बाइडेन की पहल के जोखिम।

प्रमोद जोशी।
पिछले साल तालिबान के साथ हुए समझौते के तहत अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी की तारीख 1 मई करीब आ रही है। सवाल है कि क्या अमेरिकी सेना हटेगी? ऐसा हुआ, तो क्या देश के काफी बड़े इलाके पर तालिबान का नियंत्रण हो जाएगा? अमेरिका क्या इस बात को देख पा रहा है? ऐसे में भारत की भूमिका किस प्रकार की हो सकती है? 

ऐसे तमाम सवालों को लेकर इंडियन एक्सप्रेस में सी राजा मोहन का लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें भारतीय नीति के बरक्स इन सवालों का जवाब देने की कोशिश की गई है।

एक नया अध्याय

सी राजा मोहन ने लिखा है- इससे न तो 42-साल पुरानी लड़ाई खत्म होगी और न अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप खत्म हो जाएगा। पर पिछले कुछ दिनों में जो बाइडेन प्रशासन द्वारा शुरू किए गए शांति-प्रयासों से अफगानिस्तान के हिंसक घटनाचक्र में, जिसने दक्षिण एशिया और अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, एक नया अध्याय शुरू हो सकता है।
अफगानिस्तान में अपने हितों को देखते हुए, अमेरिका की नई महत्वाकांक्षी नीतिगत संरचना और उसे लागू करने में सामने आने वाली चुनौतियों के मद्देनज़र भारत की इसमें जबर्दस्त दिलचस्पी होगी।
Jaishankar, Khalilzad discuss Afghan peace process
ताजा पहल के बारे में पिछले सप्ताहांत अमेरिका के विशेष दूत जलमय खलीलज़ाद ने अफगानिस्तान से विदेशमंत्री एस जयशंकर के साथ बातचीत की। उम्मीद है कि इस महीने अमेरिकी रक्षामंत्री जनरल लॉयड ऑस्टिन की यात्रा के दौरान इस सवाल पर और ज्यादा बातचीत होगी।
ट्रंप प्रशासन द्वारा शुरू की गई शांति-प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए बाइडेन प्रशासन ने भी इस क्षेत्र में चल रही लड़ाई को जल्द से जल्द खत्म करने की मनोकामना को रेखांकित किया है। इस सिलसिले में पाँच खास बातें सामने आती हैं।

अमेरिकी सैनिक कुछ समय और रुकेंगे

Joe Biden's Medical Report States He's In Good Shape : Shots - Health News : NPR

पहली, बाइडेन की शांति-योजना में यह संभावना खुली हुई है कि अफगानिस्तान में तैनात करीब 2500 अमेरिकी सैनिक कुछ समय तक और रुक सकते हैं। वॉशिंगटन में बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि ट्रंप प्रशासन ने एक निश्चित तारीख की घोषणा करके अमेरिकी पकड़ को ढीला कर दिया है। बाइडेन उसे मजबूत करना चाहेंगे। बाइडेन इस पकड़ को इसलिए बनाए रखना चाहेंगे, क्योंकि तालिबान ने हिंसा के स्तर को कम करने के अपने वायदे को पूरा नहीं किया है। अमेरिका दूसरी तरफ अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ ग़नी पर भी दबाव डालेगा, क्योंकि वह उन्हें भी समस्या का हिस्सा मानता है।

तालिबान पर हिंसा रोकने का दबाव

Jaishankar holds talks with US special envoy for Afghanistan Zalmay Khalilzad

दूसरे, तालिबान पर वॉशिंगटन इस बात के लिए दबाव डाल रहा है कि वे 90 दिन के लिए हिंसा को रोकें, ताकि शांति-प्रक्रिया को आगे बढ़ने का मौका मिले। इससे होगा यह कि पाकिस्तान की मदद से तालिबान वसंत-ऋतु के दौरान जो बढ़त लेना चाहता है, उसे रोका जा सकेगा।

तालिबान और काबुल को शांति प्रस्ताव

File image of US Secretary of State Antony J. Blinken and Afghan President Ashraf Ghani

तीसरे, खलीलज़ाद ने काबुल और तालिबान दोनों को लिखित रूप में शांति-प्रस्ताव सौंपे हैं। ग़नी को लिखे एक पत्र में अमेरिकी विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने कहा है कि अमेरिका अपनी शर्तें अफगान पक्षों पर थोप नहीं रहा, पर एक अंतरिम सरकार बनाने, नई राजनीतिक व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांत तैयार करने और एक स्थायी तथा व्यापक युद्ध-विराम की ओर बढ़ने के लिए माहौल बनाने का प्रयास कर रहा है।

तुर्की से अनुरोध

चौथे, अमेरिका ने तुर्की से कहा है कि शांति-समझौते को अंतिम रूप देने के लिए काबुल सरकार और तालिबान की एक बैठक बुलाए। तुर्की की इस नई भूमिका पर बहुतों को आश्चर्य हुआ है, पर इस्लामाबाद और अंकारा के मौजूदा रिश्तों को देखते हुए पाकिस्तान इसका स्वागत करेगा।

शांति की एकीकृत पद्धति

और पाँचवें, बाइडेन प्रशासन ने संयुक्त राष्ट्र से कहा है कि चीन, रूस, पाकिस्तान, भारत और ईरान के विदेशमंत्रियों की एक बैठक बुलाए ताकि अफगानिस्तान में शांति की एकीकृत पद्धति का विकास किया जा सके। इसमें नेटो का नाम होने से यूरोप में विस्मय हो सकता है।

कुछ बातें जिन्हें कोई नहीं मानेगा

Turkey gives muted first response to Joe Biden win | Arab News

बाइडेन के पैकेज में ऐसे तत्व भी हैं, जो न तो काबुल को मंजूर होंगे और न तालिबान को। काबुल सरकार, जिसने पिछले कुछ वर्षों में तालिबान को शांति-प्रस्ताव स्वीकार कराने में इतना समय और श्रम लगाया, अब इस बात से मुतमइन है कि तालिबान से बात करना वक्त की बरबादी है। दूसरी तरफ तालिबान का भी सत्ता की साझेदारी में यकीन नहीं है, क्योंकि उसे भरोसा है कि जैसे ही अमेरिकी सेना हटेगी, हम काबुल पर कब्जा कर लेंगे। और वह उस कट्टर इस्लामी प्रणाली को भी नरम बनाने को तैयार नहीं है, जिसे लागू करने को वह कृतसंकल्प है।

जोखिम है पर गोटी चल दी

गृहयुद्धों को खत्म करना आसान नहीं होता। यहाँ केवल आंतरिक ताकतों के ही नहीं बाहरी ताकतों के हित भी टकरा रहे हैं। उधर अफगानिस्तान में बने रहने के लिए अमेरिका सरकार को मिल रहा आंतरिक समर्थन भी खत्म हो रहा है। ऐसे में बाइडेन प्रशासन के पास छोटा सा मौका बचा है। इसमें जोखिम हैं, पर बाइडेन प्रशासन ने गोटी चल दी है।