प्रश्नपत्र लीक के बहाने शिक्षा-परीक्षा व्यवस्था की पड़ताल।
जब तक स्कूल-कालेजों की शिक्षा-परीक्षा दुरुस्त नहीं होगी, तब तक प्रश्न पत्र लीक होते ही रहेंगे चाहे आप जो भी उपाय कर लें।मैं 1963 तक स्कूल का छात्र था और 1967 तक काॅलेज का। तब तक स्कूल-कालेजों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जाती थी और अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर कदारचारमुक्त परीक्षाएं भी होती थीं। उस समय तक न तो कोचिंग संस्थानों का बोलबाला था और न ही प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होते थे।
साठ के दशक में प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग काॅलेजों में दाखिले का कट ऑफ मार्क्स मात्र 55 प्रतिशत था। मेडिकल का शायद उससे भी कम। मार्क्स के आधार पर ही दाखिला होता था। वैसे मेडिकल के बारे में पक्का नहीं हूं।
पर, धीरे- धीरे सामान्य शिक्षा-परीक्षाओं में कदाचार बढ़ने लगा। बिहार में 1967 से बड़े पैमाने पर कदाचार की शुरूआत हुई। सन 1971 आते-आते कदाचार पराकाष्ठा पर पहुंचा। मुख्यमंत्री केदार पांडे ने कुछ कर्तव्यनिष्ठ अफसरों के सहारे कदाचार पूर्णतः रुकवा दिया। पर बाद में फिर शुरू हो गया।
अब तो हर तरह की परीक्षाओं में सर्वत्र कदाचार ही नियम है और सदाचार अपवाद।
बिहार में हाई स्कूलों और काॅलेजों के सरकारीकरण के बाद से शिक्षा-परीक्षा में भारी गिरावट शुरू हो गयी थी क्योंकि निजी प्रबंध समितियों वाला अनुशासन व भ्रष्टाचारमुक्तता का लोप हो गया। नीतीश शासनकाल में हड़बड़ी में मार्क्स के आधार प्राथमिक शिक्षकों की बहाली ने गिरावट को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया।
हालांकि 1976 में भी प्राथमिक शिक्षकों की बड़े पैमाने पर बहाली मार्क्स के आधार पर ही हुई थी। पर तब तक स्कूल-काॅलेजों की शिक्षा ध्वस्त नहीं हुई थी। उसके बाद जिस अनुपात में राजनीति-प्रशासन में भ्रष्टाचार फैला और बढ़ा, उसी अनुपात में शैक्षणिक संस्थाओं में भी गिरावट आई।
अब तो अपवादों को छोंड़कर लाखों रुपए लेकर वी.सी.तक की बहाली होती है। अपवादों को छोड़कर सांसद-विधायक फंड की कमीशनखोरी ने प्रशासन पर जन प्रतिनिधियों की नैतिक धाक पूरी तरह समाप्त कर दी है। राज्यपाल देवानंद कुंवर जब बिहार विधानमंडल को संबोंधित करने गये थे तो कांग्रेस विधायक ज्योति ने खड़ा होकर तेज आवाज ने राज्यपाल से पूछा था- ‘‘वी.सी.की बहाली में आजकल आपका क्या रेट चल रहा है?’’ मोदी सरकार द्वारा बहाल कुछ राज्यपालों के कार्यकाल में भी इस मामले में पैसे का खेल चला।
उल्लेखनीय है कि हमलोग प्रेस गैलरी में बैठकर ज्योति की वह बेबाक बात सुन रहे थे।
जब मैं बी.एससी.पार्ट वन का छात्र था, उस समय का मेरा रूममेट साइंस विषयों की प्रैक्टिकल परीक्षाओं के लिए‘‘मनी फाॅर मार्क्स’’ का धंधा करता था। मेडिकल-इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिले के इच्छुक छात्रों से 250 रुपये लेकर कुछ विज्ञान शिक्षकों तक पहुंचाता था। शिक्षक पैसे लेकर प्रैक्टिकल के कुल 20 अंकों में से 18 या 19 अंक दे देते थे।
एक दिन उस दलाल छात्र ने मुझसे कहा कि तुम्हारे लिए पैसे में कुछ छूट करवा दूंगा। कहो तो फिजिक्स-केमिस्ट्री के प्रैक्टिकल में नंबर बढ़ाने के लिए तुम्हारे बारे में भी बात करूं। मैंने कहा कि मुझे जीवन में कभी कोई सरकारी नौकरी नहीं करनी है। मुझे राजनीति में जाना है। इसलिए मुझे वह सब नहीं चाहिए।
नब्बे के दशक में उत्तर बिहार का वह दलाल लड़का, जो तब तक बड़का हो चुका था, पटना के बुद्ध मार्ग पर एक दिन अचानक मिल गया। मैंने पूछा- ‘‘….न्दर, क्या कर रह हो?’’
उसने कहा कि मैं हाई स्कूल में शिक्षक हूं।’’
20 में से नाजायज तरीके से 18-19 अंक दिलवाने की जानकारी जब सरकार तक पहुंची थी तो मेडिकल में दाखिले के लिए प्रतियोगिता परीक्षाएं होने लगी थीं। कुछ साल तक ठीक रहा। पर,अब?
आप देख ही रहे हैं।
आज पेपर लीक करने वालों को सही मुकाम तक पहुंचाना इस सिस्टम में काफी मुश्किल काम है। बल्कि असंभव। क्योंकि यहां की दो -तिहाई से भी अधिक ‘‘व्यवस्था’’ सड़ चुकी है। अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर सब पैसे के पीछे अंध दौड़ में शामिल हैं। अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर जब भीषण भ्रष्टाचार राजनीति, सत्ता, प्रशासन, शिक्षा आदि से बने सिस्टम के अंग- अंग में है, हर जगह है, सर्वव्यापी और सर्व शक्तिशाली है तो सिर्फ प्रतियोगी प्रतियोगिताओं में ही आप सदाचार की तलाश क्यों कर रहे हो? कैसे कर रहे हैं ?
वैसे करते रहिए। पर मिलेगा ?
मिलेगा भी?!… कभी नहीं ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)