13 सालों बाद ‘टी-20 विश्व कप’ फिर भारत आया…
सत्यदेव त्रिपाठी।
13 सालों बाद ‘टी-20 विश्व-कप’फिर भारत आया है…। हार्दिक पण्ड्या द्वारा फेंकी गयी आख़िरी गेंद पर 7 रनों से भारत के फ़ाइनल जीतते ही जब मैदान पर गेंद को अर्शदीप ने एक रन पर फ़ील्ड करके जेब में रख लिया और कमेंट्री बॉक्स से सिद्धूजी गला फाड़ रहे थे –‘भारत ने विश्वकप जेब में डाल लिया है, गौरवपूर्ण विदा हुआ एक घंटा…कीर्त्ति रहे…युगों से कहीं बेहतर है…’, तो उधर ज़मीन पर पेट के बल गिर कर कप्तान रोहित दाहिने हाथ से ज़ोर-ज़ोर से धरती पीटने लगा था…और फिर चेहरा धरती में गड़ा के पड़ गया…। यह बिना कुछ सोचे अचानक हुआ, पर उस क्षण धरती माता की गोद से बड़ा क्या कुछ था, जिसकी शरण जाता कप्तान त्राण के लिए, दुलार के लिए –धरती बिन धीरज कौन धरे, माता बिन आदर कौन करे!!
फिर संयोग देखिए – मृत गेंद (डेड बाल) लिये हुए अर्श ही उसे फ़र्श से उठाने गया…। इस क्षण को सभी खिलाड़ी अपनी-अपनी तरह बिता रहे थे, झेल रहे थे, सह रहे थे, मना (सेलीब्रेट कर) रहे थे…। इस प्रकार जानलेवा तनाव से उबर भी रहे थे…। एक बात सबमें आम (कॉमन) थी – सभी खिलाड़ियों की आँखें नम थीं, सबके चेहरे भर्राए हुए थे…। सब सबसे गले मिल रहे थे…आलिंगन कर रहे थे…कोई किसी से आँखें नहीं मिला रहा था…!! कहते हैं ये ख़ुशी के आंसू थे…बक़ौल फ़िराक़ ‘पहुँच के मंज़िले जानाँ पे आँख भर आयी’!!
लेकिन कल पहली बार मैंने महसूस किया की साहित्य-कला एवं जीवन के प्रवक्ता…आदि सब झूठ बोलते हैं…। आंसू ख़ुशी के नहीं होते…उस भयंकर तनाव से उबरने की राहत के, मुक्ति के होते हैं…। अपने खून के हर क़तरे को दलित द्राक्षा की तरह निथार के पसीने की एक-एक बूँद में बहा देने की मेहनत और दिमाँग फ़ट जाने की त्रासदी से पार पाने के बल यह जीत मिली…तो ख़ुशी के आंसू नहीं होते, ऐसे आंसुओं के बल ख़ुशी हासिल होती है, जो हो रही थी। जीते खिलाड़ी, पर जीत हुई राष्ट्र की – भारतवर्ष की…। काश, इस मर्म को समझते हमारे नेता लोग…!! चुनाव जीतने पर उनकी आँखों में भी कभी आंसू होते, पर वहाँ तन-मन नहीं लगते, छल-छद्म, झूठ-फ़रेब लगते हैं।
आख़िरी ओवर में रोहित ने गेंद थमा दी थी हार्दिक को…! क्योंकि बीसवां ओवर फेंकने वाले बुमराह से अठारहवाँ ओवर फेंकवाना लाज़मी हो गया था और उसने विकेट निकाल के दिया भी– न सही डेविड मिलर का, मार्क़ो यानसन का। लेकिन अभी आईपीएल में रोहित-हार्दिक के बीच जो हुआ था, उसके बाद क्या ऐसा मुमकिन था? लेकिन उस वक्त न यह शर्मा था, न वह पण्ड्या था– दोनो भारतवासी थे- सिर्फ़ भारतीय, लेकिन सन्नी देवल वाले डाँफते ‘इंडियन’ भी नहीं…! उस बेला में राष्ट्र ही था, जो सर्वोपरि था। और हार्दिक ने विकेट लिये, जिसमें ख़तरनाक हो चुके मिलर का विकेट भी शामिल था, जिसने जीत की पक्की और आख़िरी