मेरी चेतना के सहयात्री (दो व अंतिम)
आप किसी एक बात में आस्था रखते हो और अचानक एक व्यक्ति आपकी उस आस्था को तोड़ देता है, वह भी पूर्ण और परिपक्व तर्क के साथ। इस स्थिति में दो बातें हो सकती हैं – या तो आप उस से नाराज़ हो जाएंगे या फिर आप उससे प्रेम करने लगेंगे। यदि आप ऐसी धृष्टता के बाद भी उससे प्रेम करने लगते हैं तो वो व्यक्ति ओशो जैसा ही हो सकता है।
जैसे-जैसे समाज अधिक जागरूक होता जायेगा ओशो उतने ही प्रासंगिक होते चले जायेंगे। ओशो आपके हाथ-पैरों पर भरोसा करके आपको एक बहुत भयावह चुनौतियों से भरे हुए तर्क के सागर में फेंक देते हैं और आपके आसपास तैरते हुए आपको बताते हैं कि आपके पास दो हाथ-पैर हैं, मूर्ख … इन्हें चलाते क्यों नहीं? मेरी तरफ क्या देख रहे हो? सामने की तरफ देखो, इन हाथों से पतवार बनाओ और काटो इस धारा को और तैरकर पहुंचो उस पार!
मैं तो ऐसे कई धर्माचार्यों को जानता हूँ जो शुद्ध ओशो बोलते हैं लेकिन ओशो ने एक बात कही थी कि मेरा संन्यासी या मुझसे मिला हुआ व्यक्ति कंठी-ताबीज-माला से ना पहचाना जाये, वो अपनी वेशभूषा से ना पहचाना जाए, वो अपने आचरण से, अपनी उपस्थिति से, अपने अस्तित्व से पहचाना जाये… तो मैं तो ओशो का संन्यासी भी नहीं रहा, मैंने उनसे दीक्षा भी नहीं ली, मैं उनके शरीर में रहते हुए उनसे कभी मिला नहीं, मैंने उनको देखा नहीं, मैंने उनकी आवाज़ सुनी है, मैंने उनको स्क्रीन पर देखा है या उनको पढ़ा है। मैंने दुनिया के 22-23 मुल्कों में कविता-पाठ किया, हजारों रात मैंने कार्यक्रम किये और मेरे पास ऐसे सैकड़ों प्रसंग है जब लोगों ने एकांत में, भीड़ में मुझसे हाथ मिलाते हुए पूछा कि आप ओशो से प्रभावित हैं क्या? मतलब कि आपको उन्होंने कहीं भी छुआ है तो आप उनका नाम ले कि न ले वे तो स्पष्ट झलक हो जायेंगे।
लेकिन ये जो भारतीय मनीषा की हिप्पोक्रेसी है, उनका जो हिप्पोक्रेटिकल बिहेविअर है, उनको लगता है कि वे ओशो के स्वीकार की बात कहेंगे तो वे छोटे हो जायेंगे, जबकि उन्होंने ओशो के माध्यम से ज़रथुस्त्र पढ़ा, लाओत्से पढ़ा, ओशो के माध्यम से वे कंफूशियस को जाने… मैं हिंदी के ऐसे आचार्यों को जानता हूँ जो पलट को, दाद को, रैदास को ओशो के माध्यम से जाने लेकिन आज वे ये मानने को राज़ी नहीं हैं…
जैसे मैंने जब मीरा पढ़ाई विश्वविद्यालय में तो पहले जो एक-दो साल मैंने वो मीरा पढ़ाई जो मैंने आचार्यों और विश्वविद्यालय से सीखी, फिर अगले वर्ष मझे मीरा पर ओशो प्रवचन मिल गये और आगे जो मीरा मैंने पढ़ाई वो बिलकुल अलग मीरा थी और मुझे ये मानने में कोई गुरेज़ नहीं है कि मीरा को उस तरह से देखने की दृष्टि ओशो ने मेरे भीतर विकसित की। मैं टीवी पर कई धर्माचार्यों को सुनकर तुरंत भांप लेता हूं कि ये किताब पढ़कर आये हैं।
(अप्रैल 2017 में ओशो टाइम्स में छपे साक्षात्कार और कुछ अन्य सामग्री पर आधारित)