कन्या

‘बक्शी विकास संगम’, आरा नाट्य समूह की प्रो. श्याम मोहन अस्थाना लिखित पहली प्रस्तुति ‘बुद्धं शरणम् गच्छामि’ में मगध राज्य की नृत्य-प्रतियोगिता में वैशाली के राजकुमार के साथ जो कन्या विजयी होती है, वह चांडाल-कन्या है; इसका पता बाद में लगता है। उसके ऊपर असत्य-भाषण करने और अभिजातों की नृत्य प्रतियोगिता में भाग लेने का अपराध लगता है। वह अपनी सफ़ाई में कहती है कि उससे जाति पूछी नहीं गयी थी, वरना वह बताती। आज यह ना पूछना-बताना अपने अभिनव आयाम ग्रहण कर रहा है। सवर्ण कोटे से चयनित आईएएस से बिना पूछे ठाकुर-कन्या व्याह दी जाती है। बाद में पता लगने पर लड़का यही कहता है, जो यहाँ कन्या कहती है- पूछा नहीं गया। लेकिन आज अब लड़की की विधवा मां यह कहकर मान जाती है कि ठाकुर आईएस ढूँढ़ने जाएँगे, तो 25 लाख दहेज कहाँ से लाएँगे? लेकिन यहाँ चांडाल-कन्या की एक नहीं सुनी जाती। उसे मृत्युदंड की सजा दी जाती है, जिसका अचानक प्रकट होकर बौद्ध भिक्षु उद्धार कर देते हैं।

सामाजिक सरोकार

यह कथा-आयाम बहुचर्चित है- ख़ासकर शस्त्र-विद्या की स्पर्धा की कर्ण-कथा में और बौद्ध कालीन परिवेश पर लिखे गए यशपाल के क्लासिक उपन्यास ‘दिव्या’ की शस्त्र-प्रतियोगिता के विजयी दलित-पुत्र पृथुसेन में। पृथुसेन भी अंत में बौद्ध-संघ की शरण में जाता है। प्राचीन काल में यह ज्वलंत विषय था और बौद्ध-धर्म उद्धारकर्त्ता के रूप में उद्भूत ही हुआ था। टैगोर-काल की ‘चांडालिका’ तक भी यह उद्धरणीय व विवेच्य विषय था। लेकिन आज के प्रगत-युग में इसका पर्याप्त क्षरण हो चुका है। क्रांतिकारी बदलाव आये हैं। आज दलित-आंदोलनों के परिणामस्वरूप यह दलितोत्थान का युग है। आज इस विषय को उठाना कला में उस काल की परम्परा का निदर्शन भर हो सकता है, इतिहास का पुनराकलन हो सकता है, लेकिन युग-सत्य का प्रमाण उस तरह तो बिलकुल नहीं हो सकता। और समाज से सीधे संवाद करने वाली नाटक जैसी विधा में इस बौद्ध भिक्षु के आगमन की तरह तो नहीं ही। और फिर तेंदुलकरजी के ‘कन्यादान’ तथा मराठी के ही एक नाटक ‘मय्यत’ और दूर ना जाएँ, तो प्रेमचंद की कहानी ‘सद्गति’ में मृतक हरिजन की अर्थी उठाने को लेकर बहिष्कार की दलित एकता के बाद तो एकदम नहीं कि बौद्ध-भिक्षु आएँ और उस कन्या का उद्धार कर दें। उद्धार करना जिस आकस्मिकता से होता है, वह तो इस वैज्ञानिक समय में कदापि विश्वसनीय नहीं। इस तरह सामाजिक सरोकार के निकष पर यह नाटक कालबाह्य ही कहा जाएगा।

अनुकूलता भी- वैविध्य भी

रह गयी बात नाटक के प्रदर्शन की, जो बड़ी लगन व श्रम से तैयार किया गया है। वेश में अनुकूलता भी है, वैविध्य भी। श्रृंगार बिल्कुल सधे-सँवरे हैं। नृत्य के विधान और उसकी शास्त्रीयता पर कुछ कहने का अधिकारी मैं नहीं- सिवा इसके कि मनभावन व आनंददायक लग रहा था। नर्तक-नर्तकियों की श्रेणी बद्धता मानीखेज लगी, वह युग्मों में हो, या समूह की जोड़ियों में। गायन की रिकॉर्डिंग इस मनभावनता को तोड़ती थी। नर्तकियाँ सभी कमोबेस काफ़ी सधी थीं, संगति को साकार करती थीं। थोड़ी देर के बाद चांडालिका बनी कलाकार सोनम कुमारी पहचान में आ गयी, क्योंकि कथा बता दी गयी थी। नर्तकों में राजाकुमार (दोनों नाम मैंने लिख लिए थे, वरना कलाकर-पात्र की सनाम सूची देने की प्रथा अभी बनारस में नहीं है – शुरू करनी पड़ेगी) का नृत्याभिनय निखर कर सामने आ रहा था। वही कलाकर बाद में बौद्ध-भिक्षु भी बनकर आया। यह आवाजाही और परिवर्तन सटीक भी थे और त्वरित भी। यह सब नाट्य व नृत्य निर्देशक बख्शी कुमार के कौशल, ज्ञान व संयोजन का सुफल है। वही मुख्य भूमिका में भी थे- कुमार की। नृत्य भी उनका ठसक-लोच-अदामय था। प्रशिक्षण-अभ्यास साफ़ झलक रहा था, लेकिन अपनी देहयष्टि के असंतुलन से उसकी शोभा स्खलित हो-हो जाती थी – हमारे यत्न करने पर भी नयनाभिराम नहीं हो पायी। एक कलाकार को यह कसके ध्यान में रखना होता है कि ‘शरीमाद्यं खलु धर्म साधनम्’ (कुमार सम्भवम्) से जयादा ज़रूरी यह ‘कलासाधनम्’ के लिए है।
पूरी प्रस्तुति नृत्यमय थी। नायक-नायिका के प्रेम को स्थापित करने की युक्ति की डोर पकड़े खूब सारे नृत्य-गीत देखने-सुनने को मिले। यही तो है पूरा नाटक। बस, अंत के दस से कम मिनटों में बिल्कुल तेज गति से यह नाटिका में सफलतापूर्वक संतरित हो जाती है, लेकिन नृत्य व नाटिका का संतुलन भी कोई चीज़ होती है और ‘अति सर्वत्र वर्जएत्’ का विधान भी है।
(क्रमश: )