प्रमोद जोशी।
तमाम किंतु-परंतु के बावजूद लोकसभा चुनाव परिणामों से एक बात साफ है कि जनादेश एनडीए के नाम है। केंद्र में उसकी ही सरकार बननी चाहिए और बनेगी। पर यह सरकार पिछली दो सरकारों जैसी शक्तिमान नहीं होगी। उसमें अब गठबंधन सहयोगियों की शर्तें शामिल होंगी। गठबंधन सहयोगी पहले भी थे, पर उनका दबाव नहीं था। अब होगा। ऐसे में अर्थव्यवस्था और राजनीति से जुड़े उसके कार्यक्रमों को लेकर सवाल खड़े होंगे। भारतीय जनता पार्टी के कर्णधारों की यह परीक्षा की घड़ी है कि वे भँवर में फँसी अपनी नैया को किस तरह से बाहर निकाल कर लाएंगे।
असमंजस की इस परिस्थिति के बावजूद बीजेपी को दक्षिण में मिली सफलताएं ध्यान खींचती है। केरल में पार्टी के प्रतिनिधित्व की शुरुआत से एक नया अध्याय खुला है। तमिलनाडु में पार्टी के प्रत्याशी नौ सीटों पर दूसरे स्थान पर रहे। ये सीटें हैं चेन्नई मध्य, चेन्नई दक्षिण, कोयंबत्तूर, कन्याकुमारी, मदुरै, नीलगिरि, तिरुनेलवेली, तिरुवल्लूर और वेल्लूर। तेलंगाना में आठ और आंध्र में तीन सीटों पर मिली जीत अविश्वसनीय सफलताएं हैं। अलबत्ता कर्नाटक में सीटें कम हुई हैं।
ये परिणाम देश की राजनीति के अंतर्विरोधों को एकबार फिर से खोलने जा रहे हैं। इन परिणामों के साथ अनेक अनिश्चय जन्म ले रहे हैं, जो धीरे-धीरे सामने आएंगे। लगता है कि इसबार पूरे परिणाम देर से घोषित होंगे, पर उनके रुझान से स्थिति काफी सीमा तक स्पष्ट हो चुकी है। परिणामों का पहला संकेत हैं भारतीय जनता पार्टी की अपराजेयता एक झटके में ध्वस्त होना। फिलहाल ‘अमृतकाल’ का यह कड़वा अनुभव है। चुनाव-प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी की रैलियों और बयानों से यह संकेत मिल भी रहा था कि उन्हें नेपथ्य की आवाजें सुनाई पड़ रही हैं।
एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिला है, बावजूद इसके खबरें हवा में हैं कि 2004 की तरह ‘इंडिया’ गठबंधन की सरकार बनाने के प्रयास भी हो सकते हैं। खबरें हैं कि सोनिया गांधी और शरद पवार ने नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू से संपर्क किया है। राजनीति में हर तरह की संभावनाओं को टटोलने में जाता कुछ नहीं है. पर सवाल है कि एनडीए के गठबंधन सहयोगी क्या आसानी से उसका साथ छोड़ देंगे? इसकी उम्मीद तो नहीं है, पर राजनीति में किसी भी वक्त, कुछ भी हो सकता है।
आंध्र प्रदेश में तेलुगु देसम पार्टी को भारी विजय मिली है। तेलुगु देसम एनडीए का घटक दल है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक लगता है कि तेदेपा के 16 और जेडीयू के 15 सांसद जीतकर आएंगे। इन दो घटक दलों से ‘इंडिया’ गठबंधन ने संपर्क किया है। चूंकि बीजेपी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है, इसलिए उसे अब अपने गठबंधन को बनाए रखने के लिए प्रयत्न भी करने होंगे। उसके सहयोगी टूटेंगे या नहीं टूटेंगे, यह अलग बात है, पर अंदेशा बना रहेगा।
पहली नज़र में जो भी परिणाम आए हैं, उनके अनुसार केंद्र में एनडीए की सरकार बन जानी चाहिए, पर इस जीत में भी कई किस्म की हार छिपी है। दूसरी तरफ कांग्रेस के नेतृत्व में ‘इंडिया’ गठबंधन अपनी सफलता से खुश भले ही हो ले, पर उसकी इस सफलता में भी विफलता छिपी है। एक तरफ बीजेपी किसी सकारात्मक संदेश को जनता तक पहुँचाने में कामयाब नहीं हुई, पर ‘इंडिया’ गठबंधन ने जिस नकारात्मक आधार पर चुनाव जीतने की रणनीति बनाई, वह भी कामयाब नहीं हुई।
ये चुनाव-परिणाम मतदाता की उम्मीदों से ज्यादा उसके असमंजस को व्यक्त कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को इस बात का श्रेय मिला था कि 2014 और 2019 में उन्होंने गठबंधन-राजनीति से बाहर निकल कर स्पष्ट बहुमत हासिल किया, और स्थिर सरकार बनाई। ऐसा इसबार संभव नहीं हो पाया। पार्टी के नेतृत्व पर अब इस बात की जिम्मेदारी है कि वह नए रास्ते, नए मुहावरे और नए कार्यक्रम खोजे।