कील ठोंकी। उसने रन भी काफ़ी बचाये…। इस प्रकार फ़ाइनल मैच का अचानक, पर बड़ा शिल्पी हार्दिक को बनना था…। और उसी में एक गेंद बाहरी (वाइड) क्या हुई, जो भले खेल का अहम हिस्सा है, पर संवेदना देखिए कि आत्मग्लानि से हार्दिक के भकुआए चेहरे को देखकर कलेजा फटने लगा हमारा…! महीनों से खलनायक बना बंदा एक ओवर के दो मिनटों में देश का रहनुमा बन गया– पहल हुई रोहित की तरफ़ से। बड़ा भी वही था, अधिकार भी उसी के हाथ थे, खेल का तक़ाज़ा भी था और सबसे बड़े दिल वाला तो वह सिद्ध ही है। लेकिन यह असली ताक़त है राष्ट्रीय जज़्बे की, जो सिखा रहा था कल रात हमें यह पाठ। इन अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबलों की सबसे बड़ी बात और देन राष्ट्रीयता ही है। वरना बहन-बेटी के टिकिट के लिए पूरे देश में एक सीट नहीं मिलती, लेकिन बेटे-भाई की सीट सुरक्षित हो जाने के बाद मिलता है – बची रोटी का टुकड़ा…! ऐसे में क्रिकेट का यह खेल ही है, जो सच्चा राष्ट्र-धर्म सिखाता ही नहीं, निभवाता भी है।
वैसे तो कल के पहले ही सिद्ध हो गया था कि भारत की तैयारी और इच्छाशक्ति ऐसी अदम्य है कि वह किसी सिक्का उछाल (टॉस) व अंपायर…आदि की मेहरबानी-नाफ़रमानी का मोहताज नहीं है, लेकिन इस बार टॉस जीतकर भारत ने बल्लेबाज़ी चुनी, जिसका परिणाम अपेक्षा के मुताबिक़ न रहा…। पहले ओवर में बने 15 रनों से बनी बड़ी आस ने तब दम तोड़ दिया, जब केशव महाराज की गुगलियों ने 9 रन पर रोहित, शून्य पर ऋषभ को चलता कर दिया…जल्दी ही रबाड़ा ने सूर्या को 3 रन पर वापस भेजकर भारत की बल्लेबाज़ी की कमर ही तोड़ दी। ऐसे में इस बार शुरुआत में घिसटते हुए ही सही, विराट अड़ गये। उनके साथ प्रबंधन ने जो प्रयोग किया, वह जेरे बहस के लायक़ है। जो एकादश दल पहले मैच में खेला, वही अंत तक खेलता रहा…। यह विश्वास अच्छी चीज़ है, पर जड़ता में एकदम न्यायोचित नहीं। फिर बाक़ी को क्या सिर्फ़ किसी के घायल होने के बाद ही खेलाने के लिए ले ज़ाया गया था? यदि क्रम में तीसरे नंबर के विशेषज्ञ विराट पारी की शुरुआत करने में कामयाब नहीं हो रहे थे, तो यशस्वी को क्यों आज़माया नहीं गया? लगातार असफल होते शिवम् को हटाकर फ़िनिशर के बेहतर खिलाड़ी रिंकू को क्यों न एक बार मौक़ा दिया गया? स्पिनर तो यूँ भी तीन-तीन (कुलदीप, अक्षर, जडेजा) थे। ख़ैर, कोहली बड़ी देर तक तो जूझते रहे…इतने विराट खिलाड़ी का फ़ाइनल जैसे मुक़ाबले में 48 गेंद खेलकर 50 रन बनाना दयनीय तो था ही, लेकिन उपाय भी न था। फिर आगे वे लय में आये और 58 गेंदों में 76 रन बनाकर रबाड़ा के हाथों बाहर रवाना हुए। दूसरे कामयाब बल्लेबाज़ रहे अक्षर, जिन्होंने 47 रनों की अच्छी पारी खेली और सम्माजनक रन संख्या तक पहुँची टीम, वरना बल्लेबाज़ी का बँटाढार ही हो गया था… क्या इसी को तकदीर भी कहते हैं?
