सत्यदेव त्रिपाठी।
आईपीएल ठीक से बीता भी न था कि हारी हुई टीमों के ख़ाली हो गये चयनित खिलाड़ियों का विश्वकप के लिए अमेरिका जाना शुरू हो गया…। ऐसी ही आपाधापी का जीवन है आज…। शेष खिलाड़ी भी पहुँच के अपने को नये माहौल में अभ्यस्त कर चुके होंगे…। अभ्यास मैचों में पिचों के साथ अनुकूलन और अपनी गति व लय पा चुके होंगे…। पाँच जून, बुधवार को आयरलैंड के साथ पहला मुक़ाबला तो भारत जैसी मज़बूत टीम के लिए एक अभ्यास मैच जैसा ही होगा…। लेकिन ९ जून रविवार को अपने चिर प्रतिस्पर्धी पाकिस्तान से भिड़ना होगा…और तब टीम की ताक़त, औक़ात का असली इम्तहान होगा। ऐसे महायुद्ध के लिए दोनो टीमें अपने-अपने को हर तरह से तैयार करती हैं और औसत देखा जाये, तो भारत बीस तो पड़ता ही है – यूँ पाक भी उन्नीस नहीं रहता…।
मुलाहिज़ा हो कि प्रतियोगिता कोई भी हो, पाकिस्तान-भारत अलग समूह में ही होंगे और उनके मुक़ाबले रविवार को ही होंगे…। इन दोनो देशों की कोई भी स्पर्धा यूँ भी अपने ऐतिहासिक हादसों के चलते ‘खेल से परे किसी मक़सद के दीवानों की’ जैसी हो जाती है, ऊपर से लोग इसे शह दे-दे के आसमान पर चढ़ा देते हैं और यह खेल न होकर जान लेने-देने की बाज़ी हो जाता है। जैसे कभी ज़मींदार लोग मुर्ग़ा-भेंड़ा लड़ाते। वे एक दूसरे से घायल होकर भी सामने वाले को मात देने या उसकी जान ले लेने के लिए अपनी जान देने को तैयार रहते। वही हाल इन टीमों का रहता है!! हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कहाँ सभ्य हुए हैं? फिर भी ग़ज़ब का मज़ाक़ है कि क्रिकेट को शरीफ़ों का खेल कहा जाता है!! इसका दूसरा पक्ष घनघोर व्यावसायिक भी है। भारत-पाक मैच हो, तो सारे टिकिट बिकने की ग़ैरंटी और टीवी-नेट पर मुंह-मूँड़ गड़ाये बैठी रहती है आधी दुनिया!!
और यूँ देखें, तो भारत-पाक के अलावा भी फ़ाइनल तक पहुँचने के लिए हर मुक़ाबला तथा फिर फ़ाइनल यह खेल खिलाड़ियों के लिए ही नहीं, तमाम भावुक दर्शकों के लिए भी मरणांतक स्तर तक तनावपूर्ण होता है, क्योंकि पूरी दुनिया मिलकर दोनो देशों की इज्जत को दांव पर लगने का गरमागरम माहौल बना देती है। इससे निपटने के लिए तन-मन की भयंकर मज़बूती के साथ ग्यारहो खिलाड़ियों की अग्नि-परीक्षा होती है। तन की तैयारी तो ठीक है – बाहरी है, खुराक-अभ्यास पर आधारित है, जो कहीं अपने अपने वश में भी हो सकती है, लेकिन –और यह बहुत बड़ा लेकिन है- कि इस बार हमारी टीम मन से उतनी ही तैयार है क्या? आपसी सहयोग-साहचर्य एवं एक दूसरे के साथ जान देकर खेलने की स्थिति में है क्या? इसे परखने की दरकार है…!
इसके लिए हमें टीम के सदस्यों के हालात समझने होंगे…, जिसके लिए आसन्न भूत – याने अभी-अभी बीते दौर में चलना होगा…। जी हाँ, मेरी मुराद आईपीएल के महीनों लम्बे दौर से है – और ख़ास कर मुंबई की टीम से है, जिसमें से ही आये हैं इस विश्व कप टीम के कप्तान व उप कप्तान, एक प्रमुख गेंदबाज़ और एक तूफ़ानी बल्लेबाज़…याने मैदान पर मौजूद पूरी टीम का एक तिहाई से अधिक भाग मुम्बई इंडियन टीम से आया है। और दिग्गज खिलाड़ियों से भरी, काग़ज़ पर सबसे मज़बूत दिखती मुम्बई की टीम का जो शर्मनाक हस्र हुआ, वह क्या बताने की बात है? वो तो जग ज़ाहिर है। उस चयन में जो हुआ था और उसका जो परिणाम आया, उससे विश्वकप के चयन को सीख लेनी थी – इतिहास से सीखने की यही उपयोगिता होती है। लेकिन नहीं, विश्व कप के चयन में मुम्बई-टीम के चयन का इतिहास ही दुहराया गया है…। इसकी थोड़ी तफ़सील दरकार है…।