‘इंडिया’ गठबंधन की एकता की भी कोई गारंटी नहीं है। समाजवादी पार्टी के रूप में उसके भीतर एक नई ताकत का उभार हो गया है। वह अब अपना हिस्सा माँगेगी। दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के गठबंधन की विफलता के बाद उसके भविष्य को लेकर भी सवाल खड़े होंगे। अगले साल दिल्ली विधानसभा के चुनाव भी होने वाले हैं। क्या तब भी गठबंधन काम करेगा? महा विकास अघाड़ी की नजरें अब राज्य विधानसभा के चुनाव पर हैं। इसलिए अगले कुछ दिनों के घटनाक्रम पर नज़र रखनी होगी।
लोकसभा के परिणामों के साथ ओडिशा, आंध्र प्रदेश, अरुणाचल और सिक्किम विधानसभाओं के परिणाम भी आए हैं. सिक्किम में सत्तारूढ़ सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा (एसकेएम) कुल 32 में से 31 सीटें जीतकर शानदार वापसी की है। वहीं अरुणाचल में भाजपा ने 60 सदस्यीय विधानसभा में 46 सीट जीतकर लगातार तीसरी बार सत्ता में वापसी की है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ओडिशा और आंध्र प्रदेश के परिणाम पूरी तरह आए नहीं थे, पर ओडिशा में बीजेपी की सरकार बनने की संभावना है, जहाँ विधानसभा की 147 सीटों में से 75 के आसपास बीजेपी को मिलती दिखाई पड़ रही हैं।
पूरे परिणामों पर नज़र डालें, तो साफ ज़ाहिर है कि यूपी, बंगाल और महाराष्ट्र को लेकर एग्ज़िट पोल बुरी तरह गलत साबित हुए। भारतीय जनता पार्टी को सबसे बड़ा झटका उत्तर प्रदेश में लगा है। पार्टी का अनुमान था कि कम से कम 2014 की 62 की संख्या को वह प्राप्त कर लेगी, पर ऐसा हुआ नहीं बल्कि समाजवादी पार्टी ने उसे दूसरे नंबर पर धकेल दिया है। यह बात सोशल इंजीनियरी में उसकी विफलता को रेखांकित कर रही है। बंगाल में वह 2019 के स्तर को भी छू नहीं पाई है, तब उसे 18 सीटें मिली थीं। इससे दो बातें साफ हुईं। एक, उसके पास बंगाल में मजबूत संगठन नहीं है और दूसरे वह ममता बनर्जी की आक्रामकता का मुकाबला करने में असमर्थ रही है।
महाराष्ट्र में पार्टी ने सरकार बनाने और गिराने में जो भूमिका निभाई, उसका लाभ उसे मिला नहीं, बल्कि उसकी अपनी सीटें कम हो गईं। 2019 के चुनाव में उसे 23 सीटें मिली थीं। इसबार के परिणामों का असर अब वहाँ की सरकार पर भी पड़ेगा। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव भी होने वाले हैं। लोकसभा चुनाव का यह धक्का विधानसभा चुनाव में भी महसूस किया जाएगा। यही स्थिति हरियाणा में भी है, जहाँ बीजेपी की सरकार पर अब खतरा है। वहाँ भी चुनाव होने वाले हैं।
पार्टी ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव हारने के बाद से अपनी स्थिति में सुधार जरूर किया है, पर लोकसभा चुनाव में 2019 की सफलता से काफी दूर रह गई। दक्षिण में उसे आंध्र, तेलंगाना और केरल में सफलताएं जरूर मिलीं, पर ये सफलताएं उत्तर, पूर्व और पश्चिम में मिली विफलताओं को कम करने में सहायक नहीं हो पाईं।
‘इंडिया’ गठबंधन को, खासतौर से समाजवादी पार्टी को जो सफलता मिली है, वह आने वाले समय की उसकी राजनीति को भी प्रभावित करेगी। सपा देश में तीसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी है। उसने इस गठबंधन में तृणमूल कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया है। कांग्रेस पार्टी इस बात से खुश हो सकती है कि ‘इंडिया’ गठबंधन को सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश में सपा का उदय उसके लिए ही बड़ी चुनौती है।
(लेखक ’हिन्दुस्तान’ नई दिल्ली के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं)