बंसी कौल नाट्योत्सव -2
सत्यदेव त्रिपाठी ।
नाट्योत्सव के दूसरे दिन दो प्रस्तुतियाँ हुईं – ‘मंचदूतम’ नाट्यसमूह की निर्मिति ‘प्रेम का उदय’ और ‘यथार्थ क्रियेशन’ की नृत्य-नाटिका ‘चांडालिका’।
कथा सम्राट प्रेमचंद लिखित कहानी ‘प्रेम का उदय’ नाम से भले प्रेम कहानी का भ्रम देती है, लेकिन वस्तुतः है वह पिछड़ी जाति के जीवन पर आधारित। लेकिन इसमें दलित जीवन है, 1960 के बाद की वह दलित चेतना नहीं, जिसका कथ्य ही होता है दलित जीवन के दंश को उभारना और सवर्ण-अत्याचारों से विद्रोह, जो आगे चलकर कमाने और भुनाने का ज़रिया भी बना। प्रेमचंद ने तो इसमें दलित जीवन के माध्यम से भी जीवन-सत्य का उद्घाटन किया है– भोगवादी जीवन के बरक्स त्याग-ईमानदारी जैसे मानवीय मूल्यों की स्थापना की है। सो, यह दलित-विमर्श की कहानी नहीं है। कंजड़ जाति का जीवन इसमें माध्यम बनकर उस जाति की तमाम खूबियों-ख़ामियों के साथ छाया है। और इसी से वह मानवीय मूल्य ज़्यादा कारगर साबित होता है कि भरे पेट तो ठीक, ख़ाली पेट जो निभाए, वह सच्ची मनुष्यता।
रंगविधान
कहना होगा कि इस पूरी बात को अपने नाट्य-रूपांतर में चंद्रशेखरजी मलिक ने आत्मसात् कर लिया है और उसी को हू-ब-हू सामने लाते हुए निर्देशक अजय रोशन ने रंगविधान रचा है। ध्यातव्य है कि मूल कथा में सिर्फ़ प्रमुख पात्र भोंदू और उसकी पत्नी बंटी ही आते हैं। शेष कंजड़ पात्र इनकी बातों-स्मृतियों में उल्लिखित होते हैं, जो कहानी का रचनाविधान है। मसलन, चोरी इस जाति का अनकहा पेशा है। लेकिन प्रेमचंदज़ी ने इसे ईमानदार बनाया है और अपवाद होते भी हैं एवं अपनी बात कहने के लिए बनाए भी जाते हैं। तो भोंदू के घर में जड़ी-बूटी व जंगल से काट-काट कर लकड़ी आदि बेचने से ग़रीबी रहती है, जबकि बाक़ी कंजड़ चोरी करके कुछ अधिक ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी जीते हैं, जिनके उल्लेख कर-करके बंटी प्रेरित करती रहती है कि भोंदू भी चोरी करे। लेकिन अब नाटक में तो उल्लेख मात्र से दृश्यता की बात बनेगी नहीं, तो मलिक-अजय ने घोंचू और कमली के रूप में पड़ोसी को साकार कर दिया। अब बंटी को कमली अपने कपड़े-गहने दिखा-दिखा के जलाती है। और नाटक बनता है, जबकि कहानी कहने भर से बन गयी थी – बिना देखे-दिखाये। कमली को सजी-धजी दिखाना भी सही परिष्कार है– जलाने की अदा भी नाट्य है। यहाँ तक तो बहुत अच्छा, लेकिन बंटी-कमली की लड़ाइयाँ भी आती हैं, जो फ़िल्मों की ‘फ़ाइटिंग से बने संस्कारों वाले दर्शक के लिए हैं। क्या नाटक को अपने दर्शक नहीं बनाने हैं कि ऐसे तत्वों से बचे?
कमली का पति
यूँ तो कहानी को रूपायित करने में कमली के पति के पात्रत्व की बेसिक ज़रूरत न थी, पर घोंचू नाम का पात्र आता है… फिर वह शराबी भी है। दबंग पत्नी कमली के अछते बंटी को लुभाने की खुली कोशिश करता है, जो विश्वसनीयता में छेद भी बनता है और उसके पतन का चरम भी। इस अति-जोड़ से बचकर मूल को कम बदलने का काम हो सकता था। लेकिन इसका एक सुफल भी बनता है कि इसी दृश्य से बंटी के मन में वह बात कौंधती है की भोंदू को छोड़कर दूसरा मर्द करके ऐश-ओ-आराम करे, जो कहानी में इसके बिना बन जाती है। तो, बात दर्शक तक पहुँचने के साथ उसे लुभाने-हंसाने की भी है और तालियाँ बजीं– ‘संस्कार भारती’ जैसे सांस्कृतिक व ‘सनबीम शिक्षण समूह’ जैसे शैक्षणिक संस्थानों के आयोजन के बावजूद। पुलिस को तो गश्त लगाने, अपराधी को सजा देने के लिए आना ही था– बस, एक के बदले तीन-तीन और उसमें दरोग़ा के रुआब व नौकरी से भागने के भ्रष्टाचार तथा सिपाही की अपनी कलाबाज़ियाँ भी हास्य का औज़ार बनाकर ईजाद हुईं – प्रेमचंद के ऊपर घलुआ में। शुक्र मनाइए कि भोंदू द्वारा बलि चढ़ाने वाला बकरा भी मंच पर न लाया गया– सीटी तो तब भी बजती। पूरे कंजड़ जाति की सिरकियों के उल्लेख हैं, पर मंच बच गया– एक ही सिरकी बनी, क्योंकि उससे तो सीटी न बजती– उल्टे खर्च बढ़ता। पर मंच जितना बना-सजा, उसके लिए नव्या-तेजस-गोपाल-धनंजय की भीड़ जितनी बड़ी थी, उसके मुक़ाबले मंच छोटा भले था, फबा अच्छा।
नाटक छोटा- विमर्श कई
कुल मिलाकर यह छोटा-सा नाटक मूल व रूपांतर तथा नाटक-कहानी व रंगमंच-फ़िल्म के कई विमर्श खड़े करता है। यह मामला दर्शकता (दर्शनीयता नहीं) का भी है। और दर्शक तो फ़िल्म के हैं। अब शो करने की सारी जद्दोजहद के बाद छोटे शहर का बेचारा रंगकर्मी (वैसे तो सभी) नाटक के चल जाने के लिए आतुर भी है। तो तालियों व हँसी के फ़व्वारों का मुंतज़िर रहता है। और जब ये आ जाते हैं, तो जैसे फली फ़सलों को देखकर किसान व ग्राहकों की भीड़ देखकर दुकानदार की बाँछें खिल जाती हैं, वही रंगकर्मी में भी खिली हुई देखता हूँ और इसी पड़ाव पर यह विमर्श रोककर आगे बढ़ता हूँ। और अपनी उस आलोचकीय बात को कहने से रोक लेता हूँ कि यदि कहानी की आत्मा को नाट्य-शरीर देने में इतने बदलाव करने हों, तो ऐसी कहानी उठाते ही क्यों हो, जिसे प्रेमचंद देखें, तो निर्देशक से पूछें कि क्या यह मेरी ही कहानी है- गोया ‘ख़ुदा बंदे से ये पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है’?
जोड़-घटाने के इन विमर्शों के बीच यह भी कहना है की ये सारे विस्तारित पात्रत्व में आए कलाकार सत्यप्रकाश-फाल्गुनी (घोंचू-कमली), सिपाही-दरोग़ा (दीपक-शशिप्रकाश) आदि ने खूब प्रभाव छोड़े– याने अपने काम बड़े ठीक से किये। जिस ठाकुर के घर चोरी हुई, वे न भी आते सजा देने में, तो चलता; किंतु एक तो वे देहात के ठाकुर– कैसे न आते? दूसरे, समूह के कलाकारों को खपाने की व्यावहारिकता भी सर पर। रग्घू काका बने गोपालचंद का आना निष्प्रयोजन था, पर आने की अदा व उसमें उनका होना ही सत्प्रयोजन बन गया। रजत के प्रकाश-नियोजन व विशाल के संगीत ने भी अपने योगदान को बखूबी अंजाम दिये।
किरदारों में डूबे कलाकार
ये तो नाटक की चौहद्दियाँ थीं। अब उस प्रमुख पर आएँ, जो प्रेमचंद का है, जिसमें भोंदू-बंटी हैं, जहां पूरी रचना व प्रस्तुति का मर्म छिपा है। प्रमुख पात्र भोंदू को निभाने वाले अजय रोशन ही निर्देशक भी हैं और शायद समूह के संचालक भी। बंटी को निभाती ज्योति ही रूप-परिधान की विधात्री भी हैं। और बिना झिझक कहा जा सकता है कि दोनो ही अपने किरदारों में इस कदर डूबे हैं कि अजय-ज्योति मानो किसी अतल में चले गए हैं – रह गए हैं भोंदू-बंटी। और यह काम अति सादगी व सफ़ाई से होता है – न कोई अतिरिक्त आहार्य, न दैहिक हलचल। वाचिकता उतनी ही, जितनी ज़रूरी – सानुपातिक। दोनो की भूमिकाओं में मोड़ आते हैं – एक ईमानदार से चोर बनता है और दूसरी भोग-विलास से प्रेम करने वाली से छूटकर इन्सान के साथ प्रेम करने वाली बन जाती है। दोनो के कारण जितने प्रबल व जायज़ हैं, उतने ही शिद्दत से पकड़े, जज़्ब किये और अभिनय में उतारे भी गए हैं। भोंदू के प्रेम की गहराई भी क्या है कि चोर बनकर पत्नी में सच्चे प्रेम का उदय करा देता है और अब वह घायल पति को सौ दुख उठाकर स्वस्थ-सक्रिय करने में अपने जीवन की इतिश्री मानती है। अंतिम दृश्य में इसका परिपाक देखते बनता है – गोकि संवादों में कथा का किंचित दुहराव खटकता है – सम्पादन की दरकार रखता है, वरना प्रस्तुति का यह पूरा केंद्रीय भाग रचना की कृतार्थता है। इसे देखकर प्रेमचंद की भी बाँछे खिल जायें, जो तमाम कथा-जोड़ों को देखकर बुझ गयी थीं।
रंगकला की श्रृंगार
यूँ तो पूरी प्रस्तुति और ख़ास तौर पर यह प्रमुख भाग दोनो कलाकारों व निर्देशन की पैनी नज़र के जद में है, पर पेंच की कस थोड़ी ढीली हुई है। प्रेमचंदजी ने कहानी में कंजड़ जाति की उस प्रवृत्ति को उभारा है, जिसमें चोरी को क़बूल करना उस जाति के लिए कलंक है। जान देकर भी भोंदू इसे निभाने के लिए अटल है, लेकिन बंटी क़बूल लेती है। इसी से आहत होकर वह बंटी पर पहली बार भयंकर ग़ुस्सा करता है। इतना तो प्रस्तुति में आया है। लेकिन लेखकीय दृष्टि यहाँ जातीय मूल्य, बल्कि मूल्यहीनता, पर भी प्रेम की और मनुष्यता की विजय पर भी टिकी है। और यह सारा कुछ प्रस्तुति में ठीक से आने से रह गया है (या मुझ तक पहुँचा नहीं)। कहना यह है कि जितने जोड़ नाट्य-शरीर में लगाए, आत्मा के इस अंश को निखारने के लिए तो कुछ संवादो की दरकार थी। सो, यह कोताही खल गयी। फिर भी यह प्रस्तुति तमाम अर्थों-प्रयोजनों में रंगकला की श्रृंगार सिद्ध होती है। इसके लिए ‘मंचदूतम’ को हृदय से साधुवाद। और अब ‘चांडालिका’ की चर्चा कल।
रोज़ की तरह सत्यदेव त्रिपाठी द्वारा बंसी कौल की स्मृति रंग-यात्रा के पूर्व प्रिय सौरभ श्रीवास्तव ने अपनी सदाशयी सोच व सलोनी-परिमार्जित भाषा व विनम्र अन्दाज़ में संचालन, ध्येयगीत व ‘वन्दे मातरम्’ की प्रस्तुति से कार्यक्रम की गरिमा को अक्षुण रखा। काशी महानगर इकाई के माननीय व सुदर्शन अध्यक्ष नीरज अग्रवाल ने उतनी ही गर्मजोशी से स्वागत किया व संगठन मंत्री श्री दीपक शर्मा ने निर्देशक को अंगवस्त्रम एवं सभी कलाकारों को प्रमाणपत्रों से सम्मानित किया। सचिव श्री सुमित श्रीवास्तव के आभार ज्ञापन के साथ कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। (क्रमश:)
बंसी कौल नाट्योत्सव, काशी: नृत्य नाटिका ‘बुद्धं शरणम् गच्छामि’ से हुआ शुभारंभ