वस्तुतः इस सभी हादसों का सोता फूटा है मुम्बई-टीम की मालकिन के एक कारनामे (फ़ैसले) से, जो दिल-दिमाँग से नहीं, पैसों के ग़ुरूर से किया गया था, लेकिन समय ने सिद्ध कर दिया कि ग़ुरूर तो रावण का टूट गया, तो यह मालकिन किस खेत की मूली? अब ग़ुरूर टूट ही गया है, तो शायर की सीख भी सुना ही दूँ – ‘गुरूर तुम पे बहुत फबता है, मगर कह दूँ, इसी में सबका भला है – ग़ुरूर कम कर दे…। यह फ़ैसला था नये कप्तान की घोषणा, जिसके पहले अपने मौजूदा व स्थापित कप्तान, जिसने कई बार टीम को कप दिलाया, की सलाह तो क्या लेना, उन्हें सूचित तक न किया गया। इसी के समानांतर सीएसके दल के कप्तान के बदलाव का तरीक़ा देखें, तो कार्य का सलीका समझ में आ जाएगा…। अपने शुरुआती मैच से ठीक पहले पूर्व कप्तान (धोनी) से ही नये कप्तान (गायकवाड़) की घोषणा करायी गयी…, तो सब कुछ कितना सुव्यवस्थित, सौमनस्य-पूर्ण साबित हुआ – टीम को दो-दो कप्तानों के मशविरों का लाभ मिला…। जबकि मुंबई की गुप्त प्रक्रिया के अचानक विस्फोट का नतीजा यह कि अख़बारों में शोर मच गया…सोशल मीडिया पिल पड़ा – तिल के ताड़ बना दिये गये – और ये सारे अवसर इसी मालकिन के उसी एक अमानवीय मनमानी वाले फ़ैसले व उसके तरीक़े ने दिये…। मैच शुरू हुआ, तो नये कप्तान का स्वागत अपार दर्शकों की भारी हूटिंगों से हुआ…नया कप्तान खूं के घूँट पीके मैदान पर आता रहा…। यह क्रम प्रतियोगिता भर चलता रहा…, पर मालकिन के कानों पर जूँ न रेंगी। और नये कप्तान को कभी होश न आया, जिसका ज्वलंत उदाहरण यह कि मैदान में पूर्व कप्तान को सीमारेखा पर भेज दिया फ़ील्डिंग के लिए, ताकि बात तक की नौबत आसानी से न आये – सलाह की तो बात ही क्या!! यह भी न सोचा कि सालों से विकेट के आसपास फ़ील्डिंग करने वाला वरिष्ठ खिलाड़ी उस क्षेत्र में फ़ील्डिंग का मास्टर हो चुका है। फ़िर भी उसकी जगह बदलने की मनमानी इरादतन हुई – उसे ज्यादा दौड़ाने के लिए, उसे नीचा व अपना रुआब दिखाने के लिए, जिसका ख़ामियाज़ा भी टीम को भुगतना पड़ा, जब सीमारेखा पर कुछेक चौके न रोके जा सके और कैच भी छूटे…। लेकिन सबसे बड़ी बात यह हुई कि इन सबसे पूरी टीम की आपसी संगति बुरी तरह गड़बड़ा गयी – टीम अलग-अलग गुटों में बँट-बिखर गयी। नतीजतन काग़ज़ पर सबसे मज़बूत दिखती और वास्तव में भी मज़बूत मुम्बई की टीम, जिसका इतिहास भी स्वर्णिम रहा है, इस बार अंतिम पायदानों पर अटकी-लटकी रह गयी…! उस कप्तान का अपना प्रदर्शन तो औसत से ख़राब रहा…।
इन सबके मद्दे नज़र इतनी महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में इस बार चयन समिति को जिस कश्मकश व द्वंद्व से बचना था, उसी को ताक पर रख कर उसी बदगुमान कप्तान को खिलाड़ी तो खिलाड़ी, विश्वकप टीम का उप कप्तान भी बना दिया गया, जिसका मतलब व मक़सद समझ में न आया। क्या समिति में उसका ख़ास चहेता कोई या कुछ शक्तिशाली लोग थे या समिति को इस बात का अहसास ही न हुआ कि इस सर्वथा नासमझ फ़ैसले के क्या-क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं। यह एक तरह से भारत की टीम को मुम्बई की टीम के हस्र की तरफ़ ले जाकर रख देने की पहाड़ जैसी भूल हुई है या जानबूझकर देश की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ किया गया है…।
एक बात और…कि दुर्दैव से इस समय घरेलू पटल पर भी यह उपकप्तान बेहद परेशान है – भावना-संवेदना के साथ आर्थिक स्तर पर ७०% संपत्ति के नुक़सान की नौबत आन पड़ी है। ऐसे में वह अपना सर्वोत्तम दे सकेगा टीम को, इसमें सौ फ़ीसदी संदेह तो क्या, विश्वास है कि नहीं दे सकेगा…। मुझे ‘मुगले आज़म’ फ़िल्म में अकबर के मंत्री की चेतावनी याद आती है – ‘रणभूमि में योद्धा को भेजा जाता है – मायूस आशिक़ को नहीं’। ऐसे में इस शख़्स की दख़लंदाज़ी अपनी निजी कुंठाओं से संचालित भी होगी और आईपीएल जैसी प्रतिक्रियात्मक (रीऐक्शनरी) भी। उपकप्तान के नाते हर विचार-विमर्श में उसे शामिल भी करना होगा और क़ायदे से उसकी सुनी भी जानी चाहिए होगी…। और अब यह भी कह दूँ कि इन सब कुछ को जब हम जैसा सामान्य टीवी-दर्शक जान पाता है, तो फिर चयन-समिति तो कितना ही जानती होगी!! फिर ‘आ बैल मोहिं मार’ वाला ऐसा फ़ैसला क्यों लिया गया…??
ख़ुदा न करे, यह सारा गणित इसी तरह घट जाये, तो ज़िम्मेदार कौन होगा…? इसका आग़ाज़ तो उस मालकिन ने किया, जिससे यह सब नौबत बनी है, तो नींव को जर्जर करने में उसकी ऐतिहासिक भूमिका को कलंक लगेगा ही, लेकिन इसे न समझकर या जान-बूझकर जो चयन-समिति ने किया है, असली ज़िम्मेदार तो वही होंगे –
‘समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा ‘इनका ही’ अपराध!!
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