इस पूरे अंतिम मुक़ाबले में गेंदबाज़ी का हाल अमूमन वही रहा कि ‘पानी सूखने न पाये, नमी लगने न पाये’…। तनाव कभी कम न हो रहा था, पर उम्मीद टूट भी न रही थी। वूमरा और अर्श ने हैड्रिक्स और ऐडेन के विकेट जल्दी लेकर आस बँधायी थी, लेकिन डिकॉक और स्ट्रब्स थोड़ा टिक गये। परंतु असली मार तो कॉसन की थी…! फिर भी आधा-आधा (वही फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी) वाला मामला चल ही रहा था कि वो हादसा हुआ…! जिस अक्षर ने पहले के मुक़ाबलों में विकेट लेकर और सीमा रेखा पर असम्भव गेंद को लोक (कैच ले) कर मैच के रुख़ मोड़ने के काम को आसान अंजाम दे दिये थे, उसी ‘अ-क्षर’ (क्षरित न होने वाले) के एक ओवर में 24 रनों की खर्ची ने खेल की दिशा-दशा ही बिलकुल बदल दी…। 30 गेंद पर 30 रन की नाज़ुक स्थिति को देखकर सबने आस छोड़ दी…। मैं तो बाहर जाकर अपनी प्यारी मासूम किमायी (डॉगी) के साथ मन बहलाने और शीशे से खेल देखने लगा था…। घटनाओं के समान क्रम मुझे बहुत मुतासिर करते हैं। असलियत को आईने की तरह साफ़ देखने के बावजूद अतीत के ख़राब घटनाक्रम मेरी साइकी बन गये हैं। ऐसे में पिछली बार सारे मुक़ाबले जीतने के बाद आस्ट्रेलिया से फ़ाइनल हार जाने का घटना-क्रम मुझे बेचैन कर रहा था। मन का चोर बताऊँ, तो बीच में कोई हानि-विहीन (हार्मलेस) मैच हारने की भी इच्छा थी मेरी, लेकिन ऐसी दुआ भी न कर पाया था – अजीब कश्मकश थी। कई भावुक श्रद्धावानों ने तो टीवी बंद कर दिये… और हार की आकुल प्रतीक्षा करने लगे।
लेकिन इसीलिए तो क्रिकेट को असीमित अनिश्चितताओं का खेल कहा जाता है। तभी तो अंतिम पाँच ओवरों में इतने विकेटों के रहते 50 रन तक बनने की सम्भावनाओं के विरुद्ध जाकर दक्षिण अफ़्रीका सिर्फ़ 23 रन बना सका। और इन्हीं बदलती आपसी कमज़ोरियों-ताक़तों में ही तो निहित है खेल का असली मज़ा… वरना तो इकतरफ़ा हो जाने पर कोई लज्जत ही नहीं रह जाती। इसी से तो कहा जा सकता है कि मैच रोमांचक रहा…19 ओवर और चार गेंदों तक कुछ एकदम से निश्चित न था- एक छक्का (याद करें मियाँदाद का वह छक्का) सब कुछ बदल सकता था। पाँचवें गेंद ने अंतिम राहत दी, पर जयकार व तालियों की गड़गड़ाहट के रूप में ख़ुशी के इज़हार व उछल के एक दूसरे के गले लगने की लिए आख़िरी गेंद फेंके जाने तक साँस रुकी ही रही…। इसी को प्रचलित भाषा में कहते हैं कि फ़ाइनल में फ़ाइनल जैसा मज़ा आया…। फिर शुरू हुए पटाखों के शोर…, ऊँची जाती फ़ुलझडियों की जगमगाती रोशनियाँ और हमारे जहू स्कीम में हर ख़ुशी-ग़म का आगार है – समुद्र, जहां जाने के लिए इंजनों की हुंकार और गाड़ियों की गड़-गड़ाहट…! दोस्तों-यारों के फ़ोन… यानी देश डूब गया इस ‘विराट’ जीत की ‘रोहित’ (लाल) ख़ुशी में…!